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अगस्त, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

इन्सान की जात से ही खुदाई का खेल है.

वाल्टेयर ने कहा है की यदि इश्वर का अस्तित्व नहीं है तो ये जरुरी है की उसे खोज लिया जाए। प्रश्न उठता है की उसे कहाँ खोजे? कैसे खोजे? कैसा है उसका स्वरुप? वह बोधगम्य है भी या नहीं? अनादिकाल से अनेकानेक प्रश्न मनुष्य के जेहन में कुलबुलाते रहे है और खोज के रूप में अपने-अपने ढंग से लोगो ने इश्वर को परिभाषित भी किया है। उसकी प्रतिमा भी बने है। इश्वर के अस्तित्व के विषय में परस्पर विरोधी विचारो की भी कमी नहीं है। विश्वास द्वारा जहाँ इश्वर को स्थापित किया गया है, वही तर्क द्वारा इश्वर के अस्तित्व को शिद्ध भी किया गया है और नाकारा भी गया है। इश्वर के विषय में सबकी ब्याख्याए अलग-अलग है। इसी से स्पस्ट हो जाता है की इश्वर के विषय में जो जो कुछ भी कहा गया है, वह एक व्यक्तिगत अनुभूति मात्र है, अथवा प्रभावी तर्क के कारन हुई मन की कंडिशनिंग। मानव मन की कंडिशनिंग के कारन ही इश्वर का स्वरुप निर्धारित हुआ है जो व्यक्ति सापेक्ष होने के साथ-साथ समाज और देश-काल सापेक्ष भी है। एक तर्क यह भी है की इश्वर एक अत्यन्त सूक्ष्म सत्ता है, अतः स्थूल इन्द्रियों से उसे अनुभव नहीं किया जा सकता है। एक तरफ हम इश्वर के अस

सच्ची प्यास जगाकर पाये इश्वर.

गीता में श्री कृष्ण ने कहाँ है : सर्वधर्मान परित्यज्य। अर्थात सभी धर्मो को छोरकर मेरी शरण में आ जाओ। केवल सरनागत हो जाओ। बस इतना ही काफी है। मैं तुम्हे तमाम पापो से मुक्त कर दूंगा। गोपिया तो नि:साधन हो गई थी। देखा जाए तो उन्होंने भगवन को प्राप्त करने के लिए कुछ किया ही नहीं था। गोपिया सिर्फ भगवान की शरण में चली गई थी। फ़िर जो कुछ किया भगवान ने ही किया। पूतना अर्थात अविद्या, मोह रूपी वृत्रासुर, दंभ रूपी बकासुर और पाप रूपी अधासुर को मारा तो भगवान ने ही मारा। रजोगुण और तमोगुण के प्रभाव का नाश किया तो भगवान ने ही किया। गोपिया भगवान की शरणागत है। पुर्न्मन और अनन्यभाव से। इसलिए तो मीरा कहती है : ना जानू मैं आरती वंदन, न पूजा की रीत,/सखी, मैं तो प्रेम दीवानी, मेरा दर्द न जाने कोई। कृष्ण ने 'सर्वधर्मान परित्यज्य' और शरण में आने का निर्देश क्यों दिया। क्योकि उन्हें मालूम है की लोगो की अधर्म के प्रति ज्यादा रूचि है।इसलिए यदि में ऐसा कहू की अधर्म को छोरकर मेरी शरण में आ जाओ तो अधर्म में रूचि होने से वे अधर्म को तो छोरेंगे नहीं, मेरी शरण में आयेंगे नहीं। अगर में कहूँ की सभी धर्म छोरकर मेरे

बेवकूफ मत समझना

महानगरीय जीवन में न जाने किन-किन चीजो से डर लगता है। यहाँ डर के भी कई प्रकार है। इनमे से एक है - बेवकूफ बन्ने का डर। हम हर समय इस बात को लेकर सचेत रहते है की कोई हमे बेवकूफ तो नहीं बना रहा। हम सब्जी लेने जाते है। सब्जी वाला जो रेट बताता है उसे सुनते ही पहला ख्याल यही आता है की कहीं यह बेवकूफ तो नहीं बना रहा। हम उसी क्षण मोलभाव प्र उतर आते है। रिक्शे पर बैठे नही की लगने लगता है - यह जरुर ठगेगा, ज्यादा किराया लेगा। बिजली मिस्त्री, प्लंबर या मिकैनिक से कोई भी काम करवाने के बाद भी यही अहसास होता रहता है। बेचारा मध्यमवर्ग! उसे हरदम लगता है की वह लुट रहा है। वह बेवकूफ बन्ने से बचने के लिए तरह-तरह की कवायदे करता रहता है। इसके लिए वह दुसरो को बेवकूफ कहने लगता है। एक आदमी कहता है - देखो हमने यह शर्ट खरीदी है फलां दुकान से दो सौ रुपया में। छूटते ही उसका मित्र कहता है - तुम बेवकूफ बन गए न। यह तो डेढ़ सौ से ज्यादा की नहीं है। एक रास्ता और भी है। इससे पहले की कोई आपको बेवकूफ समझे आप उस पर हावी हो जाइये। अपना ज्ञान इतना बधारिये की दूसरा डर जाए। वह आपको मुर्ख समझने की हिमाकत ही न करे। इसलिए महानगर

सबके प्रति साक्षी भावः रखे.

हमारे देश में बरे परिवारों की परम्परा बहुत पुराणी है। परिवार के सभी सदस्यों की रिश्तेदारिया हो जाती है। जैसे चार भाई है, तो उन चारो की ससुराल, बहन की ससुराल, ताऊ व चाचा की ससुराल, नाना का घर, बुआए मौसी का घर आदि। दूर-दूर तक फेली रिस्तेदारियो वाला परिवार समाज में मान-सम्मान की दृष्टी से भी देखा जाता रहा है। घर की किसी भी गमी या खुशी में इन सभी का इकट्ठा होकर परिवार के साथ होना उस परिवार के लिए एक बरी बात होती है। आम तौर पर हर व्यक्ति के मन में यह रहता है की हमारे शादी या गमी में ज्यादा से ज्यादा लोग आए। कई बार तो व्यक्ति परोस या रिश्तेदारी में किसी के मरने या जीने में कितने लोग शामिल हुए, उसको भी गिनने की कोशिश करता है और उसके आधार पर अनुमान लगाता है की मेरे यहाँ कितने लोग आयेंगे। रिश्तेदारों में नजदीकी के कारन व्यक्ति एक-दुसरे की प्रकृति और स्वाभाव को भी जानने लगता है और उनके सुख-दुःख में इतना जुरने लगता है की उसी का एक हिस्सा बन जाता है। ये बरी रिस्तेदारिया ही कई बार हमारे परचिन्तन का कारन होती है। एक तरह से देखे तो आम लोगो की जिंदगी में यही फेली हुई रिस्तेदारिया उनका संसार बन जाती ह

पुरुषार्थी अपने भाग्य का निर्माण स्वयं करते है.

हम्मे से बहुत से लोगो के मन में यह विचार कई बार आता होगा की भाग्य प्रबल है या पुरुषार्थ। हम बचपन से ही यह सुनते आ रहे है। कोई कभी कहता है की भाग्य ब्रा है, कभी प्रयास को महत्वपूर्ण बताता है। इसी उधेर्बुन में हम सब बरे होते चले आए है। किन्तु अभी तक इसका समाधान कहीं नहीं ढूढ़ पाए। कोई तो झुग्गी-झोपरी में जन्म लेता है और पुरा जीवन अभावग्रस्त रहता है। वह जीवन का हर पल रोग, भूख, शोक और अपमान की स्थिति में रह कर जीता है और नारकीय जीवन बिताता हुआ इस संसार से कुच कर जाता है। कोई किसी संपन्न घराने में जन्म लेता है, जहाँ सब सुख-सुविधाए, पदप्रतिष्ठा, मान- सम्मान् का बाहुल्य होता है। उसे कभी अनुभव भी नहीं होता होगा की अभाव क्या होता है, भूख और गरीबी क्या होती है। अक्सर आपने ऐसा भी देखा होगा की कोई तो जन्म से ही स्वस्थ, सबल और सुंदर होता है और कोई जन्म से ही कुरूप या विकलांग पैदा होता है। किसी को दीर्घायु प्राप्त होती है, तो कोई अकाल ही काल का ग्रास बन जाता है। कहीं पति संसार से पहले कुच कर जाता है तो कहीं पत्नी का पहले प्राणांत हो जाता है। ऐसा क्यों होता है? साधारनतया हम सब यही कहते है की इस सब क

उद्देश्य की विस्मृति और अंधेरो का जीवन

नदी का प्रवाह आगे बढ़ता है। कोई यह पूछे की उसके आगे बढ़ने का उद्देश्य क्या है? कोई उद्देश्य नहीं बताया जा सकता। जमीन ढालू है, इसलिए पानी को नीचे चले जाना है। यह जीवन का प्रवाह नदी के प्रवाह की भांति अनादिकाल से बहता आ रहा है, पूछा जाए की जीवन का उद्देश्य क्या है, तो कहना होगा की कुछ नहीं। जीवन का कोई उद्देश्य नहीं होता। जीवन नियति का एक बंधन है। उस बंधन को भोगना है। यदि जीवन का कोई उद्देश्य होता तो वनस्पति का भी होता, कीरे-मकोरो का भी होता, पशुओ का भी होता और मनुष्यों का भी होता। किन्तु किसी का कोई उद्देश्य नहीं है। उद्देश्य होता नहीं, उद्देश्य बनाया जाता है। उसका निर्माण किया जाता है। मनुष्य विवेकशील प्राणी है। उसने बुध्ही का विकास किया है। उसमे चिंतन है, मनन है, प्रज्ञा है, मेधा है और धारणा है। इसलिए वह अपने उद्देश्य का निर्धारण करता है। पूछा यह जाना चाहिए की जीवन का उद्देश्य क्या होना चाहिए! जीवन का कोई उद्देश्य नहीं है। लेकिन जीवन का कोई उद्देश्य होना चाहिए, क्योंकि हमें क्षमता मिली है, विवेक मिला है, इसलिए हम उद्देश्य का निर्माण कर सकते है। यदि आप सोचे की जीवन का उद्देश्य क्या हो

गणेश परम चेतना के प्रतिक है

गणेश दिव्यता की निराकार शक्ति है, जिनको भक्तो के लाभ के लिए एक शानदार रूप में प्रकट किया गया है। गन यानि समूह। ब्रह्माण्ड परमानुयो और विभीन उर्जाओ का एक समूह है। इन विभीन उर्जा समूह के ऊपर यदि कोई सर्वोपरि नियम न बन कर रहे तो यह ब्रह्माण्ड अस्त- व्यस्त हो जाएगा। पर्मानुओऔर उर्जा के इन सभी समूहों के अधिपति गणेश है। वोह परमतत्व चेतना है,जो सब में व्याप्त है और इस ब्रह्माण्ड में व्यवस्था लती है। आदि शंकर ने गणेश के सर तत्व का बार सुंदर वर्णन किया है। हालाँकि गणेश भगवन को हाथी के सर वाले रूप में पूजा जाता है, उनका यह स्वरुप हमे निराकार परब्रह्म रूप की और ले जाने के लिए है। वे अगम, निर्विकल्प, निराकार और एक ही है। अर्थात वे अजन्मे है, गुनातीत है और उस परम चेतना के प्रतिक है जो सर्वव्यापी है। गणेश वोही शक्ति है जिससे इस ब्रह्माण्ड का सृजन हुआ, जिससे सब कुछ प्रकट हुआ और जिसमे यह सब कुछ विलीन हो जाना है। हम सब इस कहानी से परिचित है की गणेश जी कैसे हाथी के सर वाले भगवान् बने। शिव और पारवती उत्सव मना रहे थे, जिसमे पारवती जी मैली हो गई। यह एहसास होने पर वे अपने श्रीर पर लगी मिट्टी को हटाकर

मोबाईल,कलाकार और रिंगिंग ध्वनी

फुनवा के दिन बीते रे भैया अब मोबाईल आयो रे ,गीत खुशियन का लायो रे .............ओ SओS ओS ओS ओ................ तो जे हैं आज के जुग की सबसे बड़ी ख़बर, कि गाँव गाँव और शहर शहर मा मोबाईल पहुँच गयो हैं ,पानी नही पहुँच पायो ,स्कूल नही आयो ,पहुंचे गयो हैं मोबाईल,ओ ओ काकी .....ओरी ताई जरा सुनियो .......का कहत हैं जे shankar ,का बतावत हैं?नई कहानी ...............न हैं कोई राजा न कोई रानी ,कुछ गीतों कि जुबानी ,कड़वी खट्टी बानी । तो सुनिए भाईसाहब,और दीदी जी यह हैं मोबाईल और उसकी रिंगिंग टोन कि कहानी........ पिछले कुछ साल से मोबाईल टेक्नोलोजी में क्रन्तिकारी परिवर्तन हुए हैं ,सुधारनाए हुई हैं,कहाँ तो लोग ऐस. टी. डी. के लिए पब्लिक बूथों पर लम्बी लम्बी लाइन लगाते थे और कहा अब घर घर में फ़ोन हो गया हैं,अजी! घर घर की कहानी क्या सुनानी?वही नाना वही नानी ,यहाँ तो हेर जेब में हर पर्स में फोन हैं यानि आज के युग का सर्वाधिक तीव्र गप्पे मारने का साधन हैं मोबाईल। रोज़ नए नए ढंग के मोबाईल बाज़ार में उतारे जा रहे हैं,गाने वाला मोबाईल,सुनने वाला मोबाईल,फोटो वाला मोबाईल,वीडियो वाला मोबाईल,कम पैसे वाला मोबाईल,ज्यादा

गुरु

शास्त्रों में गुरु की महिमा का अखंड वर्णन किया गया हैं,उसे ब्रम्हा विष्णु महेश्वर कहा गया हैं,ब्रम्हा इसलिए क्युकी वह सृजनकर्ता होता हैं एक मानव को ,शिष्य को घ्यान,संस्कार,व् गुणों से सुसज्जित कर वह उसे सच्चे अर्थ में मनुष्य बनाता हैं.विष्णु जो पालन करता हैं,प्राचीनकाल में गुरु ग्रह में विद्यार्थी गुरु की सेवा करते थे और उन्हें शिक्षा दे उनका पालन पोषण भी गुरु ही करता था,महेश्वर!जो सृजन के साथ विलय भी करता हैं,गुरु महेश्वर इसलिए क्युकी शिष्य के दुर्गुणों का संहार करता था,अपनी वाणी,उपदेश द्वारा विद्यार्थी के दुर्गुणों उसकी कमियों को प्रेम सेक्वाचित क्रोध से दूर करता था.समय बदला,गुरु बदले शिक्षा पध्धति बदली,हम गुरु पौर्णिमा की जगह टीचर्स डे को ज्यादा धूमधाम से मानाने लगे,परन्तु गुरु की महिमा कम नही हुई,आज भी गुरु ब्रह्मा,विष्णु,महेश हैं. प्रश्न हैं की हमारा गुरु कौन?वह जिसने हमें बचपन से हसना, बोलना चलना उठना बैठना खाना पढ़ना सिखलाया?यानि हमारी माँ.या वह जिसने हमें जीवन का अर्थ समझाया,आदर्शो व् संस्कारो से हमे परिपूरण किया?हमारे पिता.या वह जिन्होंने हमें स्कूल में विभिन्न विषयों का घ्यान

वो कागज़ की कश्ती

ये दौलत भी ले लो , ये शोहरत भी ले लो भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन वो कागज़ की कश्ती , वो बारिश का पानी   स्वर्गीय श्री सुदर्शन फाकिर साहब की लिखी इस गजल ने बहुत प्रसिद्धि पाई,हर व्यक्ति चाहे वह गाता हो या न गाता हो, इस ग़ज़ल को उसने जरुर गुनगुनाया,मन ही मन इन पंक्तियों को कई बार दोहराया. जानते हैं क्यु?क्युकी यह ग़ज़ल जितनी सुंदर गई गई हैं,सुरों से सजाई गाई गई हैं,उससे भी अधिक सुंदर इसे लिखा गया हैं, इसके एक एक शब्द में हर दिल में बसने वाली न जाने कितनी ही बातो ,इच्छाओ को कहा गया हैं।   हम में से शायद ही कोई होगा जिसे यह ग़ज़ल पसंद नही आई इसकी पंक्तिया सुनकर उनके साथ गाने और फ़िर कही खो जाने का मन नही हुआ होगा,या वह बचपनs की यादो में खोया नही होगा। बचपन!मनुष्य जीवन की सर्वाधिक सुंदर,कालावधि.बचपन कितना निश्छल जैसे किसी सरिता का दर्पण जैसा साफ पानी,कितना निस्वार्थ जैसे वृक्षो,पुष्पों,और तारों का निस्वार्थ भाव समाया हो, बचपन इतना अधिक निष्पाप,कि इस निष्पापता की कोई तुलना कोई समानता कहने के लिए, मेरे पास शब्द ही नही हैं।