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माथे पर पड़ी दरारों की मरम्मत

एक गीत है, जिसे फ़िल्म निर्देशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने बचपन में अक्सर अपने पिता को गेट हुए सुना था। बचपन से जवानी की और बढ़ते समय उन पंक्तियों के शब्द तो उनसे फिसल गए, पर भाव मन में पैठे रहे। कभी चर्चा हुई और प्रसून जोशी ने उन भावों को अपने शब्दों में पिरोने की कोशिश की। आपने वह गीत सुना होगा, उसे रहमान ने संगीत दिया है, जावेद अली - कैलाश खेर की आवाज में मिल कर गाया है : मौला मेरे मौला, मौला मौला मेरे मौला।
इस गीत में आस्थावान का विश्वास है की मौला सब जानता है। वह हमारे चेहरे पर लिखी अर्जियों को पढ़ लेगा। भक्त की गुहार सुनकर मुकद्दर की मरम्मत कर देगा। माथे पर पड़ी दरारें उससे छुपी नहीं है। वह बिन कहे ही पाट दी जायेगी : अर्जियां सारी मैं चेहरे पे लिख के लाया हूँ,। तुमसे क्या मांगू तुम ख़ुद ही समझ लो मौला।... दरारे-दरारे है माथे पे मौला, मरम्मत मुकद्दर की कर दो मौला।
तुलसी ने भी एक विनय पत्रिका भेजी थी राम के नम। उन्हें भरोसा था, एक वहीँ है जो बिना सेवा करवाए दीनो पर द्रवित होते है : 'ऐसो को उदार जहमाहीं।' प्रसून जोशी के इस 'नात' में एक सफर है - मुकद्दर की मरम्मत की अर्जियों से शुरू होकर मौला के दर पर पूर्ण समर्पण तक का। सभी संत और सूफी इसी शरणागति की यात्रा में मुसाफिर बनते है।
इन्सान पैदा होते ही अपने माथे पर जिंदगी में घटने वाली होनी-अनहोनी लिखवा के लाता है। उसे बदलवाना किसी के वश में नहीं। कबीर के शब्दों में चाहे जितना सर दुनो, वह तिल भर भी बदलने वाली नहीं : जाको जेता निर्मय, ताको तेता होए,/ रती घटे न तिल बढे, जो सिर कूटे कोए।
किस्मत की टूट-फुट को सही करके नया -नकोर बनाना सम्भव हो न हो, इतना जरुर निश्चित है की ईश्वर पर विश्वास करने वाले में सहने की शक्ति आ जाती है। वह उसकी रजा मानकर आशा की डोर थामे रहता है। उसके द्वार पर माथा टेकने जो भी पहुंचता है, वह निराश नहीं होता। चाहे वह टूट-टूट कर बिखरता हो, चाहे इबादत का शउर उसे न भी आता हो, सुर की गति न जानता हो - फ़िर भी वह मस्ती में झूमता नजर आता है। सारी तकलीफें भूल कर सजदे में झुका रहता है। प्रसून वाले उस नात में यह प्रसंग भी है। 'मौला' के नूर की बारिश में हर वो शख्स भींगा जिसने भी 'दर' पर सर झुकाया : जो भी तेरे दर आया झुकने को जो सर आया। / मस्तियाँ पीए, सब को झूमता नजर आया। नूर की बारिश में भींगता नजर आया।
हर समय फिजाओ में वह एक खुशबु सी महसूस करता है। अंत में जब वह मालिक के रूबरू होता है, उस तेज से नजरें मिलाना मुश्किल हो जाता है। लेकिन पल भर में वह नूर भक्त में समा जाता है। इसकी बारिश में तरबतर होकर व्यक्ति अपने भीतर की खुश्बू को पहचान लेता है। संत सहजो बाई इसी अमृत वर्षा की बूंदों को पीकर डगमग चाल चली थी: प्रेम दीवाने जो भये सहजो डगमग देह,/ पांव पड़े कितकै किती, हरी संभाल तब लेह।
बुल्लेशाह को बेसुधी के आलम में देख कर लोग उन्हें पागल कहते और वह हाँ- हाँ कहते जाते : बुल्ल्या तैनू पागल- पागल आखदे/ - तू आहो-आहो आख।
सब भ्रम ज्ञान की आंधी में उड़ गए। आंधी के बाद जो जल बरसा बस उसी में भीगते रहे। धरमदास का अमृत स्नान भी वैसा ही था : झरि लागै महलिया गगन घहराय, प्रेम आनंद होई साध न्हाय। देह से परे इन अनुभवों को संतो और सूफियों ने स्त्री-पुरूष के रिश्ते में भी शिद्दत से बखाना है। ईश्वरीय अनुभव को सिर्फ़ और सिर्फ़ नारी मन से पाया जा सकता है। इसलिए हरी मेरा पीव , मैं हरि की बहुरिया, या ' मेरा पिया घर आया' का उल्लास साधकों को परम आनंद तक पहुँचा देता है।

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ये दौलत भी ले लो , ये शोहरत भी ले लो भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन वो कागज़ की कश्ती , वो बारिश का पानी   स्वर्गीय श्री सुदर्शन फाकिर साहब की लिखी इस गजल ने बहुत प्रसिद्धि पाई,हर व्यक्ति चाहे वह गाता हो या न गाता हो, इस ग़ज़ल को उसने जरुर गुनगुनाया,मन ही मन इन पंक्तियों को कई बार दोहराया. जानते हैं क्यु?क्युकी यह ग़ज़ल जितनी सुंदर गई गई हैं,सुरों से सजाई गाई गई हैं,उससे भी अधिक सुंदर इसे लिखा गया हैं, इसके एक एक शब्द में हर दिल में बसने वाली न जाने कितनी ही बातो ,इच्छाओ को कहा गया हैं।   हम में से शायद ही कोई होगा जिसे यह ग़ज़ल पसंद नही आई इसकी पंक्तिया सुनकर उनके साथ गाने और फ़िर कही खो जाने का मन नही हुआ होगा,या वह बचपनs की यादो में खोया नही होगा। बचपन!मनुष्य जीवन की सर्वाधिक सुंदर,कालावधि.बचपन कितना निश्छल जैसे किसी सरिता का दर्पण जैसा साफ पानी,कितना निस्वार्थ जैसे वृक्षो,पुष्पों,और तारों का निस्वार्थ भाव समाया हो, बचपन इतना अधिक निष्पाप,कि इस निष्पापता की कोई तुलना कोई समानता कहने के लिए, मेरे पास शब्द ही नही हैं।

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