सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

गुम्बद वाले बू अली शाह कलंदर

आज हजरत शेख शर्फुधीन बू अली शाह कलंदर का उर्स है। वे बहुत बरे सूफी संत थे और १३ वी सदी में उन्होंने कर्नल, पानीपत और दिल्ली के लोगो को अपनी रहमतों से नवाजा था। इस क्षेत्र में आज भी लोग उनके प्रति अपर श्रधा रखते है और इन दिनों में हर साल उनका उर्से मुबारक खूब धूम-धाम से मनाया जाता है।
हजरत शाह के वालिद शेख फखरुद्दीन इराकी भी बहुत बरे आलिम और दरवेश थे। शेख इराकी के हिन्दोस्तान आने और पानीपत में बस जाने के बाद आपके यहाँ अली शाह का जन्म ६०६ हिजरी (१२०० ) में कुतुबुदीन ऐबक के शासन कल में हुआ। अली शाह कलंदर ने ग्यारह-बारह साल की उम्र में ही मुक्कमल तालीम प्राप्त कर ली थी।
लेकिन उसके बाद हजरत लगातार चालीस वर्ष तक हदीस ( हजरत मुहम्मद के वचन) और फिक्ह ( इस्लामी धर्मशास्त्र) की तालीम हासिल करते रहे। इस उम्र का काफी वक्त दिल्ली में गुजरा। जब तालीम से आप संतुष्ट हो गए तो शहर छोरकर जंगल में जाकर अल्लाह की इबादत में जुट गए। अपनी इच्छाओ पर उन्हें इतना संयम था की अपनी उम्र के चालीस साल तक आपने दुनिया के किसी भी स्वाद अथवा आनंद से कोई लगाव नहीं रखा।
आपने हजरत कुतुबुदीन बख्तियार काकी से तालीम ली थी। फ़िर आपको सीधे हजरत अली से लाभ पंहुचा। इसका विवरण कुछ इस तरह है की आप समाधी की हालत में जब रूहानी शक्ल में मुस्तफा की मजलिश में हाजिर हुए, तो वहां हजरत अली भी थे। उस समय रसूल (सर्वप्रिय नवी ) ने फ़रमाया, ' अली! शर्फुदीन पर इस्रारे गैबी (गुप्त भेद ) खोल दे।' रसूल का हुक्म मिलते ही हजरत अली ने शेख कलंदर पर सारे इस्रारे ख़फी जली ( गुप्त और व्यक्त ) भेद जाहिर कर दिए। जब हजरत इबादत में खोये होते तो उस समय आपके पास कोई नहीं जा सकता था। उन दिनों आप खाना- पीना छोर देते थे। बस खिदमतगार दूर खरे होकर आपसे पूछ लिया करता था। जब आपका मन होता तो आप फार्म देते, लाओ बंदा खाना खा ले। और इच्छा नहीं होती तो फरमाते, अल्लाह भी तो नहीं खता और कितने लोग आज भूख सोये होंगे? आपके निधन के बरे में एक अजीब किस्सा मशहूर है। करनाल से दो मील की दुरी पर क़स्बा बूढा खेरी में १२२ वर्ष की आयु में उनका जब निधन हुआ तो पास में कोई भी नहीं था। करनाल वाले उनके शव को बरे आदर और अहतियात से उठा कर ले गए और कफ़न-दफ़न की तयारी की। उधर पानीपत के एक बुजुर्ग मौलाना सिराजुदीन ने ऊँघ की हालत में देखा की हजरत उनसे फार्म रहे है,' हम पानीपत में अपने दोस्त शाह मुबारक हे पहलु में रहना चाहते है। वहां हमारे लिए छत्री वाला गुम्बद बना हुआ है।' मौलाना सिराजुदीन ने तुंरत इस बात की ख़बर हजरत के भतीजे और पानीपत के दुसरे बुजुर्गो को दी। सब एक साथ करनाल गए और कहा की हम शेख को पानीपत ले जाकर दफ़न करेंगे। लेकिन करनाल वालो ने यह कह कर इंकार कर दिया की करनाल इनकी वलायत (वली होने की जगह) है। और हमारी खुशनसीबी है की हजरत की वफात(मृत्यु) करनाल में ही हुई।
जब यह मामला किसी तरह भी नहीं निपट पाया तो मौलाना मक्की ने कहा की सबसे अच्छा यह है की लाशे मुबारक से ही पूछ लिया जाए। जो भी जवाब मिले वैसा ही किया जाए। तो रात को दोनों तरफ़ बैठ कर दरूद और फातिहा और सूरये इखलास ( कुरान शरीफ से इस्लामी प्रार्थना) पढ़नी शुरू की।
आखिर में मौलाना मक्की ने करनाल वालो से कहा की ' अच्छा! तो लाश को उठाकर ले जाओ।' करनाल वालो ने लाशे मुबारक को बहुत उठाना चाह मगर वह हिल भी सके। वे मजबूर हो गए।
तब पानीपत वालो ने जनाजे को उठाया तो वह फूल से भी हल्का था। इस प्रकार हुक्म के मुताबिक लाश को पानीपत लाकर उसी गुम्बद में दफ़न किया गया, जिसके लिए हजरत की तमन्ना थी।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

वो कागज़ की कश्ती

ये दौलत भी ले लो , ये शोहरत भी ले लो भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन वो कागज़ की कश्ती , वो बारिश का पानी   स्वर्गीय श्री सुदर्शन फाकिर साहब की लिखी इस गजल ने बहुत प्रसिद्धि पाई,हर व्यक्ति चाहे वह गाता हो या न गाता हो, इस ग़ज़ल को उसने जरुर गुनगुनाया,मन ही मन इन पंक्तियों को कई बार दोहराया. जानते हैं क्यु?क्युकी यह ग़ज़ल जितनी सुंदर गई गई हैं,सुरों से सजाई गाई गई हैं,उससे भी अधिक सुंदर इसे लिखा गया हैं, इसके एक एक शब्द में हर दिल में बसने वाली न जाने कितनी ही बातो ,इच्छाओ को कहा गया हैं।   हम में से शायद ही कोई होगा जिसे यह ग़ज़ल पसंद नही आई इसकी पंक्तिया सुनकर उनके साथ गाने और फ़िर कही खो जाने का मन नही हुआ होगा,या वह बचपनs की यादो में खोया नही होगा। बचपन!मनुष्य जीवन की सर्वाधिक सुंदर,कालावधि.बचपन कितना निश्छल जैसे किसी सरिता का दर्पण जैसा साफ पानी,कितना निस्वार्थ जैसे वृक्षो,पुष्पों,और तारों का निस्वार्थ भाव समाया हो, बचपन इतना अधिक निष्पाप,कि इस निष्पापता की कोई तुलना कोई समानता कहने के लिए, मेरे पास शब्द ही नही हैं।

सीख उसे दीजिए जो लायक हो...

संतो ने कहा है कि बिन मागें कभी किसी को सलाह नही देनी चाहिए। क्यों कि कभी कभी दी हुई सलाह ही हमारे जी का जंजाल बन जाती है। एक जंगल में खार के किनारे बबूल का पेड़ था इसी बबूल की एक पतली डाल खार में लटकी हुई थी जिस पर बया का घोंसला था। एक दिन आसमान में काले बादल छाये हुए थे और हवा भी अपने पूरे सुरूर पर थी। अचानक जोरों से बारिश होने लगी इसी बीच एक बंदर पास ही खड़े सहिजन के पेड़ पर आकर बैठ गया उसने पेड़ के पत्तों में छिपकर बचने की बहुत कोशिश की लेकिन बच नहीं सका वह ठंड से कांपने लगा तभी बया ने बंदर से कहा कि हम तो छोटे जीव हैं फिर भी घोंसला बनाकर रहते है तुम तो मनुष्य के पूर्वज हो फिर भी इधर उधर भटकते फिरते हो तुम्हें भी अपना कोई ठिकाना बनाना चाहिए। बंदर को बया की इस बात पर जोर से गुस्सा आया और उसने आव देखा न ताव उछाल मारकर बबूल के पेड़ पर आ गया और उस डाली को जोर जोर से हिलाने लगा जिस पर बया का घोंसला बना था। बंदर ने डाली को हिला हिला कर तोड़ डाला और खार में फेंक दिया। बया अफसोस करके रह गया। इस सारे नजारे को दूर टीले पर बैठा एक संत देख रहे थे उन्हें बया पर तरस आने लगा और अनायास ही उनके मुं

मनचाही मंजिल उन्हें ही मिलती है जो...

बड़े खुशनसीब होते हैं वे जिनका सपना पूरा हो जाता है। वरना तो ज्यादातर लोगों को यही कह कर अपने मन को समझाना होता है कि- किसी को मुकम्मिल जंहा नहीं मिलता, कभी जमीं तो कभी आंसमा नहीं मिलता। लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं है। मंजिल के मिलने के पीछे लक का हाथ तो होता है, पर एक सीमा तक ही, वरना चाह और कोशिश अगर सच्ची हो तो कायनात भी साथ देती है। अगर आपको जीवन में सफल बनना है तो अपने लक्ष्य के प्रति सचेत रहना जरूरी है। आपकी पूरी नजर आपके लक्ष्य पर होनी चाहिए। तभी आपकी सफलता निश्चित हाती है। आइये चलते हैं एक वाकये की ओर... एक मोबाइल कम्पनी में इन्टरव्यू के लिए के लिए कुछ लोग बैठै थे सभी एक दूसरे के साथ चर्चाओं में मशगूल थे तभी माइक पर एक खट खट की आवाज आई। किसी ने उस आवाज पर ध्यान नहीं दिया और अपनी बातों में उसी तरह मगन रहे। उसी जगह भीड़ से अलग एक युवक भी बैठा था। आवाज को सुनकर वह उठा और अन्दर केबिन में चला गया। थोड़ी देर बाद वह युवक मुस्कुराता हुआ बाहर निकला सभी उसे देखकर हैरान हुए तब उसने सबको अपना नियुक्ति पत्र दिखाया । यह देख सभी को गुस्सा आया और एक आदमी उस युवक से बोला कि हम सब तुमसे पहले यहां