आज का युग पैकज युग है। यात्रा देसी हो या विदेशी, आपको उसके लिए तरह-तरह के लुभावने व आकर्षक टूर पैकज मिल जायेंगे। वह जमाना भी बीत गया जब पगार या तो दिहारी के रेट से मिलती थी या फ़िर महीने भर काम करके मासिक आमदनी के रूप में।
आज सब बदल गया है। तनख्वाह साल भर के पैकज के रूप में तय की जाती है। आईआईटी इंजिनियर या आइआइम के मनागेरो को तो करोर-करोर के पैकज भी मिल जाते है। पैकज मने तनख्वाह कैश में, और इसके अलावा मेडिकल-सुबिधा, पेट्रोल-ड्राइवर, युनिफोर्म-सुएज, अलटीऐ सम्बन्धी खर्च और न जाने क्या-क्या। insentive अलग से। इन्कोमे टैक्स तो सैलरी पर, बाकि बहुत कुछ टैक्स फ्री।
इस पैकज का एक विलक्षण रूप मैंने फ़ोन पर बात कर रही अपनी मित्र से सुना। उनकी अपने किसी सम्बन्धी से बात हो रही थी कि वे अपने फलां मित्र के क्रोधपूर्ण व्यव्हार से बहुत आहत है। मेरी मित्र ने कहा, अरे यार तुम्ही तो अक्सर उनकी तारीफ करती रहती । फ़िर यदि उन्होंने गुस्सा या तुम्हारे शब्दों में भयंकर गुस्सा कर भी दिया तो उसे इतना तूल क्यों दे रही हो? हमारे यहाँ भी कहावत है, दुधारू गाय कि लात भी सहनी होती है। हमारे सम्बन्ध भी एक पैकज कि तरह ही होते है, जिनमे अच्छा-बुरा दोनों समाये रहते है।
मुझे लगा, बिल्कुल ठीक, संबंधो के कुछ पैकज हम ऊपर से लिखवा कर लाते है, तो कुछ मित्र-दोस्त यहाँ आकर स्वयं चुनकर बनाते है। पैकज कोई भी हो, टैक्स तथा टैक्स फ्री का चक्कर यहाँ भी रहता है। मतलब कुछ अनुकूल, कुछ प्रतिकूल। इन्सान को नौकरी का पैकज अच्छा न लगे तो बेहतर कि चाह में उसे (नौकरी) बदल लेता है। पर संबंधो कि दुनिया में ऐसा हमेशा सम्भव नहीं हो पता। खासकर खून के रिश्तो के पैकज कुछ ऐसे ही होते है। बरे-बूढों तथा जवान-बच्चो के बीच में पीढियों का अन्तर यानि जेनरेशन गैप मानकर रिश्तो को कभी नकारने या कभी तोरने कि कोशिशे कि जाती है, पर जैसे-तैसे वे रिश्ते झेल ही लिए जाते है। पति पत्नी के संबंधो का पैकज कुछ अलग सा होता है। स्वीकार लिया तो जन्मो-जन्मो का नाता, नहीं तो बस टूटन और घुटन।
एक दुसरे से जरुरत से ज्यादा अपेक्षाए, एक-दुसरे कि कमजोरियों को बढ़ा-चढा कर बखान करना और दुसरे जोरो से तुलना-यही सब नकारात्मकता इस पैकज को बिगारती है। इन्सान कि फितरत ही है मीठा-मीठा गप करवा-करवा थू। पर कितना ग़लत है यह।
नौकरी का पैकज जब स्वीकारा जाता है, तो उसके सब घटक अनुकूल नहीं होते। पर जब स्वीकार करते है तो प्रतिकूल को भी करते ही है। संबंधो के हर पैकज को इसी दृष्टि से देखते हुए उसकी तमाम अच्छाइयो व बुराइयों के साथ स्वीकारना सीख ले तो जीवन की राहे सरल हो जायेगी। पति-पत्नी या मित्र-मित्र के बीच एक बहुत गुस्सा करने वाला हो, तो किसको पसंद होगा। पर उसी को पकर कर बैठ जायेंगे तो गतिरोध ही होगा न। एक बुरी आदत के अतिरिक्त यदि वह अन्यत्र सहानुभूति पूर्ण व्यव्हार करता है, सुख-दुःख में साथ देता है, तो उसे भूलना ही भला। उसकी नकारात्मकता की उपेक्षा ही सही होगी। दस बातें दुसरे में अच्छी है, तो उन्हें तो टेकेन फॉर ग्रांटेड ले लिया, पर एक कमजोरी को सह न सके- तो क्या बात हुई। खून के रिश्ते हो या दोस्ती के हर जगह, हमें सम्पूर्ण पैकज अपनाना परेगा- आधा अधुरा नहीं। अपने मतलब भर का लेकर बाकि का तिरस्कार करेंगे, तो सम्बन्ध विघटित ही होंगे। तब एकाकी , अकेले ही रह जन होगा।
माता-पिता, भाई-बहन, मित्र-बंधू, अरोसी-परोसी, यहाँ तक की कार्यक्षेत्र के सहयोगियों की भी सब बातें पसंद नहीं आ सकती। उन्हें भी हमारी कई बातें पसंद नहीं आती होंगी। फ़िर ऐसा करके अपने आप हम इश्वर या प्रकृति को भी अस्वीकार करने का कार्य karte hai
आज सब बदल गया है। तनख्वाह साल भर के पैकज के रूप में तय की जाती है। आईआईटी इंजिनियर या आइआइम के मनागेरो को तो करोर-करोर के पैकज भी मिल जाते है। पैकज मने तनख्वाह कैश में, और इसके अलावा मेडिकल-सुबिधा, पेट्रोल-ड्राइवर, युनिफोर्म-सुएज, अलटीऐ सम्बन्धी खर्च और न जाने क्या-क्या। insentive अलग से। इन्कोमे टैक्स तो सैलरी पर, बाकि बहुत कुछ टैक्स फ्री।
इस पैकज का एक विलक्षण रूप मैंने फ़ोन पर बात कर रही अपनी मित्र से सुना। उनकी अपने किसी सम्बन्धी से बात हो रही थी कि वे अपने फलां मित्र के क्रोधपूर्ण व्यव्हार से बहुत आहत है। मेरी मित्र ने कहा, अरे यार तुम्ही तो अक्सर उनकी तारीफ करती रहती । फ़िर यदि उन्होंने गुस्सा या तुम्हारे शब्दों में भयंकर गुस्सा कर भी दिया तो उसे इतना तूल क्यों दे रही हो? हमारे यहाँ भी कहावत है, दुधारू गाय कि लात भी सहनी होती है। हमारे सम्बन्ध भी एक पैकज कि तरह ही होते है, जिनमे अच्छा-बुरा दोनों समाये रहते है।
मुझे लगा, बिल्कुल ठीक, संबंधो के कुछ पैकज हम ऊपर से लिखवा कर लाते है, तो कुछ मित्र-दोस्त यहाँ आकर स्वयं चुनकर बनाते है। पैकज कोई भी हो, टैक्स तथा टैक्स फ्री का चक्कर यहाँ भी रहता है। मतलब कुछ अनुकूल, कुछ प्रतिकूल। इन्सान को नौकरी का पैकज अच्छा न लगे तो बेहतर कि चाह में उसे (नौकरी) बदल लेता है। पर संबंधो कि दुनिया में ऐसा हमेशा सम्भव नहीं हो पता। खासकर खून के रिश्तो के पैकज कुछ ऐसे ही होते है। बरे-बूढों तथा जवान-बच्चो के बीच में पीढियों का अन्तर यानि जेनरेशन गैप मानकर रिश्तो को कभी नकारने या कभी तोरने कि कोशिशे कि जाती है, पर जैसे-तैसे वे रिश्ते झेल ही लिए जाते है। पति पत्नी के संबंधो का पैकज कुछ अलग सा होता है। स्वीकार लिया तो जन्मो-जन्मो का नाता, नहीं तो बस टूटन और घुटन।
एक दुसरे से जरुरत से ज्यादा अपेक्षाए, एक-दुसरे कि कमजोरियों को बढ़ा-चढा कर बखान करना और दुसरे जोरो से तुलना-यही सब नकारात्मकता इस पैकज को बिगारती है। इन्सान कि फितरत ही है मीठा-मीठा गप करवा-करवा थू। पर कितना ग़लत है यह।
नौकरी का पैकज जब स्वीकारा जाता है, तो उसके सब घटक अनुकूल नहीं होते। पर जब स्वीकार करते है तो प्रतिकूल को भी करते ही है। संबंधो के हर पैकज को इसी दृष्टि से देखते हुए उसकी तमाम अच्छाइयो व बुराइयों के साथ स्वीकारना सीख ले तो जीवन की राहे सरल हो जायेगी। पति-पत्नी या मित्र-मित्र के बीच एक बहुत गुस्सा करने वाला हो, तो किसको पसंद होगा। पर उसी को पकर कर बैठ जायेंगे तो गतिरोध ही होगा न। एक बुरी आदत के अतिरिक्त यदि वह अन्यत्र सहानुभूति पूर्ण व्यव्हार करता है, सुख-दुःख में साथ देता है, तो उसे भूलना ही भला। उसकी नकारात्मकता की उपेक्षा ही सही होगी। दस बातें दुसरे में अच्छी है, तो उन्हें तो टेकेन फॉर ग्रांटेड ले लिया, पर एक कमजोरी को सह न सके- तो क्या बात हुई। खून के रिश्ते हो या दोस्ती के हर जगह, हमें सम्पूर्ण पैकज अपनाना परेगा- आधा अधुरा नहीं। अपने मतलब भर का लेकर बाकि का तिरस्कार करेंगे, तो सम्बन्ध विघटित ही होंगे। तब एकाकी , अकेले ही रह जन होगा।
माता-पिता, भाई-बहन, मित्र-बंधू, अरोसी-परोसी, यहाँ तक की कार्यक्षेत्र के सहयोगियों की भी सब बातें पसंद नहीं आ सकती। उन्हें भी हमारी कई बातें पसंद नहीं आती होंगी। फ़िर ऐसा करके अपने आप हम इश्वर या प्रकृति को भी अस्वीकार करने का कार्य karte hai
sab baaten sahi hain
जवाब देंहटाएंsahi kaha minuji aapne
हटाएं