इस जगत की हर वास्तु के साथ भय जुड़ा है। जिनके पास बहुत अधिक धन है, व्यवसाय अच्छा चल रहा है, उन्हें व्यवसाय में क्षति की आशंका रहती है। जो किसी स्पोर्ट्स में चैम्पियन है, उन्हें चैम्पियनशिप छीन जाने का कर लगा रहता है। इस धरती पर ऐसी कोई चीज नहीं जिसमे डर न हो। शास्त्रों में कहा गया है की केवल एक वास्तु है, जिसमें डर नहीं समाया होता - वह है वैराग्य। केवल वैराग्य में ही भय नहीं है।
लेकिन वैराग्य है क्या? वैराग्य का अर्थ है किसी वास्तु के रंग में अपने मन को रंगने न देना। जगत में जो भी वस्तुएं है, मनुष्य कभी जानबूझकर और कभी अनजाने में उनकी ओर आकृष्ट होता है। हर चीज का अपना रंग है, अपना प्रभाव है। जब मनुष्य मन को इतना मजबूत बना ले की वह किसी भी रंग से प्रभावित नहीं हो, तब उस अवस्था को वैराग्य कहते है।
वैराग्य का अर्थ सब कुछ छोड़कर भागना नहीं है। 'वैराग्य' का अर्थ पलायन नहीं है, वह दूसरे के द्वारा प्रभावित न होना है। कीचड़ में पैदा होने वाला कमल कीचड़ में रहता है, परन्तु फिरभी उसकी पंखुडियों पर कीचड़ नहीं लगता। इसी अवस्था को कह्नते है वैराग्य।
इस वैराग्य की अवस्था में मनुष्य कब प्रतिष्ठित होता है? जब वह यह समझने लगता है कि जिस वास्तु का रंग हमारे मन पर लगता है या लग सकता है, उसका हमारे मन पर चाहे जैसा भी प्रभाव क्यों न पड़े, उसमे से कोई भी वास्तु स्थायी नहीं है। वह आज है, कल चली जाएगी। इस कारन मन पर किसी भी वस्तु का रंग नहीं लगने देना चाहिए।
लेकिन मन तो किसी न किसी विषय को लेकर ही रहेगा, यह उसका स्वभाव है। वह विषयरहित नहीं हो सकता, विषय का वर्जन कर मन रह ही नहीं सकता। जो सत्कर्म नहीं करता, वह असत कर्म करता है, यही नियम है। इस कारण जिसे विषय का रंग नहीं लग रहा है, उसे भी विषय को लेकर ही रहना पड़ेगा।
यदि कोई अविषय है, तो वह परमपुरुष है। जो पहले भी थे, आज भी है और सदा रहेंगे। वह है 'सत्' इस सत् का जो बाहरी प्रकाश है, उसे ही 'सत्य' कहा जाता है। इसलिए कहा जाता है कि जिसने सत्य का आश्रय लिया है, जिसने परमपुरुष का आश्रय लिया है उसे किसी प्रकार का भय नही है। उस आनंदस्वरूप ब्रह्म को जिन्होंने जान लिया है, वे और किसी वस्तु से भयभीत नहीं होते। डरने का कोई कारण ही नहीं है, क्योंकि सत्य निर्भय है। जब सत्य के साथ असत्य का संग्राम शुरू होता है, तब सत्य की जय अवश्यम्भावी है। क्योंकि जो असत्य है वो आज है, पर कल नहीं रहेगा, किंतु सत्य था, है, और रहेगा। इस कारण जय उसी की होती है जो सत्याश्रयी होता है। असत्य चलायमान है, इसलिए पथ पर कभी उसकी जय हो भी जाए, तो वह क्षणिक होती है और उस क्षण के समाप्त होते ही वह चली जाती है। स्थायी जय उसकी नहीं होती। परन्तु सत्य तो स्थायी है, इस कारण उसकी जय स्थायी ही होगी।
स्थायी जय को संस्कृत में 'विजय' कहा जाता है और अस्थायी जय को 'जय' कहते है। एक कहानी है। एक बार अकबर ने बीरबल से कहा, बीरबल, कोई ऐसी बात बताओ जिसे सुनकर सुखी मनुष्य का मन दुखी हो जाए और दुखी मनुष्य का मन आनंद से भर उठे। बीरबल ने कहा - 'ऐसा दिन नहीं रहेगा।'
इस जगत में हर वस्तु के सम्बन्ध में ऐसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि एक ऐसा है जो आया है अनंत काल तक रहने के लिए और अनंत काल तक वह साथ रह जाएगा। इसी कारण उसे आप्तकाम ऋषि कहा जाता है। अर्थात जिसकी इच्छा आप्त के मध्यम से पूर्ण हुई है। ईश्वर से मिली वस्तु से जिसका मन भर गया है, वही है आप्तकाम। इसके अलावा सत्य का आश्रय लिए बिना अग्रगति का और कोई भी उपाय नहीं है।
लेकिन वैराग्य है क्या? वैराग्य का अर्थ है किसी वास्तु के रंग में अपने मन को रंगने न देना। जगत में जो भी वस्तुएं है, मनुष्य कभी जानबूझकर और कभी अनजाने में उनकी ओर आकृष्ट होता है। हर चीज का अपना रंग है, अपना प्रभाव है। जब मनुष्य मन को इतना मजबूत बना ले की वह किसी भी रंग से प्रभावित नहीं हो, तब उस अवस्था को वैराग्य कहते है।
वैराग्य का अर्थ सब कुछ छोड़कर भागना नहीं है। 'वैराग्य' का अर्थ पलायन नहीं है, वह दूसरे के द्वारा प्रभावित न होना है। कीचड़ में पैदा होने वाला कमल कीचड़ में रहता है, परन्तु फिरभी उसकी पंखुडियों पर कीचड़ नहीं लगता। इसी अवस्था को कह्नते है वैराग्य।
इस वैराग्य की अवस्था में मनुष्य कब प्रतिष्ठित होता है? जब वह यह समझने लगता है कि जिस वास्तु का रंग हमारे मन पर लगता है या लग सकता है, उसका हमारे मन पर चाहे जैसा भी प्रभाव क्यों न पड़े, उसमे से कोई भी वास्तु स्थायी नहीं है। वह आज है, कल चली जाएगी। इस कारन मन पर किसी भी वस्तु का रंग नहीं लगने देना चाहिए।
लेकिन मन तो किसी न किसी विषय को लेकर ही रहेगा, यह उसका स्वभाव है। वह विषयरहित नहीं हो सकता, विषय का वर्जन कर मन रह ही नहीं सकता। जो सत्कर्म नहीं करता, वह असत कर्म करता है, यही नियम है। इस कारण जिसे विषय का रंग नहीं लग रहा है, उसे भी विषय को लेकर ही रहना पड़ेगा।
यदि कोई अविषय है, तो वह परमपुरुष है। जो पहले भी थे, आज भी है और सदा रहेंगे। वह है 'सत्' इस सत् का जो बाहरी प्रकाश है, उसे ही 'सत्य' कहा जाता है। इसलिए कहा जाता है कि जिसने सत्य का आश्रय लिया है, जिसने परमपुरुष का आश्रय लिया है उसे किसी प्रकार का भय नही है। उस आनंदस्वरूप ब्रह्म को जिन्होंने जान लिया है, वे और किसी वस्तु से भयभीत नहीं होते। डरने का कोई कारण ही नहीं है, क्योंकि सत्य निर्भय है। जब सत्य के साथ असत्य का संग्राम शुरू होता है, तब सत्य की जय अवश्यम्भावी है। क्योंकि जो असत्य है वो आज है, पर कल नहीं रहेगा, किंतु सत्य था, है, और रहेगा। इस कारण जय उसी की होती है जो सत्याश्रयी होता है। असत्य चलायमान है, इसलिए पथ पर कभी उसकी जय हो भी जाए, तो वह क्षणिक होती है और उस क्षण के समाप्त होते ही वह चली जाती है। स्थायी जय उसकी नहीं होती। परन्तु सत्य तो स्थायी है, इस कारण उसकी जय स्थायी ही होगी।
स्थायी जय को संस्कृत में 'विजय' कहा जाता है और अस्थायी जय को 'जय' कहते है। एक कहानी है। एक बार अकबर ने बीरबल से कहा, बीरबल, कोई ऐसी बात बताओ जिसे सुनकर सुखी मनुष्य का मन दुखी हो जाए और दुखी मनुष्य का मन आनंद से भर उठे। बीरबल ने कहा - 'ऐसा दिन नहीं रहेगा।'
इस जगत में हर वस्तु के सम्बन्ध में ऐसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि एक ऐसा है जो आया है अनंत काल तक रहने के लिए और अनंत काल तक वह साथ रह जाएगा। इसी कारण उसे आप्तकाम ऋषि कहा जाता है। अर्थात जिसकी इच्छा आप्त के मध्यम से पूर्ण हुई है। ईश्वर से मिली वस्तु से जिसका मन भर गया है, वही है आप्तकाम। इसके अलावा सत्य का आश्रय लिए बिना अग्रगति का और कोई भी उपाय नहीं है।
टिप्पणियाँ
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Aap sabhi bhaiyo & bahno se anurodh hai ki aap sabhi uchit comment de............
jisse main apne blog ko aap sabo ke samne aur acchi tarah se prastut kar saku......