क्या बापू माली को सौभाग्यवान माना जा सकता है? मुंबई हाई कोर्ट ने महारास्ट्र सरकार को उन्हें एक लाख रूपये का मुआवजा देने के लिए कहा है। इसलिए, क्योंकि उन्हें एक ऐसे अपराध के लिए जेल में १० साल काटने पड़े जो उन्होंने किया ही नहीं था। वह ३० साल के थे, जब उन्हें पांच साल की एक लड़की का रेप कर उसे मार डालने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। पांच साल के ट्रायल के बाद यह तो तय हो गया था की उन पर लगा वह आरोप झूठा था, लेकिन फ़िर भी उन्हें आजाद नहीं किया गया, क्योंकि अ़ब उन पर एक अन्य कानून के उलंघन का दोष लग चुका था।
अदालत में अपने मामले की अपील के लिए वह जमानत की रकम नहीं चुका पाए थे। इस आपराध के लिए उन्हें पांच साल और जेल में काटने पड़े। १० साल बाद अब बॉम्बे हाई कोर्ट ने इसे दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए सरकार समेत निचली अदालत को भी फटकर लगाई है। साथ ही माली को एक लाख रूपये मुआवजा देने के लिए कहा है। क्या बापू माली को हम भाग्यशाली करार देंगे क्योंकि अंततः उन्हें न्याय मिला, सत्य की जीत हुई और we आरोप से बाइज्जत बरी हुए?
दरअसल यह तय कर पाना मुश्किल है की माली देश की न्याय प्रणाली का शिकार दुर्भाग्यशाली इन्सान है या सौभाग्यशाली। पर इतना तय है की इस हाल से गुजरने वाला वह अकेला व्यक्ति नहीं है। देश में हजारों लोग अ़ब भी अलग-अलग जेलों में (मुंबई समेत ) बिना सुनवाई अपनी जिन्दगी काटने को मजबूर है, उनकी इस सजा का कोई अंत नहीं दीखता है। इसके बावजूद नहीं देखता की प्रधानमंत्री तक अंडर ट्रायल कैदियों को लेकर अपना कंसर्न जाता चुके है और जल्द से जल्द जरुरत के अनुसार करवाई किए जाने की बात कह चुके है।
माली ने लगभग उम्रकैद (पांच साल और जेल में बिताने पड़ते तो) ही कटी कटी है। अपनी युवा अवस्था के दस साल वह किसी कारोबार या नौकरी में लगा कर जिन्दगी की तस्वीर बदल सकता था, लेकिन इसकी जगह वह जेल की चारदीवारियों में बंद रहा। वह अ़ब प्रौढावस्था में है। जाहिर है, एक पुरा दशक दीन-दुनिया से बेखबर रहने के बाद उसे बहार की दुनिया से तालमेल बिठाने में समय लगेगा। इस समय का मुआवजा कौन भरेगा? उन १० सालों के खुबसूरत हो सकने वाले पलों, हँसी के संभावित क्षणों और ना निभाई जा सकी जिम्मेदारियों का मुआवजा कौन भरेगा? क्या एक लाख रूपये की रकम उस नष्ट हुए अतीत की भरपाई कर देगी?
अदालतें कई बार अपने ही गिरेबान में झाँकने की जरुरत की बात कहती है। न्याय प्रणाली के सुधारे जाने के लिए सरकार की ओर से जरुरी कदम उठाने की आवश्यकता पर बल देती है। इस मामले में भी जस्टिस बिलाल नाजकी ओर जस्टिस ऐ.आर.जोशी की डिविजन बेंच ने ये कहा है कि यह मामला ऐसे सिस्टम की ओर इशारा करता है जिसे ठीक किए जाने की जरुरत है। यह इशारा भी कोई पहली बार नहीं किया गया है। पहले भी कई बार इस बारे में कई तरह के दिशा निर्देश दिए जाते रहे है। पर हमारी जेलों में बापू माली जैसे अंडर ट्रायलों या बिना ट्रायल रखे गए लोगों की संख्या कम नहीं होती।
यह कैसी आयरनी है की न्याय प्रदान करने के लिए बने गई प्रणाली स्वयं अन्याय का किला बन जाती है! की, हम न्याय कि प्रक्रिया शुरू करते है ओर वह अन्याय में बदल जाता है। हम न्याय के नाम पर सैकड़ों पन्ने जटिल कारवाइयों से रंग देते है, पर यह सुनिश्चित नहीं कर पाते कि उन जटिलताओं में उलझ कर कोई ख़ुद अन्याय का शिकार न हो जाए। बापू माली के केस ने एक बार फ़िर से जिस बहस को जिन्दा किया है, काश कि उस बहस की उम्र कम हो ओर उसका अंत सुखद हो
अदालत में अपने मामले की अपील के लिए वह जमानत की रकम नहीं चुका पाए थे। इस आपराध के लिए उन्हें पांच साल और जेल में काटने पड़े। १० साल बाद अब बॉम्बे हाई कोर्ट ने इसे दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए सरकार समेत निचली अदालत को भी फटकर लगाई है। साथ ही माली को एक लाख रूपये मुआवजा देने के लिए कहा है। क्या बापू माली को हम भाग्यशाली करार देंगे क्योंकि अंततः उन्हें न्याय मिला, सत्य की जीत हुई और we आरोप से बाइज्जत बरी हुए?
दरअसल यह तय कर पाना मुश्किल है की माली देश की न्याय प्रणाली का शिकार दुर्भाग्यशाली इन्सान है या सौभाग्यशाली। पर इतना तय है की इस हाल से गुजरने वाला वह अकेला व्यक्ति नहीं है। देश में हजारों लोग अ़ब भी अलग-अलग जेलों में (मुंबई समेत ) बिना सुनवाई अपनी जिन्दगी काटने को मजबूर है, उनकी इस सजा का कोई अंत नहीं दीखता है। इसके बावजूद नहीं देखता की प्रधानमंत्री तक अंडर ट्रायल कैदियों को लेकर अपना कंसर्न जाता चुके है और जल्द से जल्द जरुरत के अनुसार करवाई किए जाने की बात कह चुके है।
माली ने लगभग उम्रकैद (पांच साल और जेल में बिताने पड़ते तो) ही कटी कटी है। अपनी युवा अवस्था के दस साल वह किसी कारोबार या नौकरी में लगा कर जिन्दगी की तस्वीर बदल सकता था, लेकिन इसकी जगह वह जेल की चारदीवारियों में बंद रहा। वह अ़ब प्रौढावस्था में है। जाहिर है, एक पुरा दशक दीन-दुनिया से बेखबर रहने के बाद उसे बहार की दुनिया से तालमेल बिठाने में समय लगेगा। इस समय का मुआवजा कौन भरेगा? उन १० सालों के खुबसूरत हो सकने वाले पलों, हँसी के संभावित क्षणों और ना निभाई जा सकी जिम्मेदारियों का मुआवजा कौन भरेगा? क्या एक लाख रूपये की रकम उस नष्ट हुए अतीत की भरपाई कर देगी?
अदालतें कई बार अपने ही गिरेबान में झाँकने की जरुरत की बात कहती है। न्याय प्रणाली के सुधारे जाने के लिए सरकार की ओर से जरुरी कदम उठाने की आवश्यकता पर बल देती है। इस मामले में भी जस्टिस बिलाल नाजकी ओर जस्टिस ऐ.आर.जोशी की डिविजन बेंच ने ये कहा है कि यह मामला ऐसे सिस्टम की ओर इशारा करता है जिसे ठीक किए जाने की जरुरत है। यह इशारा भी कोई पहली बार नहीं किया गया है। पहले भी कई बार इस बारे में कई तरह के दिशा निर्देश दिए जाते रहे है। पर हमारी जेलों में बापू माली जैसे अंडर ट्रायलों या बिना ट्रायल रखे गए लोगों की संख्या कम नहीं होती।
यह कैसी आयरनी है की न्याय प्रदान करने के लिए बने गई प्रणाली स्वयं अन्याय का किला बन जाती है! की, हम न्याय कि प्रक्रिया शुरू करते है ओर वह अन्याय में बदल जाता है। हम न्याय के नाम पर सैकड़ों पन्ने जटिल कारवाइयों से रंग देते है, पर यह सुनिश्चित नहीं कर पाते कि उन जटिलताओं में उलझ कर कोई ख़ुद अन्याय का शिकार न हो जाए। बापू माली के केस ने एक बार फ़िर से जिस बहस को जिन्दा किया है, काश कि उस बहस की उम्र कम हो ओर उसका अंत सुखद हो
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें
Aap sabhi bhaiyo & bahno se anurodh hai ki aap sabhi uchit comment de............
jisse main apne blog ko aap sabo ke samne aur acchi tarah se prastut kar saku......