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पुरखो के सम्मान का प्रतीक है पितर पक्ष




हमारे शरीर को जो चेतना संचालित करती है,उसे आत्मा कहा गया है आत्मा जन्म के पहले, जीवित रहते और देहावसान के बाद किस अवस्था में रहती है, इसका उल्लेख भारतीय शास्त्रों में विशद रूप में है अध्यात्म विज्ञान की माने तो आत्मा का अस्तित्व इहलोक और परलोक दोने में सामान रूप से है शास्त्रों में इस बात का उल्लेख है की मरने के पश्चात् मनुष्य चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करता है
मृत्यु के पश्चात् आत्मा की तीन स्थितियां बताई गई है पहला अधोगति यानि भूत-प्रेत, पिशाच आदि योनी में जन्म लेना दूसरा स्वर्ग प्राप्ति और तीसरा मोक्ष गरुण पूरण में उल्लेख है की इसके अलावा भी जीव को एक ऐसी गति भी मिलती है, जिसमे उसे भटकना परता है इसे प्रतीक्षा काल कहा जाता है इन्ही भटकी हुई आत्माओं की मुक्ति के लिए पितरो का तर्पण किया जाता है श्रधावन होकर पुरखो की अधोगति से मुक्ति के लिए किया गया धार्मिक कृत्य श्राद्ध कहलाता है पितरों के मोक्ष के लिए ही रजा भगीरथ ने कठोर टाप किया और गंगा जी को पृथ्वी में लाकर उनको मुक्ति दिलाई
आश्विन मास का कृष्ण पक्ष श्राद्ध या महालय पक्ष कहलाता है, श्राद्ध पक्ष सोलह दिन का मन गया है अनंत चतुर्दशी के अगले दिन पूर्णिमा से शुरू होकर अमावश्या को पूर्ण होता है इसमे जिस तिथि को प्राणी की मृत्यु होती है, उसी तिथि को उसका श्राद्ध किया जाता है सामाजिक विरासत के तौर पर पित्री पक्ष को हम एक प्रकार से पितरों का सामूहिक मेला भी कह सकते है पुराणों के मुताबिक मृत्यु के देवता यमराज श्राद्ध पक्ष में जीव को मुक्त कर देते है शास्त्रों में उल्लेख है की सावन की पूर्णिमा से ही पितर मृत्यु लोक में जाते है और कुशा की नोकों पर विराजमान हो जाते है पित्री पक्ष में हम जो भी पितरो के नाम का निकालते है, उसे वह सूक्ष्म रूप में आकर ग्रहण करते है श्राद्ध पक्ष में पित्री गन पृथ्वी में रहने वाले अपने-अपने स्वजनों के यहाँ बिना आहवान किए हुए भी पहुचते है और उनके द्वारा किए गए तर्पण और भोजन से तृप्त होकर आशीर्वाद देते है श्राद्ध के मनाने का मतलब अपने पूर्वजो को याद कर उन्हें सम्मान देना है श्राद्ध पक्ष में शाकाहारी भोजन ही ग्रहण किया जाता है श्रधा से किराया गया भोजन और पवित्रता से जल का तर्पण ही श्राद्ध का आधार है गरुण पूरण मत्स्य पूरण में भी लिखा है की श्रधा से तर्पण की गई वस्तुएं पितरों को उस लोक एवं शरीर के अनुसार प्राप्त होती है, जिसमे वे रहते है कुछ लोग कौओं , कुत्तों और गायों के लिए भी अंश निकालते है मान्यता है की कुत्ता और कौवा यम् के नजदीकी है और गाय वैतरणी पार कराती है
पुरानों में इस बात का उल्लेख मिलता है की सुपात्र को विधिवत दिया गया भोजन और दान पितरों तक अवश्य पहुंचता है तर्पण से व्यक्ति मात्री-ऋण , देव-ऋण और पित्री-ऋण से मुक्त हो जाता है श्राद्ध का अनुष्टान परिवार का उत्तराधिकारी या ज्येष्ठ पुत्र ही करता है जिसके घर में कोई पुरूष हो, वहां स्त्रियाँ ही इस रिवाज को निभाती है परिवार का अन्तिम पुरूष सदस्य अपना श्राद्ध अपने जीवन काल में भी करने को स्वतंत्र माना गया है.सन्यासी वर्ग अपना श्राद्ध अपने जीवन में कर ही लेते है लोक व्यव्हार में मनुष्य एकाग्र चित्त होकर श्राद्ध पक्ष में पितरो के प्रति समर्पित हो सके, इसलिए सांसारिक कार्यो से दूर रहने की बात कही गई है
हमारे समाज में गरीब और साधन संपन्न सभी तरह के वर्ग है श्राद्ध मृत्यु भोजों का आयोजन अपनी आर्थिक हैसियत से ही करना चाहिए सांत्वना और सहानुभूति के नाम पर गरीब अपनी प्रतिष्ठा बचने में बेवजह कर्ज लेकर या खेत-माकन बेचकर या गिरवी रखकर श्राद्ध भोज करते है, तो आगे उनका जीवनयापन कस्टदाई होता है और घर का बजट बिगर जाता है धन के आभाव में पारिवारिक जिम्मेदारी निभा पाने पर समाज उनकी खिल्ली उराता है सच्ची श्रधांजलि हृदय से होती है, दिखावे से नहीं आज की महंगाई के दौर में श्राद्ध भोजों को सीमित करना जरुरी और उचित है

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