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सम्बन्ध नहीं, उसमे लिप्त होना बुरा है

कौन तुम्हारी पत्नी है? कौन तुम्हारा पुत्र है? यह संसार अत्यन्त विचित्र है। तुम किसके हो? कौन हो? कहाँ से आए हो? हे भाई, इन तत्व की बातों पर सोचो. आदि शंकराचार्य संबंधों के विरूद्व नहीं है। हमारे दिमाग में उन संबंधो के ले कर जो लगाव है, जो बंधन है, वे उसके विरूद्व है।
उनके एक सूत्र में दो तरह के संबंधों का जिक्र है- पत्नी और पुत्र। पत्नी वह जो आपकी सेवा करें। पुत्र वह जिसकी आप सेवा करे। तो दुनिया में दो तरह के सम्बन्ध है - एक वे लोग जिनकी आप देखभाल कर रहे है, दुसरे वे जो आपकी देखभाल कर रहे है। और जिन लोगों की आज आप देखभाल कर रहे है, वही कुछ समय बाद आपकी देखभाल करेंगे। पुत्र और पिता का सम्बन्ध ऐसा ही है।
शुरू में पिता पुत्र को बताता है यहाँ बैठ, यह कर, वह मत कर, यहाँ जा, वहां जा। लेकिन जब पिता बूढा हो जाता है तो पुत्र उसे चलाता है। शुरू में पिता पुत्र को चलाता है, बाद में पुत्र पिता को चलाता है। वह व्यक्ति जो आज आपका पति या पत्नी है-विवाह के पहले आप शायद उसे जानते भी न हो। फ़िर भी वह व्यक्ति आपके जीवन का सर्वेसर्वा बन जाता है।
सम्बन्ध इस संसार में ऐसे ही है जैसे ट्रेन में सफर करने वाले हमसफ़रों के साथ। आप दिल्ली से केरल जा रहे है। दो दिन दो रातों का सफर है। रास्ते में कई लोग आते है, कई चले जाते है। आप से उनकी दो-चार बातें होती है। अच्छा सम्बन्ध बनता है, लेकिन उनका रास्ता अलग है और आपका अलग है। आप अपनी मंजिल छोड़कर उनके साथ उनके स्टेशन पर नहीं उतरते। आपका सफर अलग है, उनका सफर अलग है। तो ये बच्चे, मां-बाप, पिता-पुत्र, भाई-बंधू सबका सम्बन्ध भी वैसे ही है - ये सब भी आपके साथ नहीं आए और आपके साथ सदा नहीं चलेंगे। ये सब बीच में थोडी देर के लिए आए है, हमसफ़र बने है और उसके उपरांत अपने-अपने गंतव्य को चले जायेंगे।
तो हमारा लगाव है किससे? शरीर से। हमारा लगाव है मन से। हमारा लगाव है परिवार से। हमारा लगाव है कई चीजों से। आप भी तंग आ गए होंगे इस लगाव से। शुरू में खिलौनों से लगाव, जवानी में सौंदर्य से लगाव, उसके बाद नौकरी से लगाव। उसके बाद घर बनाया तो घर से लगाव। और घरवालों ने दो बार कहा-सुनी कर दी, कुछ अच्छी-बुरी बातें बोल दी तो उसी घर से अलगाव शुरू। उसके बाद जाकर एक क्लब से लगाव। क्लब में भी आप तंग आ गए तो किसी साधू या स्वामी से लगाव।
लगाव गोंद की तरह हो गया है। हर चीज से चिपक जाता है। शंकराचार्य कहते है कि स्वतंत्र बनिए। एक ऐसे व्यक्तित्व को समाहित कीजिए अपने मन में कि आप दूसरो के साथ रहिए, सम्बन्ध रखिए, लेकिन मन से लगाव रहित। जैसे कोई पक्षी पेड़ कि एक नाजुक टहनी पर बैठा हो और नीचे पानी का तेज बहाव हो। लेकिन टहनी के टूटने पर भी पक्षी का जीवन उस पर निर्भर नहीं है, वह निर्भर है अपने पंखों पर। आप और हम भी यदि अपने ज्ञान रूपी पंखों पर निर्भर होते है, तो दुखी नहीं होते।
जो कोई कहता है, छोड़ दो, वह दिनिया का सबसे मुर्ख इन्सान है। उसको वास्तविकता का नहीं पता। इस संसार में कोई भी चीज जिससे आपको लगाव हो वह छोड़ नहीं सकते, वह अपने आप छुट जाएगी। कब छूटेगी- जब उससे अच्छी चीज आपके जीवन में मिल जाए। जब घर में गैस आई तो स्टोव छुट गया, छोड़ना नहीं पड़ा। जब रंगीन टेलिविज़न आया तो ब्लैक एंड व्हाइट टेलिविज़न छुट गया। छोड़ना नहीं पड़ा। जब कार आई, स्कूटर छुट गया, छोड़ा नहीं।
इस संसार में परमात्मा का सुख सबसे बड़ा सुख है और जिसको उस सुख से लगाव हो जाए तो दुनिया कि सब चीजों से अलगाव हो जाता है।

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