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नवंबर, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

असफलता ही सफलता की कुंजी

कूर्म पुराण की एक कथा के अनुसार मध्य भारत के किसी प्रांत के एक राजा ने इस बार पूरी तैयारी से शत्रु सेना पर हमला किया। घमासान युद्ध हुआ। राजा और उसके सैनिक बहुत ही वीरता से लड़े, किंतु सातवीं बार भी हार गए। राजा को अपने प्राणों के लाले पड़ गए। वह अपनी जान बचाकर भागा। भागते-भागते घने जंगल में पहुंच गया और एक स्थान पर बैठकर सोचने लगा कि सात बार हार चुकने के बाद अब तो शत्रु से अपना राज्य फिर से प्राप्त करने की कोई आशा ही नहीं रह गई है। अब मैं इसी जंगल में रहकर एकांत जीवन बिताऊंगा। जीवन में अब क्या शेष रह गया है। इन्हीं निराशाजनक विचारों में खोया राजा थकान के मारे सो गया। जब काफी देर बाद उसकी नींद खुली, तो सामने देखा कि उसकी तलवार पर एक मकड़ी जालाबना रही है। वह ध्यान से यह दृश्य देखने लगा। मकड़ी बार-बार गिरती और फिर से जाला बनाती हुई तलवार पर चढऩे लगती है। इस तरह वह दस बार गिरी और दसों बार पुन: जाल बनाने में जुट गई। तभी वहां एक संत आए और राजा की निराशा जानकर बोले देखों राजन। मकड़ी जैसा छोटा सा जीव भी बार-बार हारकर निराश नहीं होता। युद्ध हारने को हार नहीं कहते बल्कि हिम्मत हारने को हार कहते

जो जिम्मेदारी मिले उसे निभाओ, सवाल मत करो....

अधिकतर लोगों के साथ यह समस्या है कि उन्हें कोई भी जिम्मेदारी दी जाए, वे कुछ न कुछ शिकायत करते ही रहते हैं। जीवन में अध्यात्म हो या व्यवसाय हर जगह तप जरूरी है। जब तक हम अपनी जिम्मेदारियों को नहीं निभाते, सफलता कभी नहीं मिल सकती। अध्यात्म में भी सफलता का यही एक मार्ग है। प्रकृति या यूं कहें परमात्मा ने आपको जो काम दिया है उसे इमानदारी से बिना किसी शिकायत के पूरा करते चलें, आपको भगवान खुद ब खुद मिल जाएगा। यह कथा कर्तव्य और परमात्मा के संबंध को बताती है। बहुत पुरानी बात है, एक राज्य में जोरदार बारिश के कारण नदी में बाढ़ आ गई। सारा नगर बाढ़ की चपेट में आ गया। लोग जान बचाकर ऊंचे स्थानों की ओर भागे। बहुत से लोगों की जान गई। राज्य का राजा परेशान हो उठा। एक पहाड़ी से उसने नगर का नजारा देखा। सारा नगर पानी में डूब चुका था। राजा ने अपने मंत्रियों से बचाव कार्य पर चर्चा की। पंडितों को बुलाया गया। किसी भी तरह से बाढ़ का पानी नगर से निकाला जाए, बस सबको यही चिंता थी। राजा ने सिद्ध संतों से पूछा क्या कोई ऐसी विधि है जो नदी को उल्टा बहा सके, जिससे बाढ़ का पानी निकल जाए। पंडितों ने कहा ऐसी कोई विधि नहीं

जिंदगी पर सबसे भारी पड़ता है झूठ

आज के व्यवसायिक दौर में झूठ बोलना और झूठ के जरिए अपना काम निकालना आम हो गया है। लोग दिन में कई बार जाने-अनजाने झूठ बोलते रहते हैं लेकिन उन्हें उससे होने वाले नुकसान का अंदाजा नहीं होता। कई बार एक झूठ आपकी जिंदगी की सबसे बड़ी भूल बन जाता है। कई बार झूठ आपको पूरी तरह खत्म कर देता है। जीवन में जहां तक संभव हो, झूठ का प्रयोग न करें। अगर झूठ बोलना भी पड़े तो भी इससे बचने का प्रयास करें। महाभारत के अभिन्न पात्र दानवीर कर्ण ने जीवन में केवल एक बार ही झूठ बोला और यही झूठ उनके जीवन पर सबसे ज्यादा भारी पड़ा। कर्ण ने अस्त्र विद्या भगवान परशुराम से सीखी थी, भगवान परशुराम का प्रण केवल ब्राह्मणों को ही शस्त्र विद्या सिखाने का था। कर्ण ब्राह्मण नहीं थे, लेकिन उन्होंने परशुराम से झूठ बोल दिया कि वो ब्राह्मण है। कर्ण की बात को सच मानकर परशुराम ने उन्हें शस्त्र की शिक्षा दे दी। एक दिन जंगल में कहीं जाते हुए परशुरामजी को थकान महसूस हुई, उन्होंने कर्ण से कहा कि वे थोड़ी देर सोना चाहते हैं। कर्ण ने उनका सिर अपनी गोद में रख लिया। परशुराम गहरी नींद में सो गए। तभी कहीं से एक कीड़ा आया और उसने कर्ण की जांघ पर

शब्दों की जरूरत न पड़े, रिश्ते ऐसे हों

आजकल पति-पत्नी के रिश्तों में तनाव बढ़ गया है। लंबे समय तक बातें नहीं होती। एक-दूसरे की आवश्यकताओं को समझते नहीं, भावनाओं को पहचानते नहीं। रिश्ते ऐसे हों कि उनमें शब्दों की आवश्यकता ही न पड़े, बिना कहे-बिना बताए आप समझ जाएं कि आपके साथी के मन में क्या चल रहा है। ऐसी समझ प्रेम से पनपती है। यह रिश्ते का सबसे सुंदर हिस्सा होता है कि आप सामने वाले की बात बिना बताए ही समझ जाएं। दाम्पत्य के लिए राम-सीता का रिश्ता सबसे अच्छा उदाहरण है। इस रिश्ते में विश्वास और प्रेम इतना ज्यादा है कि यहां भावनाओं आदान-प्रदान के लिए शब्दों की आवश्यकता नहीं पड़ती है। एक प्रसंग है वनवास के समय जब राम-सीता और लक्ष्मण चित्रकूट के लिए जा रहे थे। रास्ते में गंगा नदी पड़ती है। गंगा को पार करने के लिए राम ने केवट की सहायता ली। केवट ने तीनों को नाव से गंगा नदी के पार पहुंचाया। केवट को मेहनताना देना था। राम के पास देने के लिए कुछ भी नहीं था। वे केवट को देने के लिए नजरों ही नजरों में कुछ खोजने लगे। सीता ने राम के हावभाव से ही उनके मन की बात जान ली। वे बिना कहे ही समझ गई कि राम केवट को देने के लिए कोई भेंट के लायक वस्तु ख

छोटी सी बात भी बदल देती है जीवन की दिशा

हम कई बार अनजाने में ही कोई भी बात मुंह से निकाल देते हैं। बिना सोचे-समझें बोली गई कई बातें हमारा जीवन बदल देती हैं। कई बार थोड़ा सा गुस्सा या अनजाने में किया गया मजाक भी भारी पड़ सकता है। इसी कारण से विद्वानों ने कहा है कि हमेशा तौलों फिर बोलो। कई बार जरा सी बातें भी इतना तूल पकड़ती है कि उसका परिणाम आपकी जिंदगी की दिशा बदल देता है। श्रीमद् भागवत पुराण में एक कथा इसी बात की ओर संकेत करती है। वृषपर्वा दैत्यों के राजा थे, उनके गुरु थे शुक्राचार्य। वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा और शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी दोनों सखी थीं लेकिन शर्मिष्ठा को राजा की पुत्री होने का अभिमान भी बहुत था। दोनों साथ-साथ रहती थीं, घूमती, खेलती थीं। एक दिन शर्मिष्ठा और देवयानी नदी में नहा रही थीं, तभी देवयानी ने नदी से निकलकर कपड़े पहने, उसने गलती से शर्मिष्ठा के कपड़े पहन लिए। शर्मिष्ठा से यह देखा न गया और उसने अपनी दूसरी सहेलियों से कहा कि देखो, इस देवयानी की औकात, राजकुमारी के कपड़े पहनने की कोशिश कर रही है। इसका पिता दासों की तरह मेरे पिता के गुणगान किया करता है और यह मेरे कपड़ों पर अधिकार जमा रही है। देवयानी

रामायण क्या-क्या सिखाती है?

रामायण पौराणिक ग्रंथों में सबसे ज्यादा पढ़ी जाने वाली किताब है। रामायण को केवल एक कथा के रूप में देखना गलत है, यह केवल किसी अवतार या कालखंड की कथा नहीं है, बल्कि यह जीवन जीने का रास्ता बताने वाली सबसे महत्वपूर्ण पुस्तक है। रामायण में सारे रिश्तों पर लिखा गया है, हर रिश्ते की आदर्श स्थितियां, किस परिस्थिति में कैसा व्यवहार करें, विपरित परिस्थिति में कैसे व्यवहार करेंं, ऐसी सारी बातें हैं। जो आज हम अपने जीवन में अपनाकर उसे बेहतर बना सकते हैं। - दशरथ ने अपनी दाढ़ी में सफेद बाल देखकर तत्काल राम को युवराज घोषितकर उन्हें राजा बनाने की घोषणा भी कर दी। हम जीवन में अपनी परिस्थिति, क्षमता और भविष्य को देखकर निर्णय लें। कई लोग अपने पद से इतने मोह में रहते हैं कि क्षमता न होने पर भी उसे छोडऩा नहीं चाहते। - राजा बनने जा रहे राम ने वनवास भी सहर्ष स्वीकार किया। जीवन में जो भी मिले उसे नियति का निर्णय मानकर स्वीकार कर लें। विपरित परिस्थितियों के परे उनमें अपने विकास की संभावनाएं भी तलाशें। परिस्थितियों से घबराएं नहीं। - सीता और लक्ष्मण राम के साथ वनवास में भी रहे, जबकि उनका जाना जरूरी नहीं था। ये हमें

लोगों का काम है कहना...

पुरानी फिल्म का एक गीत है, कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना...। यह गीत हमारे जीवन के साथ भी जुड़ा हुआ है। हम जब भी कुछ काम करते हैं, आसपास के लोग तरह-तरह की बात करते हैं। कुछ लोग हमारे काम की तारिफ करते हैं, तो कुछ बुराई। हमेशा ऐसा ही होता है क्योंकि लोगों का काम है कहना। पुराने समय की बात है। एक पिता अपने पुत्र के साथ गांव में रहते थे। वे एक दिन शहर से गधा खरीदकर अपने घर लौट रहे थे, रास्ता लंबा था। वे तीनों पिता-पुत्र और वह गधा पैदल ही आ रहे थे। तभी किसी ने कहा कि गधा लेकर आए हो तो पैदल क्यों चल रहे हो? गधे पर बैठकर जाओं। पिता-पुत्र को यह बात ठीक लगी। वे दोनों गधे पर बैठ गए। कुछ दूर चलने के बाद फिर किसी राहगीर ने कहा कि कितने निर्दयी पिता-पुत्र हैं, बेचारे गधे पर दोनों बैठ गए। यह सुनकर पिता ने पुत्र को गधे पर बैठा दिया और खुद पैदल चलने लगा। फिर कुछ दूर चलने के बाद किसी ने कहा कि कैसा पुत्र है? पिता तो पैदल चल रहा है और खुद गधे पर आराम से बैठा है। यह सुनकर पुत्र उतर गया और पिता को गधे पर बैठा दिया, पुत्र पैदल चलने लगा। फिर कुछ दूर चलने के बाद किसी व्यक्ति ने कहा कि कैसा बाप है ख

मांगने से नहीं, देने से बढ़ता है प्रेम

प्रेम... प्यार... इश्क... लव... मोहब्बत... प्रीत... चाहत... दिल्लगी... रुहानियत... एक अहसास है जिसे शब्दों में व्यक्त कर पाना अत्यंत दुष्कर है। प्रेम को सिर्फ महसूस किया जा सकता है। यह सिर्फ भावनाओं का अटूट संबंध है। बहुत से लोगों का प्रश्न होता है कि प्रेम क्या है? प्रेम होता कैसे है? और जब होता है तो क्या होता है? प्रेम की महानता के ऐसे असंख्य किस्से, उदाहरण है जिन्हें हम कहीं ना कहीं अक्सर सुनते-पढ़ते और कहते रहते हैं। प्रेमियों के लिए आदर्श प्रेम है राधा-कृष्ण का प्रेम। श्रीकृष्ण का संपूर्ण जीवन प्रेम ही सिखाता है। श्रीकृष्ण और राधा का प्रेम सभी को ज्ञात है। उनकी शादी ना हो सकी पर आज भी पूजा राधा-कृष्ण की होती है। इसी बात से यह सिद्ध होता है कि प्रेम ही पूजनीय है। प्रेम का हमारे धर्म में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। तो प्रेम एक ऐसा अहसास है जो प्रेमियों के हृदय, जीवन में खुशियों को संचार कर देता है। प्रेम में डुबे प्रेमी दुनिया की बुराइयों से परे अपनी ही दुनिया में खुशियों और आनंद के रस में डुबे रहते हैं। प्रेम में पड़कर व्यक्ति का मन सभी बुराइयों से दूर जाता है। प्रेम बुरे से बुरे

दुख अपने और पराए की पहचान कराता है

दुख कहां से आता है? यह कोई नहीं बता सकता, क्योंकि दुख आने के असंख्य कारण है। दुख..., दर्द..., परेशानियां..., समस्याएं..., प्रॉब्लम्स इन शब्दों से आज कोई अछूता नहीं है। यह भी सच्चाई है कि सुख को जाने से रोका नहीं जा सकता और दुख को आने से। हर धर्म में सुख-दुख जीवन का मूल आधार बताए गए हैं। ये एक ही सिक्के के दो पहलु हैं। सुख-दुख के संबंध में गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है 'धीरज, धर्म, मित्र, अरु नारी, आपतकाल परखिए चारी।' यानी संकट के समय ही धीरज, धर्म, मित्र और नारी की परीक्षा होती है। सुख में तो सभी साथ देते हैं। सच्चा मित्र वही है जो अपने मित्र के दुख को देखकर दुखी होता है तथा उसके दुख दूर करने का हर तरह से प्रयास करता है। उसे हर तरह का सहयोग करता है। उसके अवगुणों को छिपाकर गुणों का बखान करता है। कवि दुष्यंत कुमार ने एक कविता में कहा है- दुख को बहुत सहेज कर रखना पडा हमें, सुख तो किसी कपूर की टिकिया सा उड़ गया। अर्थात् सुख कपूर की तरह है जो आग लगते ही तेजी से भभक कर जल उठता है और फिर बुझ जाता है। हालांकि उसकी स्मृति लंबे समय तक बनी रहती है। देखा जाए तो दुख ही हमारे जीवन का सर्वश्रे

विवेकानंद ने समझाया जाति व कर्म का भेद

एक बार स्वामी विवेकानंद अपने परिचितों के मध्य बैठे वार्तालाप कर रहे थे कि उनका एक शिष्य आया और उन्हें प्रमाण निवेदन कर एक कोने में बैठ गया। स्वामीजी ने स्नेह से उसे अपने पास बैठने के लिए कहा, तो वह सकुचाते हुए उठा और उनके समक्ष जाकर खड़ा हो गया। उपस्थित सभी लोगों ने सोचा कि स्वामीजी का यह शिष्य विनम्रतावश ऐसा कर रहा है। स्वामीजी ने खड़े होकर उसका हाथ पकड़ा और अपने पास बैठा लिया। फिर उसके आने का प्रयोजन पूछा। वह बोला- गुरुवर, मेरी हार्दिक इच्छा है कि आप मेरे घर भोजन करें। क्या आपको मेरा निमंत्रण स्वीकार है। स्वामीजी ने सहर्ष कहा- क्यों नहीं, मैं तुम्हारे घर कल अवश्य आऊंगा और भोजन भी गृहण करूंगा। अगले दिन स्वामीजी तय समय पर उस शिष्य के घर पहुंचे और भोजना करना शुरु किया। कुछ करीबी लोग भी उनके साथ थे जिन्हें तब तक यह ज्ञात हो चुका था कि स्वामीजी का वह शिष्य एक निचली जाति से है। वे सभी स्वामीजी को रोकते हुए कहने लगे- आप कुलीन होकर इसके यहां भोजन कर स्वयं को अपवित्र क्यों कर रहे हैं? तब स्वामीजी ने उनसे कहा- भोजन तो जाति से नहीं, अन्न से बना है और आपके व हमारे घरों में बनने वाले भोजन जितना ह

दोनों का रिश्ता बड़ा खास है...

कर्मवादी लोग कहते हैं भाग्य कुछ नहीं होता, भाग्यवादी लोग कहते हैं किस्मत में लिखा ही होता है, कर्म कुछ भी करते रहो। भाग्यवादी और कर्मवादी लोगों की यह बहस कभी खत्म नहीं हो सकती। लेकिन यह भी सत्य है कि भाग्य और कर्म दोनों के बीच एक रिश्ता जरूर है। कर्म से भाग्य बनता है या भाग्य से कर्म करते हैं लेकिन दोनों के बीच कोई खास रिश्ता जरूर होता है। भाग्य और कर्म के बीच के इस रिश्ते को समझने के लिए यह कथा बहुत ही अच्छा उदाहरण हो सकती है। कहते हैं एक बार ऋषि नारद भगवान विष्णु के पास गए। उन्होंने शिकायती लहजे में भगवान से कहा पृथ्वी पर अब आपका प्रभाव कम हो रहा है। धर्म पर चलने वालों को कोई अच्छा फल नहीं मिल रहा, जो पाप कर रहे हैं उनका भला हो रहा है। भगवान ने कहा नहीं, ऐसा नहीं है, जो भी हो रहा है, सब नियती के मुताबिक ही हो रहा है। नारद नहीं माने। उन्होंने कहा मैं तो देखकर आ रहा हूं, पापियों को अच्छा फल मिल रहा है और भला करने वाले, धर्म के रास्ते पर चलने वाले लोगों को बुरा फल मिल रहा है। भगवान ने कहा कोई ऐसी घटना बताओ। नारद ने कहा अभी मैं एक जंगल से आ रहा हूं, वहां एक गाय दलदल में फंसी हुई थी। कोई

न जन्‍म है, न मृत्‍यु !

हम कब से हैं ? जन्‍म लेने के बाद से? या फिर नामकरण के बाद से? उसके पूर्व नहीं थे ? या मृत्‍यु के बाद नहीं रहेंगे ? कह सकते हैं अस्तित्‍व का होना जीवन है और उस ‘होने’ का न रह जाना मृत्‍यु। दोनों का आधार जन्‍म है। तो फिर वही पुराना सवाल- पहले अंडा हुआ या मुर्गी ? ‍पहले जन्‍म हुआ या मृत्‍यु ? जन्‍म हुआ तो मृत्‍यु भी होगी ही। दोनों क्‍या एक ही सिक्‍के के दो पहलू नहीं हैं ? तो फिर वह सिक्‍का क्‍या है ? जन्‍म पर थाली क्‍यों बजाना और मृत्‍यु पर मातम क्‍यों मनाना ? हम विचार करें तो पाते हैं कि जन्‍म -मृत्‍यु की चर्खी अनवरत चलती रहती है। आ रहे और अपना पार्ट अदा कर जा रहे हैं। शरीर और मन में भी श्‍ह खेल चलता रहता है। हजारों लाखों कोशिकायें प्रति पल जन्‍मती-मरती रहती हैं। कितने ही भाव-विचार और संकंल्‍प-विकल्‍प आते जाते रहते हैं। हर सांस में आयु घट रही है, शरीर जर्जर हो रहा है । मर रहा है। एक क्षण भी स्थिर नहीं है। जवान होने पर लडकपन मर जाता है और बूढे होने पर जवानी भी मर जाती है। इसे रोक-टाल पाना किसी वश में नहीं है। सब कुछ मरणशील- मरणधर्मा है। हम सब जानते हैं किएक दिन हम भी मरेंगे।सब बिछड जाएंगे

जातिगत राजनीति को राजग का तमाचा

बिहार में आए ऐतिहासिक जनादेश ने साबित कर दिया है कि अरसे तक हिंसा, अराजकता और परिवारवाद की अजगरी कुंडली में जकड़ा बिहार अब करवट ले रहा है। सकारात्मक सोच और रचनात्मक वातावरण का निर्माण करते हुए आम लोगों में विकास की भूख जगी है। नतीजतन नीतीश भाजपा गठबंधन के साथ दोबारा सत्ता में लौटे।  काग्रेस, बसपा, लोजपा और वामपंथी दलों की बात तो छोड़िए, बिहार की बड़ी राजनीतिक ताकत रहे लालू प्रसाद यादव अपनी पत्नी और बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी समेत पूरे कुनबे को डूबो बैठे। बिहार के परिणाम देश के राष्ट्रीय क्षितिज और क्षेत्रीय दलों के लिए एक ऐसा संदेश है कि मतदाता अब जातिवाद, वंशवाद को नकारने के साथ अहंकारियों से भी मुंह मोड़ रहे हैं। देश में बढ़ती विषमता के साथ-साथ हिंसा बढ़ रही है, इस संदर्भ में बिहार में नीतीश कुमार का कुशल राजनीतिक नेतृत्व एक सबक है। बिहार की यह विजयश्री राजनीतिक स्थिरता के लिए भी मेंडेट है, जिससे विकास की गति आगामी पांच साल अवरुद्ध न हो। काग्रेस को अपेक्षित सफलता नहीं मिली, इससे जाहिर होता है कि राहुल गांधी का जादू बिहार में नहीं चला। मतदाता वंशवाद के सम्मोहन से तो मुक्त हो ही

अब नये अवतार में बिहार

भले ही मैजिक फिगर लगे 206, लेकिन यह मैजिक नहीं बल्कि नीतीश कुमार पर सूबे की 'जनता का विश्वास' है। वास्तव में यह है जाति का बंधन तोड़ विकसित होते बिहार की 'अंगड़ाई का नया अंदाज'। यह है नकारात्मक राजनीति करने वालों, बातें बनाने वालों और भोली-भाली अवाम को झूठे आश्वासनों से छलने वालों को एक खास संदेश कि अब बदल गया है बिहार और इसके साथ ही बदल गयी हैं इस राज्य की प्राथमिकताएं। राजनीति के कई आयाम देख चुके इस बिहार को यह नई इबारत सिखाई है नीतीश कुमार ने और सीखते बिहार ने फिर से विश्वास जता दिया है अपने आगुवाकार पर। पिछले पांच साल चली बिहार के नवनिर्माण की प्रक्रिया का निष्कर्ष यह निकला कि 1952 से अब तक हुए 13 विधानसभा चुनावों का सारा रिकार्ड ही ध्वस्त हो गया। विधानसभा चुनाव में कुल 243 में से 206 सीटें एनडीए की झोली में गिर गयीं। भाजपा ने 102 सीटों पर उम्मीदवार उतारे जिसमें 91 सदन में बैठेंगे जबकि जदयू के 141 में से 115 सदन का मुंह देखेंगे। अब सूरत यह कि विधानसभा में नेता विपक्ष नाम की चीज ही नहीं बची क्योंकि उसके लिए कम से कम दस फीसदी सीटें जरूरी हैं। जबकि नंबर दो पर रहा राजद 22

जनादेश पर खरा उतरने की चुनौती

बिहार विधानसभा चुनाव नतीजों में जनता ने जद [यू]-भाजपा गठजोड़ को भारी बहुमत देकर यही संकेत दिया कि पारंपरिक धारणाओं के विपरीत वह जातिवाद से ऊपर उठकर फैसला करने में सक्षम है। मीडिया सर्वेक्षणों ने लगभग आम राय से संकेत दिया था कि नीतीश कुमार फिर सत्ता में लौटने जा रहे हैं। जमीनी स्तर पर भी माहौल यही था, लेकिन यह कल्पना खुद नीतीश और भाजपा को भी नहीं थी उन्हें प्रचंड जनादेश मिलेगा। बिहार की जनता ने नकारात्मक मुद्दे दरकिनार कर दिए और विकास के हक में वोट डाला। इससे विकास की मौजूदा प्रक्रिया को जारी रखने के लिए ठप्पा लगा। जद [यू]-भाजपा गठबंधन ने पिछली बार बेहद विषम हालात में सत्ता की बागडोर संभाली थी, लेकिन नीतीश कुमार प्रचार और श्रेय की फिक्र किए बिना चुपचाप भ्रष्टाचार और बदइंतजामी का मलबा हटाने में लगे रहे। यह ऐसा राच्य था जहा सत्ता के ज्यादातर स्तंभों पर जंग लग चुका था जहा धनबल, बाहुबल और राजनैतिक दबाव के बिना पत्थर भी नहीं हिलता था। राजनीति तथा अपराध के बीच की विभाजन रेखा लगभग अदृश्य थी। ऐसे में पहली बार सत्ता संभालने वाले मुख्यमंत्री के हौसले भले ही कितने भी बुलंद हो, उनके लिए धारा के विप

नए बिहार का उदय

इस बात को प्रमाणित करने की कोई आवश्यकता नहीं कि बिहार विधानसभा चुनाव शत-प्रतिशत निष्पक्ष एवं शातिपूर्ण रहा है। जाहिर है नीतीश कुमार व राष्ट्रीय जनतात्रिक गठबंधन के समर्थन में जो एकपक्षीय चुनाव परिणाम आया है, उसे जन भावनाओ की स्वाभाविक अभिव्यक्ति मानने के अलावा कोई चारा नहीं है। चुनावी हिंसा न होना एवं मतदाताओं की लंबी कतारें वास्तव में प्रदेश की बदली सामूहिक चेतना को प्रतिबिंबित करने वाली थीं। महिलाओं की लंबी कतारें एक नई सामाजिक परिवर्तन की कहानी बता रही थीं। ऐसा लगता नहीं था कि उन्हें निर्देशित और नियंत्रित करने वाले कारक कहीं उपस्थित भी हैं। यह स्थिति पहले चरण से लेकर आखिर तक बनी रही। चौथा और छठा चरण, जिसमें माओवादी आतंक का खतरा सामने था, उसमें भी यही प्रवृत्ति जारी रही। बिहार के आम मतदाताओं की यह सामूहिक तस्वीर आने वाले परिणामों का आभास दे रही थी। पूरा प्रदेश उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम एक ही लहर में सराबोर था। एक्जिट पोल सर्वेक्षणों में केवल इस यथार्थ को ही अभिव्यक्ति मिली। चुनाव अभियान के दौरान साफ दिखा कि आम जनता की आवाज मुखर थी। एक संप्रदाय को छोडकर सभी सामाजिक समूहों में

'विकास पुरुष' नीतीश का सियासी सफरनामा...

जनता की उम्मीदों को सही ठहराते हुए नीतीश कुमार बिहार के बिग बॉस साबित हुए. पेश है नीतीश कुमार के सियासी सफर पर की एक झलक... नाम: नीतीश कुमार वर्तमान पद: बिहार के 31वें मुख्यमंत्री भविष्य का पद: बिहार के 32वें मुख्यमंत्री खासियत: लगातार दूसरी बार मुख्यमंत्री बनना तय यह बेहद छोटा-सा, लेकिन बड़ा ही सटीक परिचय है नीतीश कुमार का. कहता तो कमोबेश हर कोई यही था कि बिहार में पिछले पांच सालों का नीतीश का सुशासन उन्हें इस बार भी मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाएगा, लेकिन 2010 विधानसभा चुनावों में इतनी शानदार सफलता मिलेगी, यह शायद ही किसी ने सोचा था. चेहरे पर हर वक्त मुस्कान, चाल में गजब का आत्मविश्वास और जुबां से हमेशा सधी हुई बात-यही तो खासियत है बिहार के फिर से बिग बॉस बन चुके नीतीश कुमार की. आखिर लालू प्रसाद को लगातार दो बार पटखनी देना किसी बच्चे का खेल नहीं है. 1 मार्च 1951 ही वो तारीख थी, जब स्वतंत्रता सेनानी कविराज रामलखन सिंह और परमेश्वरी देवी के घर नीतीश का जन्म हुआ था. उनका जन्‍म पटना जिले के हकीकतपुर गांव(बख्तियारपुर) में हुआ था. उम्र बढती गई और झुकाव राजनीति की ओर खुद ब खुद बढ़ता चला गय

उम्‍मीदों से लबरेज आज का बिहार...

ीसरे चरण के चुनाव के साथ बिहार की जो तस्वीर उभरती दिख रही है, उससे इतना तो साफ है कि राज्य में आखिरकार विकास के बारे में एक सोच उभर रही है. एक औसत बिहारी को अब लगने लगा है कि विकास एक ऐसी बुनियादी जरूरत है, जिसके बिना 2005 तक उसकी जिंदगी किसी गर्द के गुबार से ज्यादा नहीं थी. एक ऐसा गुबार, जिसे गढ़ने में उसकी कोई भूमिका नहीं थी. लेकिन जबरन, राज्य के तब के प्रशासकों ने उसके ऊपर यह लाद दिया था. पिछले 5 सालों में राज्य ने एक ऐसा दौर देखा, जिसे 1979 के बाद से शायद ही किसी बिहारी ने देखा था. 1979 में जनता पार्टी की सरकार के साथ कर्पूरी ठाकुर ने सत्ता सम्भाली. उसके बाद से राज्य ने पतन का वो आलम देखा, जिसने पूरे देश में अज्ञानता, फूहड़पन, उज्जडता और भ्रष्टाचार को बिहार की बुनियाद बना दिया. दिल्ली में अगर कोई शख्‍स कुछ बुनियादी गलती करता दिखता, तो लोग कहते थे–“बिहारी है क्या”. शायद ही बिहार में जन्मा कोई ऐसा शख्‍स होगा, जिसने दिल्ली और उसके आसपास के क्षेत्र में ये फिकरा नहीं सुना होगा. जब भी कोई ऐसा कहे, तो खून का घूंट पीकर मासूम चेहरा नहीं बनाया होगा. इस तौहीन के बावजूद, बिहार की सीमा पार करते

अब चूके तो सब हारे!

एक बड़े बदलाव के मुहाने पर खड़ा बिहार, आज अपने गर्भ में कई सवालों के साथ राज्य के लोगों से नजरें मिलाने के लिए तैयार है. पूछता है बिहार अपने राज्य के निवासियों से- अगली सरकार चुन तो रहे हो, जानते हो क्या चाहते हो? जानते हो भविष्य को निर्धारित करने की जिम्मेदारी किन कंधों पर डाल रहे हो? क्या तुम्हारा चुनाव सही है? ठोक बजाकर देख लिया क्या? लॉक तो कर दिया है, अफसोस तो नहीं करोगे? इतना ही नहीं, बिहार आज ये भी जानना चाहता है कि अगर इन सभी सवालों और इनसे जुड़े तमाम पहलूओं की जानकारी है, तो क्या, आम बिहारी तैयार है? तैयार है अपने आप में एक ऐसा बदलाव करने के लिए जो उसकी मानसिकता, सोच, चाल-ढाल, आचरण, सामाजिक परिवेश, आर्थिक स्थिति और उससे भी ऊपर ‘बिहारी स्टेट ऑफ मांइड’ को हमेशा के लिए बदलने के लिए मजबूर करे? अगर नहीं, तो फिर विकास और सामाजिक उत्थान के सपने देखना हर बिहारी बंद कर दे. 20 तारीख को मतदान के आखिरी चरण के साथ ही लोगों ने अपने पांच साल के भविष्य को ईवीएम में बंद कर दिया. नेताओं की नींद फिलहाल उड़ी होगी, लेकिन तमाम सर्वेक्षणों के बाद, शायद ही किसी को कोई शक-शुबा हो कि अगली सरकार किसक

गाँव- देहात में ठहरी एक बारात का आँखों देखा हाल

गाँव-देहात की या शहर की ही किसी बारात में शामिल होना यानि की अपने सिर में कौवे की कलगी लगाने जैसा है। लोगों ने एक आईटम खा कर खत्म किया नहीं कि कौवे की तरह घरातीयों की ओर ताकने लगेंगे कि देखें अब क्या आ रहा है। महक तो बहुत बढिया आ रही है, पर साले कर क्या रहे हैं…….ला क्यों नहीं रहे। ये उस बारात का हाल होता है जो गाँव देहात में खेतों में उस समय ठहराई जाती है जब गेहूँ कट चुके हों, अरहर वगैरह ढो सटक कर एक लाईन कर दिये गये हों। ऐसे मे बिना हॉल वगैरह बुक किये केवल शामियाना तान कर बारात ठहरा दी जाती है। जिसका अपना अलग ही आनंद है। ऐसी ही एक बारात में मैं अबकी शामिल हुआ। बहुत मन से इस बारात में गया था क्योंकि तीन चार साल बाद कोई बारात करने का मौका मिला था वरना तो कभी गर्मियों में शादि व्याह के मौसम में मेरा जाना कम ही हो पाता है । थोडा जल्दी ही मैं चल पडा। गाँव देहात का रास्ता है जाने कैसा रास्ता हो। मोटर साईकिल थी ही । रास्ते में कल्लू धोबी की दुकान पर भीड देखा। लोग बीच बाजार बनियान पहने, खडे खडे शर्ट उतार कर प्रेस करवा रहे थे । उनका मानना था कि बारात में जा रहे हैं तो एकदम कडक इस्त्री किये हु

प्रभु का सिमरण सबसे ऊंचा

एक चोर था ! बडा शातिर ! सभी जानते थे कि वह चोर है ! उस गांव के तथा आस-पास के गांवों में जितनी भी चोरियां होती थीं सबके लिए वही जिम्मेदार था ! परंतु वह इतनी सफाई से चोरी करता था कि कभी पकडा नही गया ! चोरी करने की सभी बारीकियों से वाकिफ ! वो अपनी पत्नी और इकलौते बेटे के साथ गांव के नज़दीक ही पहाडी पर एक झोंपडी में रहता था ! चोरी का सामान भी वहीं पहाडी में एक गुफा में छिपा कर रखता था जिससे तलाशी की नौबत आने पर भी पकडा न जा सके ! चोरी करते-करते उम्र के आखरी पडाव में आ पहुंचा ! अक्सर बीमार भी रहने लगा था ! उसे आभास होने लगा कि अब उसके जीवन के दिन थोडे ही हैं ! एक दिन उसने अपने बेटे को बुलाकर उसे चोरी के सारे गुर सिखा दिये और जहां पर उसने चोरी का सामान छुपाया था वह जगह भी दिखा दी ! भगवान की ऐसी कुदरत हुई कि कुछ दिनों बाद ही वो चल बसा ! अब मां-बेटे अकेले रह गए ! धीरे-धीरे पिता द्वारा छोडा चोरी का सामान समाप्त होने लगा ! तब बेटे ने अपनी मां से कहा – “मां, मैं कुछ काम करना चाहता हूं ! बताओ कौन सा काम करूं !” “यह भी कोई पूछ्ने की बात है ?” मां ने समझाया -“बेटा तुम्हारे पिता चोरी किया करते थे

हुआ कुछ भी नहीं

ट्रेन मानो पंख लगाकर उडी जा रही थी ! पेड, खम्भे, मकान, दुकान, पहाड सभी पीछे छूटे जा रहे थे ! जिस स्थान से रेलगाडी गुजरती थी वहां की धरती कुछ देर के लिए कांप सी जाती थी रेल की पटरियां भार से नीचे की ओर झुककर उपर उठ जातीं थीं ! सिग्नल अप-डाउन हो रहे थे ! कांटे बदल-बदल कर ट्रेन को सही दिशा प्रदान कर रहे थे ! चीखता-चिंघाडता, सीटियां बजाता काला- कलूटा ईंजन 17 बोगियों को खींचता हुआ भागा जा रहा था ! उसी गाडी के एक डिब्बे में केवल चार मुसाफिर बैठे सफर कर रहे थे ! एक सीट पर छब्बीस-सत्ताईस साल के दो जवान लडके बैठे थे ! एक लडके ने सफेद व दूसरे ने नीली शर्ट पहनी हुई थी ! दूसरी ओर सामने वाली सीट पर एक 40-42 वर्ष की भद्र महिला थीं व उनके साथ थी एक 22-23 साल की उनकी सुन्दर बेटी ! चारों अपने-अपने ख्यालों में खोये गाडी के हिचकोले खाते हुए अपनी-अपनी मंजिल का इंतज़ार कर रहे थे ! भारतीय रेल की दुर्दशा तो जग-जाहिर है ! पहली बात तो गाडी समय पर नही आती ! जब आ जाय तो सीट के लिये मारा-मारी ! किसी तरह से बैठने की जगह मिल गई तो डिब्बे में बल्ब व पंखे सही सलामत मिल जांय जरूरी नहीं ! पानी-बिजली की व्यवस्था क

अमीर बनने के अचूक नुस्खे

सभी पूछते हैं आप का हाल कैसा है, यदि आपके पास पैसा है ! आज के आर्थिक युग में प्रत्येक व्यक्ति पैसे के पीछे भाग रहा है ! पैसे के बिंना इस संसार में कुछ भी नहीं है ! बाप बडा न भईया – भईया सबसे बडा रूपईया ! आज लोग पैसा कमाने के लिए क्या-क्या नहीं करते ? धन कमाने के लिए लोग न दिन देखते हैं न रात ! धन के लिए लोग अपनों का खून बहाने से भी नहीं हिचकिचाते ! बिना परिश्रम के जल्द धन बटोर लेने की भावना ने लोगों का खून सफेद कर दिया है ! धन प्राप्ति की अन्धी चाह में लोग रिश्तों को भी भूल चुके हैं ! यदि आप धनी बनना चाहते हैं तो सबसे पहले आपको अपनी आदतों और कमजोरियों को बारीकी से पहचानना होगा ! आपको यह देखना होगा कि आपकी ऐसी कौन सी आदतें हैं जो आपकी उन्नति की राह में रोडा बन रही हैं ! आपकी ऐसी कौन सी कमज़ोरियां हैं जिनको दूर करके आप और अमीर बन सकते हैं ! यदि आप उद्यम किये बिना परिस्थितियों व दूसरे लोगों पर आरोप लगाते रहेंगें तो आप कभी भी आगे नहीं बढ सकेंगें ! आपको अपनी राह स्वयं ही बनानी होगी ! आपको परिस्थितियों को अपने अनुकूल बनाना सीखना होगा ! जब आप परिस्थितियों पर विजय पाना शुरू कर देगें तो आप पायें

एक सवाल , इस बार !गांधी – शास्‍त्री में बडा कौन ?

दो अक्टूबर तमाम औपचारिकताओं के बीत गया। एक बार फिर हमने बापू-शास्त्री को याद किया। जैसे सालों से करते आ रहे हैं। यह संयोग है कि दो महान सपूतों की जयन्ती एक ही दिन पड़ती है। दोनों ने देश को बहुत कुछ दिया है। दुनिया में भारत की पहचान जिन कारणों से होती है उनमें गांधी का प्रयोग- दर्शन भी है और शास्त्री के जय जवान-जय किसान का उद्घोष भी। किसी के लिए भी यह सवाल उठाना अंत्यत दुष्कर होगा कि इन दोनों महान विभूतियों में कौन बड़ा था? गांधी हमारे राष्ट्रीय आंदोलन के सेनापति थे और शास्त्री जी सेनानी। खुद शास्त्री जी भी गांधी का सेनानी कहे जाने से गौरवान्वित थे। यह सवाल उठाने का विचार मेरे मन महज इसलिए आया क्योंकि हर बार की तरह इस बार भी दो अक्टूबर को तिराहों- चौराहों और सार्वजनिक स्थलों पर जो समारोह हुए उसमें प्राय:सारे गांधी जी पर ही केन्द्रित थे। और इस तरह से एक महानायक का अवदान गांधी की छाया में इस बार भी ढंक गया। गोरखपुर में शास्त्री चौक पर धूल धूसरित शास्त्री जी की प्रतिमा शून्य में ताकती रह गयी। दो-चार लोगों ने जरूर चलते चलाते उन्हें नमन करने की रश्म अदायगी कर ली। न अफसरों की अनुग्रही निगाहें