पिछले कुछ समय से मंदी की मार से पुरा विश्व त्रस्त है। भारत में भी इसकी तकलीफ महसूस की जा रही है। इसके कारन आत्महत्याएं भी हो रही है। कई परिवार उजड़ गए है। क्या यह मंदी इतनी बेबस और लाचार कर देने वाली है की मानव अपनी ही जन का दुश्मन बन जाए? की इस प्रकृति के साधारण जीवों से भी गया-गुजरा हो जाए? इस संसार में दुसरे प्राणियों का और कोई ऐसा उदाहरण नहीं मिलता जिसमें किसी जीव ने दुखी हो कर खुदकुशी कल ली हो- सिवाय मनुष्य के।
चावार्क का एक सूत्र है कि जब तक जिएँ सुख से जिएँ, इसके लिए चाहे ऋण लेकर घी पिएँ। इस नाशवान देह के मरने के बाद पुनर्जन्म किसने देखा। वह चावार्क भी यदि आज जिन्दा होते तो शायद वे भी इस मंदी की मार से बच नहीं पाते। शायद सोचते की काश मैं लोगों को कर्ज लेने के लिए नहीं उकसाता। कर्ज ले कर हसीं जिन्दगी जीने का ख्वाब ही अ़ब कई लोगों को अर्श से फर्श पर ले आया है। ऐसे में डिप्रेशन में आ जाना तो सामान्य बात है। परन्तु इसका समाधान आत्महत्या तो कदापि नहीं हो सकता। गीता में मोह के कारन अवसाद ग्रस्त अरुजुन को भगवन कृष्ण समझाते है कि जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु निश्चित है अरु जिसकी मृत्यु हुई है उसका जन्म भी निश्चित है। अतः हे अर्नुं, तू अन्यसभी विचारों को त्याग कर अपनी समस्त शक्तियों को एकत्रित कर केवल युद्ध में प्रवृत हो। यह संसार भी तो एक युद्धभूमि ही है, जिसमे हमें पल-प्रतिपल अपनी स्वाभाविक कमजोरियों से लडाई लड़नी है। उन्हें हरा कर स्वयं आगे बढ़ना है।
मंदी के कुछ पोजिटिव आस्पेक्ट्स भी हो सकते है। यह हमें सोचने और समझने का अवसर देती है। यह हमें आत्म-चिंतन के योग्य बनती है। इसके फलस्वरूप हमारे अंदर एक विश्लेषक जाग्रत हो जाता है। हम समझने की चेष्टा करते है की चूक कहाँ हुई। और तब शुरू होती है एक नै और खुबसूरत इबारत लिखने की दास्ताँ। मंदी के दौर में ही आती है मच्योरिटी। अपनी मानसिक, शारीरिक, सामाजिक व संवेदनात्मक योग्यता को संयम व धेर्य की कसौटी पर परखने का दौर। यूँ तो मंदी वक्त के हर दौर में मौजूद रहती है। यह हर व्यक्ति के जीवन में यह कभी न कभी जरुर आती है। गरीब की जिंदगी में तो रोज ही मंदी रहती है। यह मानव विकास का अपरिहार्य पडाव है, कभी उठान और कभी ढलान। इसका प्रकट रूप भयावह है, लेकिन मृत्युग्मी नहीं। यह किसी एक व्यक्ति के बदले जब पुरे समूह के साथ घटित होता है तो और ज्यादा भयानक प्रतीत होती है। पर हमारा अतीत हमें ऐसे दौर में और अधिक दृढ़ता से जीना सिखाता है।
दुसरे विश्वयुद्ध के बाद अपना सब कुछ को चुके जापान की विकास यात्रा इसकी मिसाल है। देश के विभाजन के बाद अपना सब कुछ लुटा कर पाकिस्तान से आए भारतीय, युद्धग्रस्त देशों से आए शरणार्थी, दंगो से उबरे लोग-इन सब ने वक्त का जो दौर देखा है, उसके आगे तो यह मंदी कहीं नहीं ठहरती। जिस दृढ़ता और जीवत से इन लोगों ने अपने जीवन को जीरो से हीरो का जीवन बनाया, वह अनुकरणीय है। डिप्रेशन में आए युवाओं और मंदी के मरे उद्धमियों के लिए वे प्रेरणा के पुंज है। पैसे की धुंधली होती चमक के आगे अपने जीवन की चमक को भूलने की भूल कर रहे लोगों के लिए ऐसे अनेक उदाहरण संजीवनी है।
बचपन में यदा-कदा कीर्तनों में सुना करते थे की हारिये न हिम्मत बिसारिये न हरी नाम। या फ़िर सीताराम सीताराम सीताराम कही, जेहि विधि रखे राम तेहि विधि रही। ऐसे कीर्तन निश्चित रूप से आज की भागती और थकने वाली जिन्दगी ने ठंडी हवा के झोंके की तरह है, जो अशांत और आशंकित मन को नए उत्साह से आगे बढ़ने का हौसला देते है। परमात्मा की इस लीलामय दुनिया में मंदी और तेजी के उलट-पुलट खेल को देख कर किसी ने सच ही कहा है : कभी घी घना, कभी मुट्ठी भर चना और कभी वो भी मना।
चावार्क का एक सूत्र है कि जब तक जिएँ सुख से जिएँ, इसके लिए चाहे ऋण लेकर घी पिएँ। इस नाशवान देह के मरने के बाद पुनर्जन्म किसने देखा। वह चावार्क भी यदि आज जिन्दा होते तो शायद वे भी इस मंदी की मार से बच नहीं पाते। शायद सोचते की काश मैं लोगों को कर्ज लेने के लिए नहीं उकसाता। कर्ज ले कर हसीं जिन्दगी जीने का ख्वाब ही अ़ब कई लोगों को अर्श से फर्श पर ले आया है। ऐसे में डिप्रेशन में आ जाना तो सामान्य बात है। परन्तु इसका समाधान आत्महत्या तो कदापि नहीं हो सकता। गीता में मोह के कारन अवसाद ग्रस्त अरुजुन को भगवन कृष्ण समझाते है कि जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु निश्चित है अरु जिसकी मृत्यु हुई है उसका जन्म भी निश्चित है। अतः हे अर्नुं, तू अन्यसभी विचारों को त्याग कर अपनी समस्त शक्तियों को एकत्रित कर केवल युद्ध में प्रवृत हो। यह संसार भी तो एक युद्धभूमि ही है, जिसमे हमें पल-प्रतिपल अपनी स्वाभाविक कमजोरियों से लडाई लड़नी है। उन्हें हरा कर स्वयं आगे बढ़ना है।
मंदी के कुछ पोजिटिव आस्पेक्ट्स भी हो सकते है। यह हमें सोचने और समझने का अवसर देती है। यह हमें आत्म-चिंतन के योग्य बनती है। इसके फलस्वरूप हमारे अंदर एक विश्लेषक जाग्रत हो जाता है। हम समझने की चेष्टा करते है की चूक कहाँ हुई। और तब शुरू होती है एक नै और खुबसूरत इबारत लिखने की दास्ताँ। मंदी के दौर में ही आती है मच्योरिटी। अपनी मानसिक, शारीरिक, सामाजिक व संवेदनात्मक योग्यता को संयम व धेर्य की कसौटी पर परखने का दौर। यूँ तो मंदी वक्त के हर दौर में मौजूद रहती है। यह हर व्यक्ति के जीवन में यह कभी न कभी जरुर आती है। गरीब की जिंदगी में तो रोज ही मंदी रहती है। यह मानव विकास का अपरिहार्य पडाव है, कभी उठान और कभी ढलान। इसका प्रकट रूप भयावह है, लेकिन मृत्युग्मी नहीं। यह किसी एक व्यक्ति के बदले जब पुरे समूह के साथ घटित होता है तो और ज्यादा भयानक प्रतीत होती है। पर हमारा अतीत हमें ऐसे दौर में और अधिक दृढ़ता से जीना सिखाता है।
दुसरे विश्वयुद्ध के बाद अपना सब कुछ को चुके जापान की विकास यात्रा इसकी मिसाल है। देश के विभाजन के बाद अपना सब कुछ लुटा कर पाकिस्तान से आए भारतीय, युद्धग्रस्त देशों से आए शरणार्थी, दंगो से उबरे लोग-इन सब ने वक्त का जो दौर देखा है, उसके आगे तो यह मंदी कहीं नहीं ठहरती। जिस दृढ़ता और जीवत से इन लोगों ने अपने जीवन को जीरो से हीरो का जीवन बनाया, वह अनुकरणीय है। डिप्रेशन में आए युवाओं और मंदी के मरे उद्धमियों के लिए वे प्रेरणा के पुंज है। पैसे की धुंधली होती चमक के आगे अपने जीवन की चमक को भूलने की भूल कर रहे लोगों के लिए ऐसे अनेक उदाहरण संजीवनी है।
बचपन में यदा-कदा कीर्तनों में सुना करते थे की हारिये न हिम्मत बिसारिये न हरी नाम। या फ़िर सीताराम सीताराम सीताराम कही, जेहि विधि रखे राम तेहि विधि रही। ऐसे कीर्तन निश्चित रूप से आज की भागती और थकने वाली जिन्दगी ने ठंडी हवा के झोंके की तरह है, जो अशांत और आशंकित मन को नए उत्साह से आगे बढ़ने का हौसला देते है। परमात्मा की इस लीलामय दुनिया में मंदी और तेजी के उलट-पुलट खेल को देख कर किसी ने सच ही कहा है : कभी घी घना, कभी मुट्ठी भर चना और कभी वो भी मना।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें
Aap sabhi bhaiyo & bahno se anurodh hai ki aap sabhi uchit comment de............
jisse main apne blog ko aap sabo ke samne aur acchi tarah se prastut kar saku......