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कन्या को पूजने का पर्व है नवरात्र

भारतीय ज्योतिष शास्त्र के अनुसार नक्षत्रों की गणना आश्विन नक्षत्र से आरंभ होती है। इस आधार पर आश्विन मास ज्योतिष वर्ष का प्रथम मास माना जाता है। दूसरी ओर सामान्य जन के लिए हिंदू कैलेंडर में संवत्सर या नए साल की शुरुआत चैत्र मास से होती है। इस प्रकार चैत्र नवरात्र की तरह आश्विन नवरात्र के साथ भी नवीन समय के शुभारंभ की भावना जुड़ी हुई है। चैत्र ओर आश्विन - इन दोनों के नवरात्र ऋतुओं के संधिकाल में पड़ते है। संधिकाल के समय देवी की उपासना का विशेष महत्व है। जिस प्रकार देवी ने प्रकट होकर अनेक राक्षसों का वध किया, उसी प्रकार शक्ति की पूजा-उपासना से ऋतुओं के संधिकाल में होने वाले रोग-व्याधियों पर मनुष्य विजय प्राप्त करता है। यही नवरात्र का वैज्ञानिक महत्व है।
इन दोनों ऋतू संधिकाल के नौ-नौ दिनों (दोनों नवरात्र ) को विशिष्ट पूजा के लिए महत्वपूर्ण माना गया है। जैसा किहम जनते है, इस अवधि में हम खान-पान और आचार-व्यव्हार में यथासंभव संयम और अनुशासन का पालन करते है। नवरात्र पर्व के साथ दुर्गावतरण कि कथा तथा कन्या -पूजा का विधान जुदा हुआ है। यह उसका धार्मिक और सामाजिक पक्ष है। हमारे शास्त्रों में बालिकाओं के पूजन को बहुत महत्व दिया गया है। आश्चर्यजनक रूप से उनकी पूजा में जाति का कोई भेद नहीं रखा गया है और सभी कन्याओं का समान रूप से पूज्य मानने कि सलाह दी गई है। शास्त्रों में ऐसा उल्लेख है कि इसमे जातिभेद करने से मनुष्य नरक से छुटकारा नहीं पता और संशय में पड़ा हुआ व्यक्ति पातकी होता है। इसलिए भक्त को चाहिए कि वह देवी कि आज्ञा समझ कर नवरात्रों में सभी बालिकाओं का पूजन करे, क्योंकि सभी बेटियाँ सर्वविद्या स्वरूपिणी होती है।
हमारे शास्त्र कहते है कि जिस जगह सभी कन्याओं की पूजा होती है, वह भूमि परम पावन है। उसके चारों और पांच कोस तक का क्षेत्र पवित्र हो जाता है। यदि आधुनिक सन्दर्भों में देखें तो इस पूजन का क्या अर्थ है? पूजने का अर्थ है उन्हें मान-सम्मान देना, उनके महत्व और उनकी भूमिका को समझना। आख़िर पूजा के कर्मकांड में भी हम उन्हें आदरपूर्वक बुलाते है, उनके पांव पखारते है, उन्हें अच्छा भोजन करते हैं और वस्त्र आदि भेट करते है।
हमारे एक धार्मिक ग्रन्थ रुद्रयामलतंत्र के उतराखंड में कन्याओं को पूजन के लिए अलग-अलग आयु वर्ग में बनता गया है और उन्हें विभिन्न देवियों के रूप में वर्णित किया गया है। उदाहरणके लिए एक वर्ष की आयु वाली बालिका संध्या, दो वर्ष वाली सरस्वती और तीन वर्ष वाली- त्रिधामुर्ती कहीं जाती है। इसी तरह चार वर्ष वाली कलिका और पांच वर्ष वाली सुभगा मानी जाती है। छः वर्ष में वह उमा हो जाती है। सात वर्ष की होने पर वह मालिनी और आठ वर्ष पर कुब्जा कहलाती है। नौ वर्ष की कन्या काल्संदर्भा, दसवें वर्ष में अपराजिता और ग्यारहवें वर्ष में रुद्राणी है। बारह वर्ष की बालिका भैरवी और तेरह वर्ष की महालक्ष्मी होती है। चौदह वर्ष में उसे पिठनायिका, पन्द्रहवें में क्षेत्रज्ञा और सोलहवें में उसे अम्बिका की श्रेणी में रखा जाता है। एक अन्य ग्रन्थ मन्त्रमहोदधि के अठारहवें तरंग में वर्णन है की यजमान को चाहिए की वह नवरात्र में दस कन्याओं का पूजन करें। इनमे दो वर्ष की अवस्था से लेकर दस वर्ष तक की ही पूजन करना उत्तम है। जो दो वर्ष की उम्रवाली है वह कुमारी, तीन वर्ष की त्रिमूर्ति, चार वर्ष की कल्याणी, पांच वर्ष की रोहिणी, छः वर्ष की कलिका, सात साल की चंडिका, आठ वर्ष की शाम्भवी, नौ वर्ष की दुर्गा और दस वर्ष की कन्या सुभद्रा कही गई है। इस ग्रन्थ में कहा गया है कि एक वर्ष कि कन्या कि पूजा से प्रसन्नता नहीं होगी। इसी प्रकार ग्यारह वर्ष से ऊपर वाली कन्याओं के लिए भी पूजा ग्रहण वर्जित कहा गया है।
शास्त्र कहते है कि जो कन्याओं कि पूजा करता है, उसी के परिवार में देवी-देवता प्रसन्न होकर संतान के रूप में जन्म लेते है। फ़िर हम क्यों नवरात्रों में धार्मिक विधि-विधान से पूजा करते है और साल के बाकी दिन बालिका भ्रूण की हत्या करते है।

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