इस्लाम धर्म के मुलभुत पांच सिधांत है : (१) 'तौहीद' इश्वर को एक एवं सर्वशक्तिमान मानना यानि एकेश्वरवाद (२) 'नमाज' चौबीस घंटो में पांच बार आवश्यक रूप से इश्वर की आराधना करना (३) 'रोजा' रमजान में इश्वर के लिए उसी के आदेशानुसार खाना-पीना एवं भूखे-प्यासे रह कर हर बुराई से दूर रहना (४) 'जकात' पुरा वर्ष बीतने पर अगर सोना या बावन तोले चांदी या उसके बराबर रुपया बचता है तो उसमे से ढाई प्रतिशत आंवश्यक रूप से निर्धनों में बाँटना (५) 'हज' जिस आदमी पर जकात फर्ज है और वह मक्का शहर की यात्रा का व्यय वहन कर सकता है, तो जीवन में एक बार मक्के की तीर्थ यात्रा करना।
रमजान का माह इस्लाम धर्म में सबसे अधिक पवित्र मना जाता है। इस माह में मुस्लमान चाँद देखकर रोजे रखना प्रारम्भ करते है और अगला चाँद देखकर ही समाप्त करके 'ईद' का त्यौहार बरी धूम-धाम से मानते है। 'रोजा' फारसी जबान का शब्द है। अरबी में रोजे को 'सेम' कहते है, जिसका अर्थ है खाना-पीना छोरना। इस माह में मुस्लमान भोर होने से पहले जब रात अपने अन्तिम पराव पर होती है, उस समय से लेकर सूर्यास्त तक कुछ नहीं खाते-पीते। सूर्यास्त होते ही खजूर, मीठी कोई बस्तु अथवा पानी से अपना रोजा इफ्तारते है। इफ्तार अरबी शब्द है जिसका अर्थ है खाना-पीना।
वैसे अगर देखा जाए तो संसार में व्रत, रोजा अथवा उपवास कुछ भी कह लीजिए, सभी धर्मो में माना जाता है है। प्राचीनतम धार्मिक ग्रंथो - पवित्र वेद, बाइबिल, तौरात, जबूर आदि में 'रोजा' अपनी अलग-अलग व्याख्याओ के साथ मिलता है। और सभी धर्मो में इसका अपना विशेष महत्व है। लेकिन सभी धर्मो में 'रोजे' का तात्पर्य एक ही है - आत्मा की शुद्धी एवं सशक्तिकरण।'
इस्लाम धर्म में भी रमजान माह में केवल भूखा- प्यासा रहना ही लक्ष्य नहीं है, बल्कि इसके माध्यम से आत्म संयम द्वारा अपनी आत्मिक शक्ति को बढाकर परमात्मा के समीप होना है। सम्पूर्ण रोजे का अर्थ यही है की हम हर बुराई से हटकर इश्वर द्वारा दिए गए आदेशो का सही ढंग से पालन करने वाले बन जाए।
मुहम्मद साहब का कथन है की रोजा तुम्हारे सम्पूर्ण शरीर का है, तुम्हारे हृदय का रोजा यह है की उसके अंदर कोई ग़लत भावना न हो। मस्तिष्क से ग़लत न सोचे, आंख से ग़लत चीजे न देखे, हाथ से कोई ग़लत काम न करे, जुबान से कोई ग़लत बात न कहे, पांव किसी ग़लत जगह एवं ग़लत काम के लिए न उठे। अगर शरीर के किसी अंग का रोजा टूटता है तो तुम्हारा रोजा पूर्ण नहीं होगा।
मुहम्मद साहब का कथन यह भी है की रोजा तुम्हारे लिए नरक की आग से बचाने के लिए ढाल का काम करता है , जब तक तुम उसे तोड़ न डालो। लोगो ने पूंछा, तोड़ डालने का क्या अर्थ है। आपने कहाँ, जब तुम एक दुसरे की बुराई करोगे और लढाई-झगडा करोगे तो तुम्हारा रोजा टूट जाएगा, और जब ढाल टूट जाती है तो वह इन्सान को नहीं बचा सकती।
रमजान माह में जो लोग रोजा रखते है और बुराई से दूर नहीं रहते, ऐसे लोगों के बारे में मुहम्मद साहब का कथन है कि 'बहुत से लोग रोजा रखते है, लेकिन नमाज नहीं पढ़ते, बुराई से नहीं बचते, झूट बोलते है, दुसरो को सताते है, बेईमानी करते है, चोरी करते है, कत्लो-गारत करते है, फसाद फैलाते है, एक -दुसरे के खिलाफ नफरत उगलते है, गरीब और बेसहारा लोगों पर जुल्म करते है और आपस में लढाई-झगडा करते है, तो इश्वर को उनका भूखा और प्यासा रहने से कोई असर नहीं परता। इश्वर ऐसे लोगों कि परवाह नहीं करता। जबकि सच्चे रोजेदार की दुआ इश्वर तत्काल कुबूल करता है, विशेष रूप से इफ्तार (शाम) और सहरी (भोर) के समय।'
मुहम्मद साहब ने यह भी कहा है कि सहरी द्वारा अपने रोजो को शक्तिशाली बना लिया करो जिससे दिन में इबादत एवं नेकी का कार्य करने में कोई दिक्कत न हो और अधिक भूख एवं प्यास के कारन क्रोध कि स्थिति उत्पन्न न हो, जो कि रोजे और समाज दोनों के लिए घटक है। रोजा नाम ही संयम है।
रमजान का माह इस्लाम धर्म में सबसे अधिक पवित्र मना जाता है। इस माह में मुस्लमान चाँद देखकर रोजे रखना प्रारम्भ करते है और अगला चाँद देखकर ही समाप्त करके 'ईद' का त्यौहार बरी धूम-धाम से मानते है। 'रोजा' फारसी जबान का शब्द है। अरबी में रोजे को 'सेम' कहते है, जिसका अर्थ है खाना-पीना छोरना। इस माह में मुस्लमान भोर होने से पहले जब रात अपने अन्तिम पराव पर होती है, उस समय से लेकर सूर्यास्त तक कुछ नहीं खाते-पीते। सूर्यास्त होते ही खजूर, मीठी कोई बस्तु अथवा पानी से अपना रोजा इफ्तारते है। इफ्तार अरबी शब्द है जिसका अर्थ है खाना-पीना।
वैसे अगर देखा जाए तो संसार में व्रत, रोजा अथवा उपवास कुछ भी कह लीजिए, सभी धर्मो में माना जाता है है। प्राचीनतम धार्मिक ग्रंथो - पवित्र वेद, बाइबिल, तौरात, जबूर आदि में 'रोजा' अपनी अलग-अलग व्याख्याओ के साथ मिलता है। और सभी धर्मो में इसका अपना विशेष महत्व है। लेकिन सभी धर्मो में 'रोजे' का तात्पर्य एक ही है - आत्मा की शुद्धी एवं सशक्तिकरण।'
इस्लाम धर्म में भी रमजान माह में केवल भूखा- प्यासा रहना ही लक्ष्य नहीं है, बल्कि इसके माध्यम से आत्म संयम द्वारा अपनी आत्मिक शक्ति को बढाकर परमात्मा के समीप होना है। सम्पूर्ण रोजे का अर्थ यही है की हम हर बुराई से हटकर इश्वर द्वारा दिए गए आदेशो का सही ढंग से पालन करने वाले बन जाए।
मुहम्मद साहब का कथन है की रोजा तुम्हारे सम्पूर्ण शरीर का है, तुम्हारे हृदय का रोजा यह है की उसके अंदर कोई ग़लत भावना न हो। मस्तिष्क से ग़लत न सोचे, आंख से ग़लत चीजे न देखे, हाथ से कोई ग़लत काम न करे, जुबान से कोई ग़लत बात न कहे, पांव किसी ग़लत जगह एवं ग़लत काम के लिए न उठे। अगर शरीर के किसी अंग का रोजा टूटता है तो तुम्हारा रोजा पूर्ण नहीं होगा।
मुहम्मद साहब का कथन यह भी है की रोजा तुम्हारे लिए नरक की आग से बचाने के लिए ढाल का काम करता है , जब तक तुम उसे तोड़ न डालो। लोगो ने पूंछा, तोड़ डालने का क्या अर्थ है। आपने कहाँ, जब तुम एक दुसरे की बुराई करोगे और लढाई-झगडा करोगे तो तुम्हारा रोजा टूट जाएगा, और जब ढाल टूट जाती है तो वह इन्सान को नहीं बचा सकती।
रमजान माह में जो लोग रोजा रखते है और बुराई से दूर नहीं रहते, ऐसे लोगों के बारे में मुहम्मद साहब का कथन है कि 'बहुत से लोग रोजा रखते है, लेकिन नमाज नहीं पढ़ते, बुराई से नहीं बचते, झूट बोलते है, दुसरो को सताते है, बेईमानी करते है, चोरी करते है, कत्लो-गारत करते है, फसाद फैलाते है, एक -दुसरे के खिलाफ नफरत उगलते है, गरीब और बेसहारा लोगों पर जुल्म करते है और आपस में लढाई-झगडा करते है, तो इश्वर को उनका भूखा और प्यासा रहने से कोई असर नहीं परता। इश्वर ऐसे लोगों कि परवाह नहीं करता। जबकि सच्चे रोजेदार की दुआ इश्वर तत्काल कुबूल करता है, विशेष रूप से इफ्तार (शाम) और सहरी (भोर) के समय।'
मुहम्मद साहब ने यह भी कहा है कि सहरी द्वारा अपने रोजो को शक्तिशाली बना लिया करो जिससे दिन में इबादत एवं नेकी का कार्य करने में कोई दिक्कत न हो और अधिक भूख एवं प्यास के कारन क्रोध कि स्थिति उत्पन्न न हो, जो कि रोजे और समाज दोनों के लिए घटक है। रोजा नाम ही संयम है।
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Aap sabhi bhaiyo & bahno se anurodh hai ki aap sabhi uchit comment de............
jisse main apne blog ko aap sabo ke samne aur acchi tarah se prastut kar saku......