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रोजा गुनाहों और बुराइयों से बचने की ढाल है

रमजान का पवित्र महीना पुरे शबाब पर है। हर ओर वातावरण आध्यात्मिक है। हदीस के अनुसार रोजा को तीन अशरा(दस दिन की अवधि) में विभक्त किया गया है। पहला अशरा रहमत का, दूसरा मगफिरत का ओर अन्तिम हिस्सा जहन्नुम से छुटकारे का। ज्यों -ज्यों रमजान महीने का दिन घटता जाता है, रोजेदार की परीक्षा ओर कठिन होती जाती है।
रोजा रखने से इसका प्रभाव तो शरीर पर परता है, परन्तु रोजा के प्रति आस्था कमजोरी के उस एहसास को क्षीण कर देती है। हर रोजेदार के भीतर ईश परायणता प्रवेश कर जाती है। अपने मन, वचन व कर्म से वह इस परीक्षा में सफल होने का प्रयास करता है। एक सच्चा ओर पक्का रोजेदार वहीँ होता है, जिसका हर अंग रोजे की हालत में होता है। उसके वचन व कर्म से तकवा, इबादत ओर नेकी की ही भावना बरसती है।
इस महीने का असल उद्देश्य कुरान पढ़ना, सुनना, सीखना ओर अपने भीतर उस पर अमल करने की सामर्थ्य पैदा करना है। इसके लिए सबसे अधिक इस बात का ख्याल रखना चाहिए की हमारे दिल में यह बात पुरी तरह स्पष्ट रहे कि अल्लाह हमें क्या कह रहा है। हमारा दिल उस सोच में पुरी तरह से डूब जाए ओर अपने अन्दर उसकी हिदायतों के अनुसार अमल करने कि इच्छा जागृत हो।
पवित्र ग्रन्थ कुरान का अवतरण रमजान महीने के अन्तिम अशरा में शुरू हुआ। जिस मुबारक रात में यह शुरुआत हुई उस रात को लैलतुल क़द्र (गौरव-प्राप्त रात्रि ) कहते है। पवित्र कुरान में है, 'हमने इस कुरान को लैलतुल क़द्र में उतारा ओर तुम्हे क्या मालूम कि क़द्र कि रात क्या है। क़द्र कि रात उत्तम है हजार महीनों से, उसमे फ़रिश्ते ओर रूह अपने पालनहार के हुक्म से हर काम के इंतजाम के लिए उतरते है। वह रात पुर्णतः शान्ति ओर सलामती वाली है, उषा काल के उदय होने तक। ' हदीस में आता है कि लैलतुल क़द्र बड़ी बरकत वाली रात है, ओर यह रमजान महीने के अन्तिम दस दिनों कि पांच ताक (विषम) रातो (२१वी, २३वी, २५वी, २७वी, एवं २९वी) में से कोई एक रात है। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) कहते है, ' लैलतुल क़द्र को रमजान के आखिरी अशरे कि ताक रातों में तलाश करो।' (हदीस बुखारी)। इस दिव्या रात्रि कि इतनी अधिक महत्ता, महिमा ओर क़द्र इसलिए है कि इसी रात को अल्लाह ने सभी इंसानों कि रहनुमाई ओर हिदायत के लिए अपने अन्तिम दूत मुहम्मद साहब पर १७ अगस्त ६१० ई०)से पवित्र कुरान उतारना शुरू किया। हजरत के मक्का से मदीना हिजरत करने के दुसरे साल रोजा को अनिवार्य किया गया : ऐ ईमान वालों! तुम पर रोजा अनिवार्य किया गया जिस प्रकार तुमसे पहले के लोगों पर किए गए थे, ताकि तुम डर रखने वाले बन जाओ। (२:१८३)।
नेकी, भलाई ओर ईश परायणता का अर्थ काफी विस्तृत है। भूखे को खाना खिलाना, रोगियों कि चिकित्सा करना, उनकी सेवा-टहल करना, अनाथो ओर विधवाओं का ख्याल रखना, मुहतजों ओर दरिद्रो कि यथासंभव सहायता करना - ये सब ईश परायणता के कि अंग है। इस सेवा के पात्र सब है - अपना-पराया, मित्र-परोसी, आम मुसलमान ओर अन्य सभी इन्सान।
हजरत मुहम्मद साहब ने फ़रमाया, 'रोजा गुनाहों ओर बुराइयों से बचने कि ढाल है।' रोजा मानव जाति को यह संदेश देता है कि वह पेट पूजा को ही अपने जीवन का उद्देश्य न समझे, जीवन का उद्देश्य इससे कहीं बड़ा है। रोजे का अर्थ मात्र भूखा-प्यासा रहना नहीं है, बल्कि हर बुरे से परहेज करने ओर उससे दूर रहने को रोजा कहा गया है। जो व्यक्ति रोजा रख कर झूट बोलने ओर झूट पर अमल करने से बाज नहीं आया तो अल्लाह को उसके भूके-प्यासा रहने कि कोई जरुरत नहीं।
रमजान के पुरे महीने में रोजा को अनिवार्य ठहराने का मकसद यह है कि इस महीने में प्रशिक्षण प्राप्त कर इन्सान वर्ष के शेष ११ महीनों में भलाई ओर कल्याण का कम करता रहे। रोजेदार कि अपनी भूख-प्यास जहाँ उसमे ईश परायणता, आत्म-नियंत्रण, धैर्य के गुण पैदा करने का जरिए बन सकती है, वहीँ उसे दूसरो पर भूख-प्यास ओर दुःख-दर्द में जो कुछ बीतती है, उसका अनुभव भी कराती है।

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