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जुलाई, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

अनन्त कृष्ण तत्त्व की अनुपस्थिति में

कृष्ण की इच्छा थी कि उनके देह-विसर्जन के पश्चात् द्वारकावासी अर्जुन की सुरक्षा में हस्तिनापुर चले जाएँ। सो अर्जुन अन्त:पुर की स्त्रियों और प्रजा को लेकर जा रहे थे। रास्ते में डाकुओं ने लूटमार शुरू कर दी। अर्जुन ने तत्काल गाण्डीव के लिए हाथ बढ़ाया। पर यह क्या ! गाण्डीव तो इतना भारी हो गया था कि प्रत्यंचा खींचना तो दूर धनुष को उठाना ही संभव नहीं हो पा रहा था। महाभारत के विजेता, सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी विवश होकर अपनी आँखों के सामने अपना काफ़िला लुटता देख रहे थे। विश्वास नहीं हो रहा था कि वह वही है जिसने अजेय योद्धाओं को मार गिराया था। बिजली की कौंध से शब्द उनके मन में गूँज गए ‘‘तुम तो निमित्त मात्र हो पार्थ।’’ ‘श्रीमद्भावगत’ का यह प्रसंग जितना मार्मिक है उतना ही एक अखंड सत्य का उद्घोषक भी। जीवन में जब-जब कृष्ण तत्व अनुपस्थित होता है, तब-तब मनुष्य इसी तरह ऊर्जा रहित हो जाता है। कृष्ण के न रहने का मतलब है, जीवन में शाश्वत मूल्यों का ह्रास। उनका जीवन प्रतीक है अन्याय के प्रतिकार का, प्रेम के निर्वाह का, कर्म के उत्सव का, भावनाओं की उन्मुक्त अभिव्यक्ति का, शरणागत की रक्षा का। उनकी जीवन शैली हमे

जीवन एक बाज़ी के समान है

एक अंग्रेज पादरी का कथन है–‘‘जीवन एक बाज़ी के समान है। हार जीत तो हमारे हाथ में नहीं है, पर बाज़ी का खेलना हमारे हाथ में है।’’ और इसी के साथ यह भी सच है कि हार-जीत का रहस्य बाज़ी के खेल में छिपा है। हम जैसा खेल खेलेंगे, परिणाम भी हमें वैसा ही मिलेगा–यह मानी हुई बात है। लेकिन होता यह है कि खेल के दौरान हम इस रहस्य को भूलकर, अहंकार के वशीभूत हो जाते हैं। हम सोचते हैं कि हमें तो जीत मिलेगी ही। हमको कौन रोक सकता है। लेकिन इस बात के अनेक उदाहरण हैं कि चाहे कोई खेल हो, स्पर्धा हो, मंजिल हो या लक्ष्य हो–जिसके मन में उसकी प्राप्ति के प्रति अहंकार आ गया–उसकी हार अवश्यम्भावी है। बड़े-बड़े सूरमाओं और ज्ञानियों का अहंकार टूटा है और उन्हें पराजय का मुंह देखना पड़ा है। इसलिए जीवन में जो जीतना चाहता है उसे उन तमाम कमियों और बुराइयों को दूर करना अनिवार्य होता है, जो हमारे मार्ग को प्रशस्त बनाने में बाधक बनती हैं। वास्तव में जीवन के हर कदम पर हमसे कुछ अपेक्षाएं होती हैं। ये अपेक्षाएं ही हमारे जीवन-पथ को सुगम और सरल बनाती हैं’’ और हम इन्हीं के आधार पर जीत या विजय हासिल करते हैं। जीवन-पथ पर अग्रसर होने स

जीवन नजरिए का खेल है

जीवन और कुछ नहीं आधा गिलास पानी भर है। जी हां सुख-दुख से भरा यह जीवन हमारे नजरिए पर टिका है। गिलास एक ही है परंतु किसी के लिए आधा खाली है तो किसी के लिए आधा भरा हुआ है। ऐसे ही यह जीवन है किसी के लिए दुखों का अम्बार है तो किसी के लिए खुशियों का खजाना। कोई अपने इस जन्म को, इस जीवन में आने को सौभाग्य समझता है तो कोई दुर्भाग्य। किसी का जीवन शिकायतों से भरा है तो किसी का धन्यवाद से। किसी को मरने की जल्दी है तो किसी को यह जीवन छोटा लगता है। एक ही जीवन है, एक ही अवसर है परंतु फिर भी अलग-अलग सोच है, भिन्न-भिन्न परिणाम हैं। सब कुछ हमारे नजरिए पर टिका है, मारी समझ से जुड़ा है। इसीलिए एक कहावत भी है (जाकि रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन वैसी) जिसकी जैसी भावना होती है उसको वैसे ही परिणाम मिलते हैं। इसे यूं एक कथा समझें। तीन मजदूर एक ही काम में संलग्न थे। इनका काम दिन भर सिर्फ पत्थर तोड़ना ही था। जब एक से पूछा गया कि आप क्या कर रहे हो ? तो उसने गुस्से से, शिकायत भरी नजर उठाकर कहा ‘दिख नहीं रहा अपनी किस्मत तोड़ रहा हूं, पसीना बहा रहा हूं और क्या’। दूसरे मजदूर से भी यही सवाल किया गया। उसके उत्तर म