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दाल खाने के चक्कर में

ठाकुर साहब का दामाद आया है। घर की मुर्गी बहुत खुश है। उसकी जान बच गई। सास दामाद को दाल बना कर खिलाएगी। इज्जत का सवाल है। दामाद की खातिरदारी अच्छी होनी चाहिए ताकि उसे लगे की ससुराल में उसका पुरा सम्मान होता है। जिन संपन्न घरानों में यह कहावत आम तौर पर कही जाती थी - घर की मुर्गी दाल बराबर, आज उन घरानों में इस कहावत का इस्तेमाल वर्जित है - दाल की बेइज्जती होती है। दामाद जब अपने घर लौटा तो महीने भर अपनी ससुराल के गुण गता रहा, 'मैं जितने दिन रहा, सास जी ने रोज दोनों टाइम दाल बना कर खिलाई। नाश्ते में भी दालमोठ जरुर होती थी।'
एक मध्यवर्गीय परिवार में रिश्ते की बात चल रही है। लड़के वाले इस बात पर जोड़ दे रहे है की बारातियों की खातिरदारी अच्छी होनी चाहिए। खाने में दाल जरुर होनी चाहिए। जब लड़के के पिता ने यह बात तीसरी बार कही तो लड़की का पिता चुप न रह सका, 'समधी जी, हम अपनी और से कोई कसर नहीं रखेंगे। लेकिन एक बात आपको तय करनी है, आपको दहेज़ चाहिए या दाल?'
मेरे जैसे लोग, जिन्हें मुफ्त की पार्टियों में जाने का अच्छा अनुभव है, जानते है की बुफे में सबसे लम्बी लाइन चिकन के डोंगे के आगे लगती है। पञ्च के बाद छठे आदमी के लिए एक टुकड़ा भी नहीं बचता। अ़ब यही हाल दाल का होने वाला है। सेठ जी के घर में खाना बनाने वाली महाराजिन दाल भिगो रही थी। उसने देखा किसी का ध्यान नहीं है तो चुपके से दाल का कुछ दाना उठा कर अपनी चुन्नी में बाँध लिया। लेकिन सेठानी की नज़र से यह बात छिपी न रही। सेठ लोग ऐसे ही सेठ नहीं बन जाते। चोरी पकड़ी गई तो नौकरानी गिरगिराने लगी, ' मेरा बेटा बहुत छोटा है। बार-बार पूछता है, दाल कैसी होती है? सोचा ले जाकर ये दाने दिखा दूंगी। खा नहीं सकता, पर देख तो ले।' सेठानी दयालु थी, बोलीं, 'ठीक है। आज तो छोड़ देती हूँ। अगली बार ऐसा नहीं होना चाहिए।
एक समय, एक कहावत बनाई गई थी - भूखे भजन न होय गोपाला। उसके जवाब में कहा गया - दाल रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओ।' भूखे भजन न होय गोपाला' वाली कहावत आज भी इस्तेमाल की जाती है। लेकिन कोई 'दाल रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओ' नहीं कहता। भक्त लोग भड़क जाते है।
सुबह -सुबह भाभी बोली, ' दाल ख़त्म हो गई है।' मैं तब तक नहाया नहीं था। रात को जो कपड़े पहन कर सोया था, वही लिपटे हुए कपड़े पहन कर किरणे की दुकान पर चला गया। अरहर की दाल की ओर की इशारा करके पूछा, ' ये क्या भाव है?' दुकानदार ने मेरे कपड़ो पर नजर डाली ओर बोला,' बोहनी के वक्त मुड मत ख़राब कर। जो लेना है उसका भाव पूछो।' फ़िर वह अपने नौकर पर चिल्लाया, ' कितनी बार बोला, दाल यहाँ एकदम सामने मत रख। लोग बेकार में भाव पूछ कर टाइम ख़राब करते है।'
समय बदलता है। हालात बदलते है। भाषा भी बदलती है। साधारण स्थिति का दामाद, अपनी साधारण स्थिति के ससुराल में पहुँचा। सास ने पूछा, ' कुंवर जी क्या खाओगे?' दामाद बोला,' दाल।' सास ने पूछा, 'दाल?' 'हाँ, कोई भी दाल!' तब साली से नहीं रहा गया, ' जीजाजी, जरा आइने में शक्ल देख ली होती - ये मुंह ओर कोई भी दाल!' आजकल मूंग भी मसूर से कम महत्वपूर्ण नहीं है। जो कहावत कभी चतुराई का प्रतीक हुआ करती थी, आजकल वह समाज में आपके स्टेटस का प्रतीक बन गई है। पहले लोग कहते थे - तुम डाल-डाल , हम पात-पात। आजकल कहते है - तुम दाल-दाल , हम घास-पात।
आज हर गरीब के घर में यह यक्ष प्रश्न गूंज रहा है - दाल कैसी होती है? मजदुर की बीवी ने बेटे के सामने एल्यूमिनियम की टूटी-फूटी थाली रख दी। बेटे ने रोटी का एक कौर तोड़ कर मुंह में डाला और पूछा, ' अम्मा यह दाल क्या होती है?' माँ ने तुंरत टोकते हुए बोली, ' बेटा धीरे बोल। कहीं बाजार सुन न ले। वरना वह जन जाएगा की हम लोग एक वक्त रोटी खा लेते है।'

टिप्पणियाँ

  1. लेख पढ़ कर हंसी छूट गई..दाल ने यह सम्मान ना जाने कितने बरसों तक तपस्या कर पाया है। भगवान करे दालों के दिन सुधरे वैसे सभी के सुधरें।
    :)

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Aap sabhi bhaiyo & bahno se anurodh hai ki aap sabhi uchit comment de............

jisse main apne blog ko aap sabo ke samne aur acchi tarah se prastut kar saku......

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