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ऐसी भी क्या रिसर्च की भाई

राजनीति में ज्यादा पढ़ना-लिखना नहीं चाहिए जीसमस्या हो जाती हैदेख लो, बीजेपी को भी हो गई और जसवंत सिंह को भीलोगों ने सोचा होगा की चुनाव हारकर बीजेपी वाले चुप होकर बैठ जायेंगेपर अ़ब तो उसके नेताओ की रचनात्मक प्रतिभा एकदम विस्फोटक रूप से सामने रही हैपहले कुछ पत्रकारनुमा नेताओ ने लेख लिखेफ़िर किसी ने नोट लिखकर दिया और किसी ने चिठ्ठी लिखीचुनाव में हाईटेक प्रचार किया, आडवाणी जी ने तो ब्लॉग भी लिखेपर कई नेता चुनाव बाद चिट्ठियां लिख रहे है और अपनी रचनात्मक प्रतिभा का कमाल दिखा रहे हैजसवंत सिंह ने तो किताब ही लिख दीहालाँकि किताब तो आडवाणी जी ने भी लिखी, पर चुनाव से पहलेजसवंत सिंह कह रहे है की उन्होंने आडवाणी जी को अपनी किताब की सब सामग्री पढ़वा दी थीसाथ ही उनकी शिकायत यह भी है कि किताब को कोई पढ़ ही नहीं रहापर उन्होंने अपनी रचनात्मक प्रतिभा दिखा दीकिताब लिख दीउधर बाल आप्टे ने चुनाव कि समीक्षा कर नोट दे दियाबताओ समस्या नहीं होती? लेखको को अक्सर शिकायत रहती है कि समीक्षा तो आजकल ठीक से किताबों की भी नहीं होतीफ़िर चुवाव की समीक्षा कर नोट देने की क्या क्या जरुरत थीऔर किताब लिखने की तो बिल्कुल जरुरत नहीं थीजसवंत सिंह कहते है की उन्होंने तो रिसर्च की है, अकेडमिक काम किया हैअ़ब वह कोई प्रोफेसर तो है नहींकिसी कॉलेज या विश्वविद्यालय में तो पढाते नहींफ़िर ऐसा विकट अकेडमिक काम करने की क्या जरुरत थीनेता है, राजनितिक काम करते, भाषण देते, बयां देते, बयानों का खंडन करतेटीवी पर डिस्कशन में हिस्सा लेते और लोगों को ज्ञान देतेपर उन्होंने अकेडमिक काम कर डाला और समस्या हो गईइतिहास में अगर इतनी ही रूचि थी तो ताजमहल को शिवाला साबित करतेलाल किले को मन्दिर साबित करते वगैरह-वगैरहइतिहास में इतनी ही ज्यादा रूचि थी तो बीजेपी के उन इतिहासकारों जैसी रिसर्च करते जिन्होंने साबित किया था कि रामजन्मभूमि वहीँ है, जहाँ बाबरी मस्जिद थी और कि बाबरी मस्जिद तोढ़कर बनाई गई थीरिसर्च में इतनी ही रूचि थी तो अरुण शौरी टाइप रिसर्च करते जैसी उन्होंने डॉ आम्बेडकर और कोम्मुनिस्तो को अंग्रजों का पिछलग्गू साबित करने के लिए की थीपर अ़ब तो शौरीजी भी वैसी इति सिद्धम टाइप रिसर्च नहीं करतेपत्रकार से बीजेपी के नेता हो गए है सो हार के कारणों की रिसर्च में लग गए और समस्या हो गई
इतिहास में रूचि है तो वह गोपाल गोडसे की गाँधी बेनकाब टाइप किताब लिखतेज्यादा करते तो नेहरू बेनकाब टाइप किताब लिख सकते थेगाँधी-नेहरू को बेनकाब करने में संघ की कोर आइडिओलोजी का बिल्कुल उलंघन नहीं होतापर नेहरू और पटेल को एक साथ खरा करना पार्टी का आइडिओलोजी नहीं हैपार्टी की आइडिओलोजी सबको अलग-अलग खरा करने की है - हिंदू-मुस्लमान अलग -अलग, गुर्जर-मीना अलग-अलग टाइपइसी तरह वह नेहरू और पटेल को भी एक साथ नहीं खरा करतीनेहरू कांग्रेस के, पटेल बीजेपी केहालाँकि पटेल भी थे तो कांग्रेसी हीगांधीजी की हत्या के बाद संघ पर बैन उन्होंने ही लगाया थाफ़िर भी नेहरू के मुकाबले वह बीजेपी के अपने हैउन्ही पटेल को जसवंत सिंह ने बँटवारे के लिए जिम्मेदार ठहरा दियासमस्या हो गईकहीं बीजेपी का जिन्ना प्रेम भी कुछ-कुछ ऐसा ही तो नहींकांग्रेस और नेहरू की आलोचना के लिए जैसे पटेल का इस्तेमाल होता है, वैसे ही जिन्ना का भी हो जाएनेहरू अगर सेकुलर थे, आधुनिक थे तो कह सकते है की जिन्ना भी सेकुलर थे, आधुनिक थेएक बार जिन्ना सेकुलर हो गए तो आडवाणी जी को सेकुलर होने से कौन रोक सकेगासो पहले आडवाणी जी ने कोशिश की, फ़िर जसवंत सिंह नेजसवंत सिंह का कहना है की उन्होंने तो अकेडमिक काम किया है, रिसर्च की हैपर राजनीति में पांव ज़माने के लिए शौरी की इति सिद्धं टाइप रिसर्च तो कामयाब हो जाती है पर जसवंत सिंह टाइप रिसर्च राजनीति में जमे जमाये पांव उखार देते है

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