मन्दिर या अन्य धार्मिक स्थल का चिकित्सा अथवा उपचार अथवा रोग मुक्ति से कोई सम्बन्ध हो सकता है, कहने-सुनने में यह बात कुछ अविश्वसनीय सी लगती है, लेकिन सच तो यह है कि इन स्थानों का महत्व चिकित्सालय से किसी भी प्रकार कम नहीं है। माडर्न मेडिकल रिसेर्चो से पता चलता है कि जो लोग धार्मिक प्रवृति के है और नियमित रूप से पूजा-अर्चना करते है, साथ ही, धार्मिक स्थलों पर जाते है और तीर्थाटन आदि करते रहते है, ऐसे लोग अपेक्षाकृत कम बीमार पड़ते है। अगर किसी वजह से वे बीमार पड़ भी जाए, तो जल्द ही रोग मुक्त भी हो जाते है। मन्दिर, मस्जिद, गुरूद्वारे और गिरिजाघर आदि स्थान वस्तुतः हमारी आस्था का प्रतीक है। और अगर हम में देवी-देवताओं और उनके निवास माने जाने वाले धर्मस्थलों में आस्था है, तो यह आस्था रोगों के उपचार का एक महत्वपूर्ण तत्व बन सकती है। कई रिसर्चे साबित करती है कि आस्तिक, आस्थावान अथवा आशावादी व्यक्तियों के शरीर में ऐसे हारमोंस और रसायनों का स्राव होता रहता है, जो उन्हें स्वस्थ बनाए रखते है। ये स्राव रोग की अवस्था में उन्हें शीघ्र रोगमुक्त करके आरोग्य प्रदान करने में सहायक होते है। जब हमारी आस्था आधुनिक चिकित्सा पद्धति पर होती है, तो डॉक्टर और दवाए हमारे उपचार में सहायक होती है, किकिन जब हमारी आस्था मन्दिर-मस्जिद के प्रति श्रधाभाव के रूप में प्रकट होती है, तो ये स्थान ही हमारे स्वस्थ्य और रोग मुक्ति से जुर जाते है। इस प्रकार हमें स्वस्थ रखने और रोगमुक्त करने में जो भूमिका एक चिकित्सालय की होती है, वही भूमिका एक उपसनाग्रिः अथवा धार्मिक स्थल की भी हो जाती है। अगर हम नियमित रूप से मन्दिर-मस्जिद अथवा अन्य धार्मिक स्थलों पर जाते है अथवा स्थान विशेष के प्रति दृढ़ आस्था रखते है तो हर कार्य के आरंभ में सफलता के लिए तथा विषम परिस्थितियों से उबरने के लिए हमारे अन्दर एक विश्वास उत्पन्न हो जाता है। यही विश्वास मुसीबतों के वक्त हमारी सहायता करता है और हमारा मार्ग प्रशस्त करता है। पूजा-अर्चना अथवा प्रार्थना में वास्तव में किसी कार्य को करने का दृढ़ संकल्प ही तो अभिव्यक्त होता है। जिस कार्य अथवा क्षेत्र में हम सफलता प्राप्त करना चाहते है, प्रार्थना के द्वारा उसे पुरा करने की मनोकामना व्यक्त करते है। कोई भी प्रार्थना असल में हमारे संकल्प का ही एक रूप कही जा सकती है। संकल्प का लक्ष्य प्राप्ति में कितना महत्व है, यह हम सब अच्छी तरह जानते है।
प्रार्थना और विश्वास में गहरा सम्बन्ध होता है। यहाँ ध्यान में रखने वाली बात है की जिस विचार अथवा प्रार्थना में विश्वास नहीं होता; वह मात्र शब्दाडम्बर है। उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इस सम्बन्ध में विचार भी महत्वपूर्ण है। विचार जिस दिशा में किया जाएगा, व्यक्ति के जीवन को उसी दिशा में प्रभावित करेगा। रोग का चिंतन बीमारी पैदा करेगा तथा स्वास्थय अथवा आरोग्य का चिंतन आरोग्य उत्पन्न करेगा। जब हम विश्वास के साथ अपने अच्छे स्वास्थय की कामना करते है, तो यही कामना प्रार्थना में शामिल होकर वास्तविकता में परिवर्तित हो जाती है। इसके फलस्वरूप हमें आरोग्य की प्राप्ति होती है। चूँकि हमारा प्रत्येक कर्म हमारी नियति का निर्धारक है और कर्म के मूल में विचार उपस्थित होता है, अतः कह सकते है कि हमारे विचार ही हमारा जीवन निर्धारित करते है। हर विचार एक प्रार्थना कि तरह कार्य करता है। हर विचार के आत्मस्वीकृति अथवा स्वीकारोक्ति है। प्रार्थना भी के स्वीकारोक्ति है। यह है अपने आराध्य पर विश्वास कि स्वीकारोक्ति। इसलिए सबसे महत्वपूर्ण यह है कि हमारे विचार, स्वीकारोक्ति या प्रार्थना कैसी हो, न कि उसकी प्रक्रिया क्या हो। सकारात्मक विचार ही सही प्रार्थना है। अतः विचारो का परिष्कार अनिवार्य है। सकारात्मक दृष्टिकोण का विकास ही सच्ची प्रार्थना है। यही सुभ संकल्प है। यहाँ एक सवाल जरुर उठता है। वह यह कि संकल्प तो हम प्रार्थना के बिना भी ले सकते है। बेशक, हम जब चाहे, कोई संकल्प ले सकते है। पर संकल्प का अर्थ है इच्छा और भावो कि एकरूपता। कार्य या लक्ष्य के प्रति सकारात्मक नजरिया। पर इस मनोदशा का सहज निर्माण सम्भव नहीं। इसमे काम आती है प्रार्थना।
प्रार्थना और विश्वास में गहरा सम्बन्ध होता है। यहाँ ध्यान में रखने वाली बात है की जिस विचार अथवा प्रार्थना में विश्वास नहीं होता; वह मात्र शब्दाडम्बर है। उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इस सम्बन्ध में विचार भी महत्वपूर्ण है। विचार जिस दिशा में किया जाएगा, व्यक्ति के जीवन को उसी दिशा में प्रभावित करेगा। रोग का चिंतन बीमारी पैदा करेगा तथा स्वास्थय अथवा आरोग्य का चिंतन आरोग्य उत्पन्न करेगा। जब हम विश्वास के साथ अपने अच्छे स्वास्थय की कामना करते है, तो यही कामना प्रार्थना में शामिल होकर वास्तविकता में परिवर्तित हो जाती है। इसके फलस्वरूप हमें आरोग्य की प्राप्ति होती है। चूँकि हमारा प्रत्येक कर्म हमारी नियति का निर्धारक है और कर्म के मूल में विचार उपस्थित होता है, अतः कह सकते है कि हमारे विचार ही हमारा जीवन निर्धारित करते है। हर विचार एक प्रार्थना कि तरह कार्य करता है। हर विचार के आत्मस्वीकृति अथवा स्वीकारोक्ति है। प्रार्थना भी के स्वीकारोक्ति है। यह है अपने आराध्य पर विश्वास कि स्वीकारोक्ति। इसलिए सबसे महत्वपूर्ण यह है कि हमारे विचार, स्वीकारोक्ति या प्रार्थना कैसी हो, न कि उसकी प्रक्रिया क्या हो। सकारात्मक विचार ही सही प्रार्थना है। अतः विचारो का परिष्कार अनिवार्य है। सकारात्मक दृष्टिकोण का विकास ही सच्ची प्रार्थना है। यही सुभ संकल्प है। यहाँ एक सवाल जरुर उठता है। वह यह कि संकल्प तो हम प्रार्थना के बिना भी ले सकते है। बेशक, हम जब चाहे, कोई संकल्प ले सकते है। पर संकल्प का अर्थ है इच्छा और भावो कि एकरूपता। कार्य या लक्ष्य के प्रति सकारात्मक नजरिया। पर इस मनोदशा का सहज निर्माण सम्भव नहीं। इसमे काम आती है प्रार्थना।
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Aap sabhi bhaiyo & bahno se anurodh hai ki aap sabhi uchit comment de............
jisse main apne blog ko aap sabo ke samne aur acchi tarah se prastut kar saku......