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ना आना इस देश लाडो...

एक हफ्ते से घरों में नवरात्र की पूजा चल रही है। अष्टमी का बेसब्री से इंतजार है और आज अष्टमी भी आ गई। परंपराओं के अनुसार आज घर-घर में कन्याओं का पूजन होगा। इसके लिए कन्याओं की एडवांस बुकिंग हो चुकी है। शायद इस बार ढूंढने से आपको पूजने के लिए कन्याएं जरूर मिल जाएंगी, लेकिन आगे ऐसा आसानी से हो पाएगा कहना मुश्किल है। देश के कई हिस्सों में पहले ही हजार पुरुषों पर महिलाओं की संख्या 887-900 के खतरनाक स्तर तक आ गई है। देश के तमाम प्राइवेट हॉस्पिटल और घर पर होने वाली डिलीवरी के आंकड़ों को जोड़ लें तो यह अंतर कहीं ज्यादा नजर आएगा। एक तरफ कन्याओं को पूजने और दूसरे तरफ कोख में ही मिटा देने के दुष्चक्र की कहानी भी अजीब है। ये समाज का कौन सा चेहरा है जो एक तरफ साल में दो बार बेटियों की पूजा करता है, दूसरी तरफ अपने घर में बेटियों की किलकारी से उतना ही परहेज रखता है। नवरात्र के पवित्र दिनों में लोग दुर्गा की पूजा तो करते रहे, लेकिन दुर्गा रूप की आवाज इन दिनों में कमजोर से कमजोर होती गई। इस दौरान लड़कियों की मुकाबले लड़कों की पैदाईश ज्यादा हुई। रूठ रही है नन्ही देवियां नन्ही देवियां अब रूठ रही हैं। कहीं जन

रामलीला की अनोखी लीलाएँ

एक बार रामलीला मंच पर सीता स्वंयवर का दृश्य चल रहा था। बीच में भगवन शंकर का धनुष रखा हुआ था। सभी राजा उसे उठाने में असफल होने का अभिनय कर रहे थे। दरबार में उपस्थित रावण को भी इसी प्रकार अभिनय करना था। मगर उस दिन किसी बात पर उसका रामलीला के प्रबंधक से झगडा हो गया था, इसलिए वह रामलीला को बिगाड़ने पर तुला हुआ था। उसने धनुष को एक झटके में उठाकर तोड़ डाला और जोर से हुनकर लगे - अरे जनक, मैंने इस धनुष को तोड़ दिया। बुला अपनी सीता को। करा उससे मेरा विवाह। मंच पर उपस्थित सभी कलाकार आश्चर्यचकित रह गए। अ़ब क्या हो? तभी जनक का अभिनय करने वाले कलाकार को कुछ सूझा। उसने अपने दरबारियों की ओर देखते हुए कहा - अरे मूर्खों, तुम यह कौन सी धनुष ले आए। असली शिव धनुष तो अंदर ही रखा हुआ है। उसे लेकर आओ। इसके बाद परदा गिरा दिया गया ओर तब कहीं जाकर स्थिति संभली। एक कसबे की रामलीला में तो इससे भी रोचक घटना घटी। लक्ष्मण मूर्छा के प्रसंग में भगवन राम मूर्छित लक्ष्मण को अपनी गोद में लिटाये विलाप कर रहे थे। हनुमान जडी-बूटी लेने गए हुए थे । उनके आने में विलंब हो रहा था। राम बने कलाकार ने अपने सम्पूर्ण संवाद पुरे कर लिए।

कन्या को पूजने का पर्व है नवरात्र

भारतीय ज्योतिष शास्त्र के अनुसार नक्षत्रों की गणना आश्विन नक्षत्र से आरंभ होती है। इस आधार पर आश्विन मास ज्योतिष वर्ष का प्रथम मास माना जाता है। दूसरी ओर सामान्य जन के लिए हिंदू कैलेंडर में संवत्सर या नए साल की शुरुआत चैत्र मास से होती है। इस प्रकार चैत्र नवरात्र की तरह आश्विन नवरात्र के साथ भी नवीन समय के शुभारंभ की भावना जुड़ी हुई है। चैत्र ओर आश्विन - इन दोनों के नवरात्र ऋतुओं के संधिकाल में पड़ते है। संधिकाल के समय देवी की उपासना का विशेष महत्व है। जिस प्रकार देवी ने प्रकट होकर अनेक राक्षसों का वध किया, उसी प्रकार शक्ति की पूजा-उपासना से ऋतुओं के संधिकाल में होने वाले रोग-व्याधियों पर मनुष्य विजय प्राप्त करता है। यही नवरात्र का वैज्ञानिक महत्व है। इन दोनों ऋतू संधिकाल के नौ-नौ दिनों (दोनों नवरात्र ) को विशिष्ट पूजा के लिए महत्वपूर्ण माना गया है। जैसा किहम जनते है, इस अवधि में हम खान-पान और आचार-व्यव्हार में यथासंभव संयम और अनुशासन का पालन करते है। नवरात्र पर्व के साथ दुर्गावतरण कि कथा तथा कन्या -पूजा का विधान जुदा हुआ है। यह उसका धार्मिक और सामाजिक पक्ष है। हमारे शास्त्रों में बालि

कभी घी घना, कभी मुट्ठी भर चना

पिछले कुछ समय से मंदी की मार से पुरा विश्व त्रस्त है। भारत में भी इसकी तकलीफ महसूस की जा रही है। इसके कारन आत्महत्याएं भी हो रही है। कई परिवार उजड़ गए है। क्या यह मंदी इतनी बेबस और लाचार कर देने वाली है की मानव अपनी ही जन का दुश्मन बन जाए? की इस प्रकृति के साधारण जीवों से भी गया-गुजरा हो जाए? इस संसार में दुसरे प्राणियों का और कोई ऐसा उदाहरण नहीं मिलता जिसमें किसी जीव ने दुखी हो कर खुदकुशी कल ली हो- सिवाय मनुष्य के। चावार्क का एक सूत्र है कि जब तक जिएँ सुख से जिएँ, इसके लिए चाहे ऋण लेकर घी पिएँ। इस नाशवान देह के मरने के बाद पुनर्जन्म किसने देखा। वह चावार्क भी यदि आज जिन्दा होते तो शायद वे भी इस मंदी की मार से बच नहीं पाते। शायद सोचते की काश मैं लोगों को कर्ज लेने के लिए नहीं उकसाता। कर्ज ले कर हसीं जिन्दगी जीने का ख्वाब ही अ़ब कई लोगों को अर्श से फर्श पर ले आया है। ऐसे में डिप्रेशन में आ जाना तो सामान्य बात है। परन्तु इसका समाधान आत्महत्या तो कदापि नहीं हो सकता। गीता में मोह के कारन अवसाद ग्रस्त अरुजुन को भगवन कृष्ण समझाते है कि जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु निश्चित है अरु जिसकी मृत्

कभी घी घना, कभी मुट्ठी भर चना

पिछले कुछ समय से मंदी की मार से पुरा विश्व त्रस्त है । भारत में भी इसकी तकलीफ महसूस की जा रही है । इसके कारन आत्महत्याएँ भी हो रही है । कई परिवार उजड़ गए है । क्या यह मंदी इतनी बेबस और लाचार कर देने वाली है की मानव अपनी ही जान का दुश्मन बन जाए ? की इस प्रकृति के साधारण जीवों से भी गया - गुजरा हो जाए ? इस संसार में दुसरे प्राणियों का और कोई ऐसा उदहारण नहीं मिलता जिसमें किसी जीव ने दुखी होकर खुदकुशी कर ली हो - सिवाय मनुष्य के । चावार्क का एक सूत्र है किजब तक जिएँ सुख से जिएँ , इसके लिए चाहे ऋण लेकर घी पिएँ । इस नाशवान देह के मरने के बाद पुनर्जन्म किसने देखा । वह चावार्क भी यदि आज जिन्दा होते तो शायद वे भी इस मंदी की मार से बच नहीं पते । शायद सोचते की काश मैं लोगों को कर्ज लेने के लिए नहीं उकसाता । कर्ज लेकर हसीन जिन्दगी जीने का ख्वाब ही अ़ब कई लोगों को अर्श से फर्श पे ले आया है । ऐसे में डिप्रेशन में आ जाना तो सामान्य बात ह

दूसरों से प्रभावित न होना ही वैराग्य है

इस जगत की हर वास्तु के साथ भय जुड़ा है। जिनके पास बहुत अधिक धन है, व्यवसाय अच्छा चल रहा है, उन्हें व्यवसाय में क्षति की आशंका रहती है। जो किसी स्पोर्ट्स में चैम्पियन है, उन्हें चैम्पियनशिप छीन जाने का कर लगा रहता है। इस धरती पर ऐसी कोई चीज नहीं जिसमे डर न हो। शास्त्रों में कहा गया है की केवल एक वास्तु है, जिसमें डर नहीं समाया होता - वह है वैराग्य। केवल वैराग्य में ही भय नहीं है। लेकिन वैराग्य है क्या? वैराग्य का अर्थ है किसी वास्तु के रंग में अपने मन को रंगने न देना। जगत में जो भी वस्तुएं है, मनुष्य कभी जानबूझकर और कभी अनजाने में उनकी ओर आकृष्ट होता है। हर चीज का अपना रंग है, अपना प्रभाव है। जब मनुष्य मन को इतना मजबूत बना ले की वह किसी भी रंग से प्रभावित नहीं हो, तब उस अवस्था को वैराग्य कहते है। वैराग्य का अर्थ सब कुछ छोड़कर भागना नहीं है। 'वैराग्य' का अर्थ पलायन नहीं है, वह दूसरे के द्वारा प्रभावित न होना है। कीचड़ में पैदा होने वाला कमल कीचड़ में रहता है, परन्तु फिरभी उसकी पंखुडियों पर कीचड़ नहीं लगता। इसी अवस्था को कह्नते है वैराग्य। इस वैराग्य की अवस्था में मनुष्य कब प्रतिष्

कहीं आप भी तो रिन्ग्जाईटी के शिकार तो नहीं

क्या जब आपका मोबाइल आपके पास नहीं होता तो आप बेचैन हो जाते है? क्या आप बार-बार अपना फ़ोन चेक करते हैं कि वो बज तो नहीं रहा? क्या आपको अपने मोबाइल कि घंटी तब भी सुने देती है, जबकि वो नहीं बज रहा होता है? अगर इन सवालों के जवाब 'हां' है, तो आप भी रिंग एन्ग्जाईटी के गिरफ्त में है। फोर्टिस हॉस्पिटल के सायकायट्रिस्ट डॉक्टर समीर मल्होत्रा के अनुसार रिंग एन्ग्जाईटी का सीधा मतलब है - मोबाइल को लेकर घबराहट या बेचैनी। इससे पीड़ित व्यक्ति हर वक्त यही सोचता रहता है कि इस समय उसे कौन कॉल कर रहा होगा। उसे किसी कॉल और मेसेज के मिस होने का भी डर लगा रहता है। जब भी आपके आसपास फ़ोन बजता है, तो आप तत्काल अपना फ़ोन चेक करते है कि कहीं आपकी कॉल तो नहीं आ रही। दरअसल जो लोग मोबाइल पर बेहद ज्यादा निर्भर रहते है, उनमे रिंग एन्ग्जाईटी के लक्षण पे जाते है। ऐसे लोग हर वक्त मोबाइल के बारे में कुछ न कुछ सोचते रहते है। यह समस्या उन लोगों में ज्यादा पाई जाती है, जो हर वक्त काम में उलझे रहते है, और मोबाइल कि घंटी उनकी इस बेचैनी को और भी ज्यादा बढ़ा देती है। ऐसे लोग किसी से ज्यादा मिलना जुलना पसंद नहीं करते, बल

नियम वो जिससे भगवान प्रसन्न हों

बात उन दिनों की है जब महाराज युधिष्ठिर इन्द्रप्रस्थ पर राज्य करते थे। रजा होने के नाते वे काफी दान आदि भी करते थे। धीरे-धीरे उनकी प्रसिद्धि दानवीर के रूप में फैलने लगी और पांडवों को इसका अभिमान होने लगा। कहते हैं कि भगवान दर्फारी है। आपने भक्तों का अभिमान तो उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं। एक बार कृष्ण इन्द्रप्रस्थ पहुंचे। भीम व अर्जुन ने युधिष्ठिर कि प्रशंसा शुरू की कि वे कितने बड़े दानी है। तब कृष्ण ने उन्हें बीच में ही टोक दिया और कहा, लेकिन हमने कर्ण जैसा दानवीर और नहीं सुना। पांडवों को यह बात पसंद नहीं आई। भीम ने पूछ ही लिया, कैसे? कृष्ण ने कहा कि समय आने पर बतलाऊंगा। बात आई गई हो गई। कुछ ही दिनों में सावन ऋतू प्रारम्भ हो गया व वर्षा कि झड़ी लग गई। उस समय एक याचक युधिष्ठिर के पास आया और बोला, महाराज! मैं आपके राज्य में रहने वाला एक ब्रह्मण हूँ और मेरा व्रत है कि बिना हवन किए कुछ भी नहीं खाता-पीता। कई दिनों से मेरे पास यज्ञ के लिए चंदन कि लकड़ी नहीं है। यदि आपके पास हो तो, मुझ पर कृपा करें, अन्यथा हवन तो पूरा नहीं ही होगा, मैं भी भूखा-प्यासा मर जाऊंगा। युधिष्ठिर ने तुंरत कोषागार के कर्मचा

सॉरी बोलना सीखा तो क्षमा करना भी सीखें

कुछ ही दिन पहले मेरे दो साल के भतीजे ने सॉरी बोलना सीखा है। वह जब भी कोई खिलौना या खाने-पीने की चीजें फेंकता है तो किसी के टोकने से पहले ही दोनों हाथों से अपने कान पकड़कर सॉरी बोलता है। बहुत अच्छा लगता है उसे ऐसा करते देखकर। यह कहने का भी मन नहीं करता की तुमने सामान फेंका क्यों? उसके इस एक शब्द से चेहरे पर मुस्कराहट आ जाती है। पर कल जब मैं ऑफिस के लिए निकला तो इस शब्द की ऐसी दुर्गति देखी कि मन खिन्न हो उठा। हमारी बिल्डिंग में रहने वाली एक सफाई पसंद महिला एक अनजान व्यक्ति से झगड़ रही थी। वह शख्स बार-बार सॉरी बोल रहा था, पर हमारी पडोसन थीं कि कुछ भी सुनने को यही तैयार नहीं थी। कुछ देर माजरा समझ में आया। वह शख्स किसी फ्लैट में कुरिएर देने जा रहा था और उस के जूतों में लगी मिटटी से सीढियाँ गन्दी हो गई थी। वह बार-बार सॉरी बोल रहा था, पर महिला झगडे पर उतारू थी। क्या उसको क्षमा करके दोबारा सीढियों कि सफाई नहीं कि जा सकती थी? मैं रस्ते भर सोचता रहा कि हमने सॉरी बोलना तो सीख लिया है, पर हमें क्षमा करना कब आएगा। अपनी गलती पर हम शर्मिंदा होते है और क्षमा मांगते है, पर जब किसी और की गलती होती है तो

दाल खाने के चक्कर में

ठाकुर साहब का दामाद आया है। घर की मुर्गी बहुत खुश है। उसकी जान बच गई। सास दामाद को दाल बना कर खिलाएगी। इज्जत का सवाल है। दामाद की खातिरदारी अच्छी होनी चाहिए ताकि उसे लगे की ससुराल में उसका पुरा सम्मान होता है। जिन संपन्न घरानों में यह कहावत आम तौर पर कही जाती थी - घर की मुर्गी दाल बराबर, आज उन घरानों में इस कहावत का इस्तेमाल वर्जित है - दाल की बेइज्जती होती है। दामाद जब अपने घर लौटा तो महीने भर अपनी ससुराल के गुण गता रहा, 'मैं जितने दिन रहा, सास जी ने रोज दोनों टाइम दाल बना कर खिलाई। नाश्ते में भी दालमोठ जरुर होती थी।' एक मध्यवर्गीय परिवार में रिश्ते की बात चल रही है। लड़के वाले इस बात पर जोड़ दे रहे है की बारातियों की खातिरदारी अच्छी होनी चाहिए। खाने में दाल जरुर होनी चाहिए। जब लड़के के पिता ने यह बात तीसरी बार कही तो लड़की का पिता चुप न रह सका, 'समधी जी, हम अपनी और से कोई कसर नहीं रखेंगे। लेकिन एक बात आपको तय करनी है, आपको दहेज़ चाहिए या दाल?' मेरे जैसे लोग, जिन्हें मुफ्त की पार्टियों में जाने का अच्छा अनुभव है, जानते है की बुफे में सबसे लम्बी लाइन चिकन के डोंगे के आगे

भक्तिभाव से भर देती है दुर्गापूजा

आजकल देवी दुर्गा का सबसे मान्य स्वरुप आठ हाथों वाली माँ दुर्गा की मूर्ति है, जो शेर पर सवार है। उनके दो हाथों को छोड़कर हर हाथ में अलग-अलग अस्त्र-शस्त्र है। शेष दोनों हाथों से वह भाला पकड़े हुए है, जो महिषासुर के छाती में घुसा हुआ है। दुर्गा पूजा के लिए तैयार की जाने वाली ज्यादातर मूर्तियों में देवी के साथ लक्ष्मी, सरस्वती, गणेश और कार्तिक को भी दर्शाया जाता है। इनमे से लक्ष्मी धन की देवी है। सरस्वती ज्ञान और बुद्धि की भगवती है। कार्तिक रूप के देवता है और गणेश के बिना किसी भी शुभ कार्य की शुरुआत नहीं हो सकती। ड्रम बजाना दुर्गा पूजा का अहम् अंग माना जाता है। ड्रम के कई प्रकार है, जिन्हें काफी पसंद किया जाता है। 'ढाक' ऐसा ही ड्रम है, जिसे कोलकाता के लोग खूब पसंद करते है। इसे षष्टी के दिन से ही बजाय जाता है। इसे एक तरफ़ मोटी और दूसरी तरफ़ पतली छड़ी से थाप दी जाती है। यूँ तो दुर्गा पूजा का आयोजन दस दिनों तक किया जाता है, लेकिन कोलकाता में मुख्य पूजा का आरंभ षष्टी की शाम से ही माना जाता है। इसके कुछ घंटों के बाद ही सप्तमी आरंभ हो जाती है। इन दिन माँ देवी में प्राण प्रतिष्ठा की जाती ह

महंगाई के दौर में सपने देखने का महत्व

इन दिनों मैं सुंदर-सुंदर सपने देख रहा हु। क्या करूँ, अ़ब दिन ही ऐसे आ गए है। बहुत सोचता हु की एक बार हिम्मत करके अपनी इच्छाएँ पूरी कर ही लूँ पर अफोर्ड नहीं कर पता। आखिर हैसियत भी तो होनी चाहिए। अ़ब तो दिन में किसी के सामने इच्छा प्रकट करने में डर लगने लगा है। सोचता हूँ कहीं सामने वाला यह न सोचने लग जाए की यह जरुर पागल हो गया है। सो सपने देख-देखकर काम चला रहा हु। अ़ब लाख सोचता हूँ कि सपने नहीं देखूं पर मन का क्या करूँ। मन पर कैसे काबू रखूं। उसने तो बहुत अच्छे-अच्छे दिन देखे है। पर अ़ब की बात अलग है। रात को बस ख्वाबों में उनके दीदार करता रहता हु। सुंदर-सुंदर सी गोल-मटोल... लाल-लाल खिला हुआ रंग.... आप चौंक गए न। आप भी बस... । आपकी सोच कभी सुंदर अभिनेत्रियों से आगे बढेगी ही नहीं। अरे भई, मैं तो अरहर की दाल और टमाटर की बात कर रहा हु। महंगाई के इस दौर में चिंतन-सुख पर निर्भरता बढ़ गई है। सुबह उठता हु तो रसोई का ताला खोलकर काम शुरू करता हु। ताला! आप हंसो मत, आजकल महंगाई इतनी हो गई है की यह सब जरुरी हो गया है। आजकल किसी का भरोसा नहीं है। कमरों के ताले लगाने का अ़ब कोई फायदा नहीं है। टीवी, फ्रिज

चाँद के साथ जो पैगामे खुशी लाती है

वर्ष २००९, तारीख़ २१ सितम्बर। आज हम सब ईदुलफितर मानाने जा रहे है। आप सबको ईद बहुत-बहुत मुबारक! इस वर्ष तो हम यह पर्व २१ सितम्बर को मना रहे है, लेकिन क्या पिछले वर्ष भी यह त्यौहार २१ सितम्बर को ही मनाया गया था? जैसे मकर संक्रांति हर साल १४ जनवरी को माने जाती है और क्रिसमस २५ दिसम्बर को आता है, उसी तरह क्या ईद भी हर साल २१ सितम्बर को ही माने जाती है? नहीं, पिछले वर्ष यह पर्व २१ सितम्बर को नहीं, बल्कि २ अक्टूबर को माने गया था। यह त्यौहार अंग्रजी कैलेंडर के अनुसार नहीं मनाया जाता , इसलिए हर वर्ष यह अलग-अलग अंग्रेजी तारीखों पर पड़ता है। कभी यह त्यौहार गर्मियों में आता है, तो कभी कड़कडाती सर्दियों में। और कभी बरसात में मनाया जाता है, तो कभी मौसमे-बहार में। इदुलफितर एक इस्लामी पर्व है, जिसे पूरी दुनिया में फैले इस्लाम धर्म के अनुयायी धूम-धाम से मानते है। जिस प्रकार ईसाईयों के पर्व किस्मस इत्यादि अंग्रेजी महीनों और तिथियों अर्थात ईस्वी संवत्सर के अनुसार तथा हिन्दुओं के पर्व भारतीय महीनों और तिथियों अर्थात विक्रम संवत्सर के अनुसार मनाए जाते है, उसी तरह से सभी इस्लामी पर्व अरबी या इस्लामी महीनों

शक्ति की आराधना की नौ रातें

या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थितः। नमस्तस्य नमस्तस्य नमस्तस्य नमो नमः। नवरात्र का पर्व आसुरी शक्ति पर देवी शक्ति की विजय का प्रतिक है। चैत्र तथा आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक के नौ दिन वासंतिक तथा शारदीय नवरात्र कहलाते है। आषाढ़ व माघ मास के यही दिन नवरात्र के रूप में कई शक्ति पीठों में मनाए जाते है, परन्तु उन्हें वैसी लोकप्रियता प्राप्त नहीं जैसी की वासंतिक तथा शारदीय नवरात्रों को है। इनमे आधाशक्ति दुर्गा की पूजा इन नौ रूपों में प्रतिपदा से नवमी तक की जाती है : शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी एवं सिधिदात्री। इन नौ शक्ति रूपों से युक्त होने के कारण इसे नवरात्र कहा गया है। भगवती आराधना के लिए महाशक्ति के दस महाविद्या रूप है - महाकाली, उग्रतारा, षोडशी (त्रिपुर सुंदरी), भुवनेश्वरी, छिन्नमस्ता, भैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी और कमला। जगत की सृष्टि करने के कारण भगवती दुर्गा ही जगजननी जगदम्बा है। दुर्गा ही चराचर प्राणियों में रहने वाली चेतना शक्ति है। निराश, हताश और दुखी लोगों का करुणामयी दुर्गा माँ ही सहारा ह

थैंक्स गाड, अ़ब सिर्फ़ लीला है.

भला हुआ, अ़ब सिर्फ़ रामलीला होती है, सच में वह सब नहीं है, जो सतयुग में हो चुका है। वरना बड़ी आफत हो जाती। रावण को मारने में ज्यादा कष्ट नहीं होता, दस नाकों का मालिक रावण आखिर कितनी नाकों में मास्क बाँधता, स्वाईन फ्लू से निपट लेता। लंका में विद्रोह होजाता, अरहर ने भाव नब्बे रूपये से ऊपर जाने पर। लंका की पब्लिक ही रावण को निपटा लेती। मंदोदरी रावण से कहती हुई पाई जाती - हे दशानन! आपके दस मुखों के लिए दाल के जुगाड़मेंट में लंका का खजाना खाली हो लिया है। दस मुखों के लिए टमाटर लाने के लिए और लोन नहीं मिल सकता, क्योंकि जिन सोने की इमारतों को आपने बनवाया था, उनकी ईएमआई चुकाने तक के लिए कुछ नहीं बचा है। रावण को ईएमआई वाले ही निपटा लेते। मौत से बचना आसन है, पर ईएमआई वसूलने वालों से बचना मुश्किल है। कर्ज ना चुकाने की वजह से ईएमआई वालों के हाथों पिट रहा होता रावण। ईएमआई वालों और रावण के संवाद कुछ यूँ होते - लंका जल गई है, वे सारी बिल्डिंगे जल गई है, जो हमने फाइनेंस की थी - ईएमआई वाले कहते। जी, इसमे मैं क्या कर सकता हु। आप अ़ब बदतमीजी से बात कर रहे है, लोन देते समय तो आप निहायत ही शराफत का बर्ताव क

संयोजक जी की महिमा

कवि सम्मलेन का आयोजन कोई हँसी-ठट्ठा नहीं। इसके लिए एक अदद संयोजक की दरकार हुआ करती है। वह अनुभवी, शातिर, घुन्नस और घाघ हो,फ़िर तो आयोजन की बल्ले-बल्ले ही समझिए। कोई आयोजक अथवा उसकी आयोजन समिति चाहे कितनी ही बड़ी हो, उसने संयोजक की उपेक्षा की तो हुआ उसके कवि सम्मलेन का बंटाधार। वह अपनी मुण्डियाँ पटक-पटक के लाख जोर लगा ले, कार्यक्रम फ्लॉप होके रहेगा। डॉन को पकड़ना तो तब भी मुमकिन है, पर संयोजक बिन कवि सम्मलेन का आयोजन नामुमकिन है। संयोजक बिन सब सून। यह संयोजक नामधारी महान आत्मा ही तो है, जो कवियों को 'कम सून' का न्योता भेजती है। तब कविगण मानसून की मानिंद सम्मलेन के मंच पर बरसने लग पड़ते है। सच माने तो कवि सम्मलेन का संयोजक कवि और आयोजक के बीच का मध्यम है। वह परम ज्ञानी, अनुभवी और अक्लमंद होता है। अज्ञानी जन, जिनकी भाषा परिस्कृत नहीं हुआ करती , वे ही उसकी आलोचना करते है। संयोजक नमक जीव अपनी चाल चलता रहता है। जो संयोजक की परवाह नहीं करते, वह उनकी नहीं करता। चाहे वे कितने बड़े महाकवि ही क्यों न हो।मेरे शहर के एक उप्नाम्धन्य कवि दूरदर्शन के एक कवि सम्मलेन में धुँआधार जम गए। उसी रोज से

सम्बन्ध नहीं, उसमे लिप्त होना बुरा है

कौन तुम्हारी पत्नी है? कौन तुम्हारा पुत्र है? यह संसार अत्यन्त विचित्र है। तुम किसके हो? कौन हो? कहाँ से आए हो? हे भाई, इन तत्व की बातों पर सोचो. आदि शंकराचार्य संबंधों के विरूद्व नहीं है। हमारे दिमाग में उन संबंधो के ले कर जो लगाव है, जो बंधन है, वे उसके विरूद्व है। उनके एक सूत्र में दो तरह के संबंधों का जिक्र है- पत्नी और पुत्र। पत्नी वह जो आपकी सेवा करें। पुत्र वह जिसकी आप सेवा करे। तो दुनिया में दो तरह के सम्बन्ध है - एक वे लोग जिनकी आप देखभाल कर रहे है, दुसरे वे जो आपकी देखभाल कर रहे है। और जिन लोगों की आज आप देखभाल कर रहे है, वही कुछ समय बाद आपकी देखभाल करेंगे। पुत्र और पिता का सम्बन्ध ऐसा ही है। शुरू में पिता पुत्र को बताता है यहाँ बैठ, यह कर, वह मत कर, यहाँ जा, वहां जा। लेकिन जब पिता बूढा हो जाता है तो पुत्र उसे चलाता है। शुरू में पिता पुत्र को चलाता है, बाद में पुत्र पिता को चलाता है। वह व्यक्ति जो आज आपका पति या पत्नी है-विवाह के पहले आप शायद उसे जानते भी न हो। फ़िर भी वह व्यक्ति आपके जीवन का सर्वेसर्वा बन जाता है। सम्बन्ध इस संसार में ऐसे ही है जैसे ट्रेन में सफर करने वाले हम

महंगाई का असर देख लौट गई आत्माए

पितृपक्ष शुरु होते ही दुनिया को अलविदा कह चुकी आत्माओं को अपने कुलदीपकों की याद आने लगी, जो बिना भूले उनकी याद में कुत्ते, कौवे और गायों को पकवान खिलते है। उनमे से कई पितरों ने अपने ठिकाने (स्वर्ग या ...) पर मीटिंग की और मर्त्यलोक आने की प्लानिंग की। अपने डिपार्टमेंट हेड धर्मराज या यमराज से अनुमति मांगी। डिपार्टमेंट हेड ने सबके आवेदन पत्रों को देखा, फ़िर पता-ठिकाना पूछा। सभी पितर उत्साहित थे, सटीक जानकारी दी। चित्रगुप्त महाराज ने भी अपने रजिस्टर से पता ठिकाने का मिलन किया। अधिकांश पते भारतवर्ष के विभिन्न हिस्सों से सम्बंधित थे। पता मिलते ही चित्रगुप्त महाराज ने सभी अप्लिकेशन्स पर 'ओके' की मुहर लगा दी। धर्मराज ने पितरों को रहस्यमय मुस्कराहट के साथ परमिट लैटर जरी कर दिया। डिपार्टमेंट हेड की तिरछी मुस्कान दुनिया से दूर रह रहे बुजुर्गों को चुभ गई। सहस जुटाकर पूछ ही लिया- महाराज, मर्त्यलोक जाने की आज्ञा है? धर्मराज उर्फ़ यमराज बोले - हे माननीयों, वर्ष में १६ दिन का समय आपका है। इस दौरान आपको अपने सगे-सम्बन्धियों की खातिरदारी कराने का विशेषाधिकार है। यहाँ तो सिर्फ़ डेटा मिलन के लिए ऍप

चुस्त पिता का पत्र सुस्त पुत्र के नाम

मेरे बेटे जब भी मैं औरों के सुपुत्रों को देखता हु, मुझे दिली कोफ्त होती है। वो अपने मम्मीज-डैडीज का नाम रोशन कर रहे है। और एक तो, मेरी औलाद है कि हमेशा अपना थोबडा लटकाए मिलता है। जब देखो, तब घर में ही पड़ा होता है। चेहरे पर फेसियल क्रीम, स्नो या लोशन की जगह उदासी पोते रहता है। मेरे बच्चे, मैं तो उस घड़ी को कोसता हूँ, जब तू इस घर पर टपका था। बड़ी ही मनहूस घड़ी थी वह, जब मेरे को चेहरे पर हमेशा ही बारह बजने वाली औलाद नसीब हुई। कितनी भी चाभी भर लो, तू चलने-फिरने का नाम ही नहीं लेता। लगता है अन्दर के सारे स्प्रिंग्स ढीले है। मेरी मान, यह लुन्ज्पुन्ज्पन छोड़। अपने में स्मार्टनेस ला। पडोसियों के जवान छोरे न जाने किस-किस तरह से चर्चाओं में आते जा रहे है। और एक तु है की स्कूली किताबों से जिल्द की तरह चिपका रहता है। पास तो लीक हुए एक्जाम पपेर्स के सहारे भी हुआ जा सकता है। अमां, क्या करेगा फालतू फंड की म्हणत करके। इतना पढ़-लिख कर? चलो, मन, किताबें चाट-चाट कर तु इम्तिहान में अव्वल आ लेगा। लेकिन इस किताबी इल्म के बाद नौकरी कहाँ धरी है? आजकल तो नौकरियां सिफारिशों से भी नहीं मिलती। साडी गलियां नगद नाराय

चुस्त पिता का पत्र सुस्त पुत्र के नाम

मेरे बेटे , जब भी मैं औरों के सुपुत्रों को देखता हूँ , मुझे दिली कोफ्त होती है । वो अपने मम्मीज - देदिज

प्रेम की प्रतिमूर्ति मदर टेरेसा

अध्यात्म के सागर में दुबकी लगाकर अंतर्मन की आवाज को सुनने वाली, इश्वर को नजदीक से महसूस करने वाली करुना और सहानुभूति की मूर्ति मदर टेरेसा को साडी दुनिया गरीबों की माँ के रूप से जानती है। बीते ५ सितम्बर को उनका जन्मदिन था। अल्बानिया में २६ अगस्त १९१० में जन्मी नन्हीं अग्नेस बायाहु उन गिने-चुने लोगों में से एक थी, जिसने अपनी ह्रदय की आवाज को सुनकर उसका सकारात्मक उतर दिया और जिन्होंने अपने नारीत्व के श्रेष्ठ रूप को बंगाल की पवित्र धरती पर पूर्ण होता पाया। मनुष्य रूप में माँ और देवी बनकर भारत के लोगों के साथ यीशु मसीह के प्रेम के संदेश बाटने वाली संत टेरेसा की दास्ताँ सचमुच अद्भुत है। १९२८ में बंगाल पहुँची १८ वर्षीय टेरेसा, सिस्टर बन्ने के लिए लोरेटो कॉन्वेंट में भरती होती है। १९३७ में वो अपना अन्तिम व्रत ग्रहण कर लोरेटो धर्म संघ की धर्म बहन की उपाधि प्राप्त करती है। और शिक्षिका के तौर पर कार्यरत टेरेसा एक दिन अपनी अंतरात्मा की आवाज सुन कर यीशु मसीह के पदचिन्हों पर चलते हुए गरीबों की सेवा में निकल पड़ती है। ५४ वर्ष पूर्व शारीरिक तौर पर कमजोर लेकिन दृढ़-निश्चय वाली महिला, जिन्होंने एक नन और

क्या न्याय के मंदिरों में देर भी है, अंधेर भी....

क्या बापू माली को सौभाग्यवान माना जा सकता है? मुंबई हाई कोर्ट ने महारास्ट्र सरकार को उन्हें एक लाख रूपये का मुआवजा देने के लिए कहा है। इसलिए, क्योंकि उन्हें एक ऐसे अपराध के लिए जेल में १० साल काटने पड़े जो उन्होंने किया ही नहीं था। वह ३० साल के थे, जब उन्हें पांच साल की एक लड़की का रेप कर उसे मार डालने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। पांच साल के ट्रायल के बाद यह तो तय हो गया था की उन पर लगा वह आरोप झूठा था, लेकिन फ़िर भी उन्हें आजाद नहीं किया गया, क्योंकि अ़ब उन पर एक अन्य कानून के उलंघन का दोष लग चुका था। अदालत में अपने मामले की अपील के लिए वह जमानत की रकम नहीं चुका पाए थे। इस आपराध के लिए उन्हें पांच साल और जेल में काटने पड़े। १० साल बाद अब बॉम्बे हाई कोर्ट ने इसे दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए सरकार समेत निचली अदालत को भी फटकर लगाई है। साथ ही माली को एक लाख रूपये मुआवजा देने के लिए कहा है। क्या बापू माली को हम भाग्यशाली करार देंगे क्योंकि अंततः उन्हें न्याय मिला, सत्य की जीत हुई और we आरोप से बाइज्जत बरी हुए? दरअसल यह तय कर पाना मुश्किल है की माली देश की न्याय प्रणाली का शिकार दुर्भाग्यशाल

रोजा गुनाहों और बुराइयों से बचने की ढाल है

रमजान का पवित्र महीना पुरे शबाब पर है। हर ओर वातावरण आध्यात्मिक है। हदीस के अनुसार रोजा को तीन अशरा(दस दिन की अवधि) में विभक्त किया गया है। पहला अशरा रहमत का, दूसरा मगफिरत का ओर अन्तिम हिस्सा जहन्नुम से छुटकारे का। ज्यों -ज्यों रमजान महीने का दिन घटता जाता है, रोजेदार की परीक्षा ओर कठिन होती जाती है। रोजा रखने से इसका प्रभाव तो शरीर पर परता है, परन्तु रोजा के प्रति आस्था कमजोरी के उस एहसास को क्षीण कर देती है। हर रोजेदार के भीतर ईश परायणता प्रवेश कर जाती है। अपने मन, वचन व कर्म से वह इस परीक्षा में सफल होने का प्रयास करता है। एक सच्चा ओर पक्का रोजेदार वहीँ होता है, जिसका हर अंग रोजे की हालत में होता है। उसके वचन व कर्म से तकवा, इबादत ओर नेकी की ही भावना बरसती है। इस महीने का असल उद्देश्य कुरान पढ़ना, सुनना, सीखना ओर अपने भीतर उस पर अमल करने की सामर्थ्य पैदा करना है। इसके लिए सबसे अधिक इस बात का ख्याल रखना चाहिए की हमारे दिल में यह बात पुरी तरह स्पष्ट रहे कि अल्लाह हमें क्या कह रहा है। हमारा दिल उस सोच में पुरी तरह से डूब जाए ओर अपने अन्दर उसकी हिदायतों के अनुसार अमल करने कि इच्छा जागृत

फ़ोन कथा - और इस तरह आए मुग़ल

मुग़ल सल्तनत को इंडिया में ज़माने वाली खानवा की जंग की तैयारियां चल रही रही थी। बाबर और राणा सांगा की लड़ाई हुआ ही चाहती थी। तब भी लड़ने वाली भारतीय सेनाओं का हाल अ़ब की क्रिकेट टीम की तरह ही हुआ करती था। लड़ने से पहले मस्ती, लड़ने के बाद भी मस्ती। तो साहब, सुपर टॉप मोबाइल कंपनी के मोबाइल राणा सांगा के सरदारों को दी गए थे। राणा के सरदारों को बता दिया गया था कि इस मोबाइल सर्विस में सब कुछ मिल जाता है। किसी भी किस्म की हेल्प चाहिए, तो ४२० नम्बर पर फ़ोन करो। हेल्प फ़ौरन हो जायेगी। आगे का किस्सा यूँ है की खानवा में लंबे अरसे से लड़ाई की तैयारी चल रही थी। लड़ाई नहीं हो रही थी। सैनिक बोर हो रहे थे। वो दिल्ली आ गए इंडियन टीम का कोई क्रिकेट मैच देखने ताकि कुछ अलग तरह से बोर हो सके। सैनिको को बताया गया कि कोई चिंता कि बात नहीं है, सुपर टॉप मोबाइल कंपनी के नेटवर्क के जरिए उन्हें मौका-ऐ-एक्शन कि ख़बर कर दी जायेगी और तब वे आ जाए। उधर से बाबर चला आ रहा था। राणा सांगा के सरदारों ने दिल्ली से अपने सैनिको को बुलाने कि लिए फ़ोन लगाया। बातचीत कुछ यूँ हुई - हेलो... ४२० हेल्प्लिने, देखिए मैं खानवा से राणा सांगा

चिकित्सालय ही तो है उपासना गृह

मन्दिर या अन्य धार्मिक स्थल का चिकित्सा अथवा उपचार अथवा रोग मुक्ति से कोई सम्बन्ध हो सकता है, कहने-सुनने में यह बात कुछ अविश्वसनीय सी लगती है, लेकिन सच तो यह है कि इन स्थानों का महत्व चिकित्सालय से किसी भी प्रकार कम नहीं है। माडर्न मेडिकल रिसेर्चो से पता चलता है कि जो लोग धार्मिक प्रवृति के है और नियमित रूप से पूजा-अर्चना करते है, साथ ही, धार्मिक स्थलों पर जाते है और तीर्थाटन आदि करते रहते है, ऐसे लोग अपेक्षाकृत कम बीमार पड़ते है। अगर किसी वजह से वे बीमार पड़ भी जाए, तो जल्द ही रोग मुक्त भी हो जाते है। मन्दिर, मस्जिद, गुरूद्वारे और गिरिजाघर आदि स्थान वस्तुतः हमारी आस्था का प्रतीक है। और अगर हम में देवी-देवताओं और उनके निवास माने जाने वाले धर्मस्थलों में आस्था है, तो यह आस्था रोगों के उपचार का एक महत्वपूर्ण तत्व बन सकती है। कई रिसर्चे साबित करती है कि आस्तिक, आस्थावान अथवा आशावादी व्यक्तियों के शरीर में ऐसे हारमोंस और रसायनों का स्राव होता रहता है, जो उन्हें स्वस्थ बनाए रखते है। ये स्राव रोग की अवस्था में उन्हें शीघ्र रोगमुक्त करके आरोग्य प्रदान करने में सहायक होते है। जब हमारी आस्था आधु

माथे पर पड़ी दरारों की मरम्मत

एक गीत है, जिसे फ़िल्म निर्देशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने बचपन में अक्सर अपने पिता को गेट हुए सुना था। बचपन से जवानी की और बढ़ते समय उन पंक्तियों के शब्द तो उनसे फिसल गए, पर भाव मन में पैठे रहे। कभी चर्चा हुई और प्रसून जोशी ने उन भावों को अपने शब्दों में पिरोने की कोशिश की। आपने वह गीत सुना होगा, उसे रहमान ने संगीत दिया है, जावेद अली - कैलाश खेर की आवाज में मिल कर गाया है : मौला मेरे मौला, मौला मौला मेरे मौला। इस गीत में आस्थावान का विश्वास है की मौला सब जानता है। वह हमारे चेहरे पर लिखी अर्जियों को पढ़ लेगा। भक्त की गुहार सुनकर मुकद्दर की मरम्मत कर देगा। माथे पर पड़ी दरारें उससे छुपी नहीं है। वह बिन कहे ही पाट दी जायेगी : अर्जियां सारी मैं चेहरे पे लिख के लाया हूँ,। तुमसे क्या मांगू तुम ख़ुद ही समझ लो मौला।... दरारे-दरारे है माथे पे मौला, मरम्मत मुकद्दर की कर दो मौला। तुलसी ने भी एक विनय पत्रिका भेजी थी राम के नम। उन्हें भरोसा था, एक वहीँ है जो बिना सेवा करवाए दीनो पर द्रवित होते है : 'ऐसो को उदार जहमाहीं।' प्रसून जोशी के इस 'नात' में एक सफर है - मुकद्दर की मरम्मत की अर्जिय