सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

अथ श्री कौवा पूरण







कहाँ तो मैं कंधमाल पर चिंतन के लिए कमर कसने जा रहा था, कहाँ कौवा चिंतन पर बैठ गया हु। बात ही दरअसल कुछ ऐसी है। पिछले दिनों एक युवक ने बताया की वह श्राद्ध के दौरान कौवों को खाना खिलने के लिए थाली लेकर गया था, मगर एक भी कौवा दावत में शामिल नहीं हुआ। वहां आसपास कौवे थे ही नहीं। चिंता की बात है। हमारी संस्कृति में कौवे को खाना खिलने की परम्परा है। इस परम्परा का ठीक से निर्वाह नहीं हो पा रहा है। युवक ने मुझ से पूछा की कौवे कहाँ चले गए? मैं क्या बताता।
कौवे कहीं कंधमाल तो नहीं चले गए या फ़िर बिहार? इधर कई दिनों से उनके लिए वहां शानदार दावत का प्रबंध हो गया है। या फ़िर हो सकता है कौवों का अस्तित्व ही समाप्ति के कगार पर हो। बर्ड लाइफ ऑफ़ इंटरनेशनल को इस पर सर्वे करना चाहिए। जिस समाज में कौवे हो, वह निकृष्ट है। मेरी चिंता उस युवक को लेकर थी। कौवे दावत में नहीं आए तो खाने का क्या हुआ। उनसे बताया कुत्ते खा गए। मुझे संतोष हुआ। आखिर कौवे और कुत्ते हमारे समाज के ही अंग है। जहाँ कुत्ते का पारंपरिक सम्बन्ध महाभारत से है वहीँ कौवे का रामायण से। एक धर्मराज के साथ स्वर्ग गया तो दुसरे ने रामायण सुनकर मोक्ष गति पाई। एक कवि ने कौवे की प्रशंसा में यहाँ तक कहा है - काग के भाग बरे सजनी हरी हाथ सो ले गयो माखन रोटी। इससे पता चलता है की भारत में एक ऐसा युग भी था, जब कौवे को माखन मिलता था। अ़ब तो हंस भी मक्खन को तरसते है।
किशोर वय से ही कौवा मुझे प्रिया रहा है। सच कहू तो कौवा अपने विशिष्ट गुणों के कारन मुझे सदा आकर्षित करता रहा है। उसका काला रंग एक खास संस्कृति का प्रतीक है। कहाँ गया है की काले रंग पर दूसरा कोई रंग नहीं चढ़ता। दुसरे पर काला रंग अवश्य चढ़ जाता है। मुझे भी बचपन से काला रंग ही पसंद रहा है। गोरा रंग मेरी पसंद कबी नहीं रहा। काले रंग का ही कमल है की आगे चलकर मैं काले कर्मो में लिप्त रहा हु। कमी कैसी भी रही हो मैंने उसे काली कमाई कभी नहीं मना। काला पैसा एक मिथ्या धारणा है। काला होना एक संस्कृति है जबकि गोरापन विकृति है। दुनिया भर के संस्कृतियों में काले मूल निवासी है। गोरे बहार से आए है। बालिवूड में यूँ तो एक-से एक सुपेर्हित गाने बने है। पर मेरी नज़र में एक ही गाना महँ है - हम काले है तो क्या हुआ दिल वाले है। काला कौवा, काली कोयल, काले कारनामे और काला धंधा, इनमे सद्रिश्यता है। राजनैतिक डालो के सुशिल कार्यकर्त्ता बंद, हरताल में काले रंग का प्रयोग करते है। यह कौवा संस्कृति का प्रतीक है।
कौवे का दूसरा गुण जो मुझे पसंद है, वह है कही भी पुहुँच जन, बैठ जन, कुछ भी खा लेना। कौवे के लिए भक्ष्य- अभक्ष्य कुछ नहीं है। वह धर्मनिरपेक्ष भाव से सब कुछ ग्रहण करता है। उसकी द्रिस्ती सर्वधर्म समभाव की है। कौवे के कांव-कांव राष्टीय कर्कश कराहों की प्रतीक है। कौवों की संस्कृति आम आदमी की संस्कृति है, जबकि हंस और बगुले की संस्कृति एक विशिष्ट संस्कृति है। कहीं कौवा संस्कृति के दमन अत्याचार के कारन तो कौवे लुप्त नहीं हो गए? इसकी जाँच होनी चाहिए।
कौवे की दूरदृष्टि का मैं बचपन से ही प्रशंसक रहा हु। एक बार मैं अपने घर के पिछवारे खेल रहा था। ऊँचे पैरपर पास ही एक काला कौवा कांव-कांव कर रहा था। एक गिरगिट घरियो से कब निकला और कब पैर की तरफ़ सरपट भगा मुझे पता ही नहीं चला। मेरी दृष्टि तब साफ हुई जब कौवे ने झपट्टा मरकर गिरगिट को चोंच में पाकर और उर चला। तब से मैं कौवे का कायल हु।
मगर उस युवक ने मेरी चिंता बढ़ा दी थी। कौवे गए कहाँ? मुझे लगता है आजकल कौवों को दिल्ली रस आने लगे है। सरे कौवे दिल्ली में डेरा डाले परे है, अभी चुनाव का श्राद्ध होने वाला है। कौवों की वहां बरी आवश्यकता है।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

अपने ईगो को रखें पीछे तो जिदंगी होगी आसान

आधुनिक युग में मैं(अहम) का चलन कुछ ज्यादा ही चरम पर है विशेषकर युवा पीढ़ी इस मैं पर ज्यादा ही विश्वास करने लगी है आज का युवा सोचता है कि जो कुछ है केवल वही है उससे अच्छा कोई नहीं आज आदमी का ईगो इतना सर चढ़कर बोलने लगा है कि कोई भी किसी को अपने से बेहतर देखना पसंद नहीं करता चाहे वह दोस्त हो, रिश्तेदार हो या कोई बिजनेस पार्टनर या फिर कोई भी अपना ही क्यों न हों। आज तेजी से टूटते हुऐ पारिवारिक रिश्तों का एक कारण अहम भवना भी है। एक बढ़ई बड़ी ही सुन्दर वस्तुएं बनाया करता था वे वस्तुएं इतनी सुन्दर लगती थी कि मानो स्वयं भगवान ने उन्हैं बनाया हो। एक दिन एक राजा ने बढ़ई को अपने पास बुलाकर पूछा कि तुम्हारी कला में तो जैसे कोई माया छुपी हुई है तुम इतनी सुन्दर चीजें कैसे बना लेते हो। तब बढ़ई बोला महाराज माया वाया कुछ नहीं बस एक छोटी सी बात है मैं जो भी बनाता हूं उसे बनाते समय अपने मैं यानि अहम को मिटा देता हूं अपने मन को शान्त रखता हूं उस चीज से होने वाले फयदे नुकसान और कमाई सब भूल जाता हूं इस काम से मिलने वाली प्रसिद्धि के बारे में भी नहीं सोचता मैं अपने आप को पूरी तरह से अपनी कला को समर्पित कर द...

जीने का अंदाज....एक बार ऐसा भी करके देखिए...

जीवन को यदि गरिमा से जीना है तो मृत्यु से परिचय होना आवश्यक है। मौत के नाम पर भय न खाएं बल्कि उसके बोध को पकड़ें। एक प्रयोग करें। बात थोड़ी अजीब लगेगी लेकिन किसी दिन सुबह से तय कर लीजिए कि आज का दिन जीवन का अंतिम दिन है, ऐसा सोचनाभर है। अपने मन में इस भाव को दृढ़ कर लें कि यदि आज आपका अंतिम दिन हो तो आप क्या करेंगे। बस, मन में यह विचार करिए कि कल का सवेरा नहीं देख सकेंगे, तब क्या करना...? इसलिए आज सबके प्रति अतिरिक्त विनम्र हो जाएं। आज लुट जाएं सबके लिए। प्रेम की बारिश कर दें दूसरों पर। विचार करते रहें यह जीवन हमने अचानक पाया था। परमात्मा ने पैदा कर दिया, हम हो गए, इसमें हमारा कुछ भी नहीं था। जैसे जन्म घटा है उसकी मर्जी से, वैसे ही मृत्यु भी घटेगी उसकी मर्जी से। अचानक एक दिन वह उठाकर ले जाएगा, हम कुछ भी नहीं कर पाएंगे। हमारा सारा खेल इन दोनों के बीच है। सच तो यह है कि हम ही मान रहे हैं कि इस बीच की अवस्था में हम बहुत कुछ कर लेंगे। ध्यान दीजिए जन्म और मृत्यु के बीच जो घट रहा है वह सब भी अचानक उतना ही तय और उतना ही उस परमात्मा के हाथ में है जैसे हमारा पैदा होना और हमारा मर जाना। इसलिए आज...

प्रसन्नता से ईश्वर की प्राप्ति होती है

दो संयासी थे एक वृद्ध और एक युवा। दोनों साथ रहते थे। एक दिन महिनों बाद वे अपने मूल स्थान पर पहुंचे, जो एक साधारण सी झोपड़ी थी। जब दोनों झोपड़ी में पहुंचे। तो देखा कि वह छप्पर भी आंधी और हवा ने उड़ाकर न जाने कहां पटक दिया। यह देख युवा संयासी बड़बड़ाने लगा- अब हम प्रभु पर क्या विश्वास करें? जो लोग सदैव छल-फरेब में लगे रहते हैं, उनके मकान सुरक्षित रहते हैं। एक हम हैं कि रात-दिन प्रभु के नाम की माला जपते हैं और उसने हमारा छप्पर ही उड़ा दिया। वृद्ध संयासी ने कहा- दुखी क्यों हो रहे हों? छप्पर उड़ जाने पर भी आधी झोपड़ी पर तो छत है ही। भगवान को धन्यवाद दो कि उसने आधी झोपड़ी को ढंक रखा है। आंधी इसे भी नष्ट कर सकती थी किंतु भगवान ने हमारी भक्ति-भाव के कारण ही आधा भाग बचा लिया। युवा संयासी वृद्ध संयासी की बात नहीं समझ सका। वृद्ध संयासी तो लेटते ही निंद्रामग्न हो गया किंतु युवा संयासी को नींद नहीं आई। सुबह हो गई और वृद्ध संयासी जाग उठा। उसने प्रभु को नमस्कार करते हुए कहा- वाह प्रभु, आज खुले आकाश के नीचे सुखद नींद आई। काश यह छप्पर बहुत पहले ही उड़ गया होता। यह सुनकर युवा संयासी झुंझला कर बोला- एक त...