कवि सम्मलेन का आयोजन कोई हँसी-ठट्ठा नहीं। इसके लिए एक अदद संयोजक की दरकार हुआ करती है। वह अनुभवी, शातिर, घुन्नस और घाघ हो,फ़िर तो आयोजन की बल्ले-बल्ले ही समझिए। कोई आयोजक अथवा उसकी आयोजन समिति चाहे कितनी ही बड़ी हो, उसने संयोजक की उपेक्षा की तो हुआ उसके कवि सम्मलेन का बंटाधार। वह अपनी मुण्डियाँ पटक-पटक के लाख जोर लगा ले, कार्यक्रम फ्लॉप होके रहेगा। डॉन को पकड़ना तो तब भी मुमकिन है, पर संयोजक बिन कवि सम्मलेन का आयोजन नामुमकिन है। संयोजक बिन सब सून। यह संयोजक नामधारी महान आत्मा ही तो है, जो कवियों को 'कम सून' का न्योता भेजती है। तब कविगण मानसून की मानिंद सम्मलेन के मंच पर बरसने लग पड़ते है।
सच माने तो कवि सम्मलेन का संयोजक कवि और आयोजक के बीच का मध्यम है। वह परम ज्ञानी, अनुभवी और अक्लमंद होता है। अज्ञानी जन, जिनकी भाषा परिस्कृत नहीं हुआ करती , वे ही उसकी आलोचना करते है। संयोजक नमक जीव अपनी चाल चलता रहता है। जो संयोजक की परवाह नहीं करते, वह उनकी नहीं करता। चाहे वे कितने बड़े महाकवि ही क्यों न हो।मेरे शहर के एक उप्नाम्धन्य कवि दूरदर्शन के एक कवि सम्मलेन में धुँआधार जम गए। उसी रोज से उन्होंने शहर के नामचीन संयोजक को घास डालनी बंद कर दी। संयोजक बोला, ' उड़ ले बेटा, लोगबाग तुम्हारा पता और फ़ोन नम्बर तो मुझसे ही पूछेंगे! मैं भी देखता हु, साल की कितने आयोजन निपटा पाते हो।' और वास्तव में उस संयोजक ने कवि जी की वाट लगा दी। कविवर सचमुच ही महीने दो महीने में निपट गए। एक रोज मेरे पास रोते हुए आए। कहने लगे, ' यार यह संयोजक तो निहायत धूर्त किस्म का आदमी है। इसने वह-वह फोर्मुले निकाले है कि मेरी खटिया तो बुनने से पहले ही खड़ी हो गई है।' कवि महोदय इनते पर ही नहीं रुके, शेष और जो कुछ भी बका, वह कविसम्मेलनी वाचिक परम्परा का अंग था। अंग भी ऐसा जिसमे खुलेपन की बहुतायत थी और जो लिखने योग्य कतई नहीं है। बहरहाल, भरपूर शोधोपरांत मुझे उस कवि सम्मेलनी संयोजक के कुछ कवि निपटाऊ वाकयों की जानकारी हो ही गई है। लीजिए, आप भी मुलाहिजा फरमाइए और वाह-वाह कीजिए।
वाकया नम्बर एक : अपने कविवर को बुलाने के लिए किसी आयोजक का फ़ोन उस संयोजक के पास पहुँचता है,'भाईजी, आपके शहर में एक फलां नाम के कवि है। अच्छा सुनते है। उनसे संपर्क हो सकेगा क्या? हमारे यहाँ अमुक तिथि को आयोजन है। इस वर्ष आयोजन समिति उन्हें बुलाने का मन बना रही है। हमने उन्हें टीवी पर देखा है। वो कितने पैसे में उपलब्ध हो सकेंगे?' संयोजक, 'हाँ है तो। अपने बरे ही खासुलखास है जी। हामी ने उनको पहली बार मंच दिया था। अच्छा लिखते है। पर आपके आयोजन के योग्य नहीं है। थोड़ा साहित्यिक है। गोष्ठियों में खूब जमते है। मगर भीड़ को सम्हालना तो और ही बात है।'
वाकया नम्बर दो : इस नामचीन संयोजक ने दुसरे आयोजक को कविवर के बरे में जानकारी कुछ इस तरह से दी, ' कवि ठीक है। पर जरा महंगे है। जितना लेते है, उतना काम नहीं कर पाते। उनके जितनी राशिः में तो चार जमू कवि एडजस्ट किए जा सकते है।' तीसरे आयोजक को बताया,'अजी, वे इन दिनों तूल्लानंद हो रहे है। ग्लैमर आदमी को पागल बना देता है। अभी मेरे एक आयोजन में थे। इतनी चढ़ा ली की चार लाइने भी ठीक से नहीं पढ़ पाए। हूट हो गए। फ़िर भी भइया, उनको बुलाना ही चाहो तो पता वगैरह बताए देता हु। स्वयं संपर्क कर लो। मुझे बीच में मत डालना। मैं उनकी गारंटी नहीं ले सकता।' आयोजक यह सुनते ही भाग खड़ा हुआ।
अभी तो मैंने कुछ नमूने गिनाए है। लिखने बैठूं, तो एक महाग्रंथ तैयार हो जाएगा। ग्रन्थ का नाम होगा, '१००१ कवि निपटाऊ नुस्खे' इन संयोजक महोदय की विशेषता यह है कि वह स्वयं कवि नहीं। हाँ, अपने आप को कवि उर्वरक अवश्य कहते है। सही बात है। अगर गोबर का सहयोग न हो, तो नवोदित बीज-पौधे ही नहीं, महावृक्ष भी इस धरती पर उगने तो तरस जाए।
सच माने तो कवि सम्मलेन का संयोजक कवि और आयोजक के बीच का मध्यम है। वह परम ज्ञानी, अनुभवी और अक्लमंद होता है। अज्ञानी जन, जिनकी भाषा परिस्कृत नहीं हुआ करती , वे ही उसकी आलोचना करते है। संयोजक नमक जीव अपनी चाल चलता रहता है। जो संयोजक की परवाह नहीं करते, वह उनकी नहीं करता। चाहे वे कितने बड़े महाकवि ही क्यों न हो।मेरे शहर के एक उप्नाम्धन्य कवि दूरदर्शन के एक कवि सम्मलेन में धुँआधार जम गए। उसी रोज से उन्होंने शहर के नामचीन संयोजक को घास डालनी बंद कर दी। संयोजक बोला, ' उड़ ले बेटा, लोगबाग तुम्हारा पता और फ़ोन नम्बर तो मुझसे ही पूछेंगे! मैं भी देखता हु, साल की कितने आयोजन निपटा पाते हो।' और वास्तव में उस संयोजक ने कवि जी की वाट लगा दी। कविवर सचमुच ही महीने दो महीने में निपट गए। एक रोज मेरे पास रोते हुए आए। कहने लगे, ' यार यह संयोजक तो निहायत धूर्त किस्म का आदमी है। इसने वह-वह फोर्मुले निकाले है कि मेरी खटिया तो बुनने से पहले ही खड़ी हो गई है।' कवि महोदय इनते पर ही नहीं रुके, शेष और जो कुछ भी बका, वह कविसम्मेलनी वाचिक परम्परा का अंग था। अंग भी ऐसा जिसमे खुलेपन की बहुतायत थी और जो लिखने योग्य कतई नहीं है। बहरहाल, भरपूर शोधोपरांत मुझे उस कवि सम्मेलनी संयोजक के कुछ कवि निपटाऊ वाकयों की जानकारी हो ही गई है। लीजिए, आप भी मुलाहिजा फरमाइए और वाह-वाह कीजिए।
वाकया नम्बर एक : अपने कविवर को बुलाने के लिए किसी आयोजक का फ़ोन उस संयोजक के पास पहुँचता है,'भाईजी, आपके शहर में एक फलां नाम के कवि है। अच्छा सुनते है। उनसे संपर्क हो सकेगा क्या? हमारे यहाँ अमुक तिथि को आयोजन है। इस वर्ष आयोजन समिति उन्हें बुलाने का मन बना रही है। हमने उन्हें टीवी पर देखा है। वो कितने पैसे में उपलब्ध हो सकेंगे?' संयोजक, 'हाँ है तो। अपने बरे ही खासुलखास है जी। हामी ने उनको पहली बार मंच दिया था। अच्छा लिखते है। पर आपके आयोजन के योग्य नहीं है। थोड़ा साहित्यिक है। गोष्ठियों में खूब जमते है। मगर भीड़ को सम्हालना तो और ही बात है।'
वाकया नम्बर दो : इस नामचीन संयोजक ने दुसरे आयोजक को कविवर के बरे में जानकारी कुछ इस तरह से दी, ' कवि ठीक है। पर जरा महंगे है। जितना लेते है, उतना काम नहीं कर पाते। उनके जितनी राशिः में तो चार जमू कवि एडजस्ट किए जा सकते है।' तीसरे आयोजक को बताया,'अजी, वे इन दिनों तूल्लानंद हो रहे है। ग्लैमर आदमी को पागल बना देता है। अभी मेरे एक आयोजन में थे। इतनी चढ़ा ली की चार लाइने भी ठीक से नहीं पढ़ पाए। हूट हो गए। फ़िर भी भइया, उनको बुलाना ही चाहो तो पता वगैरह बताए देता हु। स्वयं संपर्क कर लो। मुझे बीच में मत डालना। मैं उनकी गारंटी नहीं ले सकता।' आयोजक यह सुनते ही भाग खड़ा हुआ।
अभी तो मैंने कुछ नमूने गिनाए है। लिखने बैठूं, तो एक महाग्रंथ तैयार हो जाएगा। ग्रन्थ का नाम होगा, '१००१ कवि निपटाऊ नुस्खे' इन संयोजक महोदय की विशेषता यह है कि वह स्वयं कवि नहीं। हाँ, अपने आप को कवि उर्वरक अवश्य कहते है। सही बात है। अगर गोबर का सहयोग न हो, तो नवोदित बीज-पौधे ही नहीं, महावृक्ष भी इस धरती पर उगने तो तरस जाए।
टिप्पणियाँ
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Aap sabhi bhaiyo & bahno se anurodh hai ki aap sabhi uchit comment de............
jisse main apne blog ko aap sabo ke samne aur acchi tarah se prastut kar saku......