एक बार रेल से यात्रा करते हुए एक अजीब प्राणी से मुलाकात हुई। मैं अभी आकर अपनी सीट पर बैठा ही था की एक सज्जन उठे और मेरा पैर छूकर क्षमा मांगने लगे। इससे पहले की मैं कुछ समझ पाता, वह बोले- आप बेफिक्र रहे। मेरी वजह से भविष्य में भी आपको कोई परेशानी नहीं होगी आपको जो करना हो कर डाले।
मैं एक क्षण के लिए स्तंभित रह गया। उन्हें गौर से देखा तो वह मुझे बिल्कुल अजनबी लगे। मैंने कहा - भाई साहब, आपको शायद कोई मुगालता हुआ है। मैंने तो पहले आपको कभी देखा भी नहीं और न ही ऐसी कोई बात हुई है जिसके लिए आप क्षमा मांग रहे है। वह बिना मुखातिब हुए झुंझला कर बोले - आप भी भारतीय है और मुझे भी भारत में ही रहना है... यहाँ सही होते हुए भी सही बात कहना पाप है। वो- वो जो साइड वाली सीट पर पढ़े-लिखे श्रीमान जी तंग पर तंग रखे रास्ता रोके बैठे है, वो अपने जूते के टेल का स्पर्श हर आते-जाते को कराने में न जाने क्या शान समझ रहे है। मैं भी तीन बार उधर से गुजरा तो इनके कीचर से सने जूते के स्पर्श स मेरी पैंट की काया पर इनकी सभ्यता की मुहर दर्ज हो गई।
मैंने जब इन महाशय से प्रार्थना की कि भाई साहब आप पैर नीचे कर ले तो उन्होंने फ़रमाया - चल, चल मुझे बैठने का ढंग सिखा रहा है। जा तुझे जो करना हो कर ले। मैं तो ऐसे ही बैठूँगा। मैंने जब तहजीब का वास्ता दिया तो ये जनाब मुझसे मेरी हैसियत पूछने लगे। खैर, अभी इस हादसे को हुए पॉँच मिनट भी न गुजरे थे कि रोज के कम धंधे वाले डेली कोम्युत्र्स इस आरक्षित डिब्बे में चढ़ गए और यात्रियों को धकिया -धकिया कर जहाँ-तहां बिना पूछे बैठने लगे। जोर-जोर से हा-हा, ही-ही करते हुए औरो को भी बुलाकर उन्होंने मेरी ऊपर वाली बर्थ को ऐसे अल्लोट कर दिया जैसे हमारा उससे कोई वास्ता ही न हो। जूता पहने-पहने पॉँच छः हमारे बिस्तर पर जा बैठे। उनमे से एक-दो ने जूते उतार कर पंखो पर रख दिया।
मैं नीचे वाली सीट पर खाना खा रहा था कि जूतों में लगी धुल मेरे खाने में आ परी। मैंने ऐतराज किया तो ऊपर से आवाज आई - लगता है पहली बार ट्रेन में बेठा है। मुह्जोरी के बीच एक बोला - अगर ऐसा ही है तो भाई साब आप हवाई जहाज से यात्रा क्यो नहीं करते। उनके इस वक्तव्य पर उनकी साडी मण्डली मेरा मजाक उराने लगी।
मैं उनकी बदतमीजियां सहते-सहते तंग आ गया था। काफी देर से खाना बहार फेकने कि सोच रहा था खाना फेकते हुए मेरे मुंह से न चाहते हुए भी निकल गया - ये इसी तरह इक्कीसवीं सदी में न जाने कैसे पहुँच गए। तो एक आवाज आई - पीढी दर पीढी। इस पर सभी दांत निपोरने लगे। अ़ब मुझसे न रहा गया मैंने कह ही डाला - इस पीढी तक तो शर्म, हया क्या होती है यह लेना चाहिए था। कॉमन एटिकेट्स तो आ जाने चाहिए थे। आप में से कोई भी शायद पैतीस चालीस से कम नहीं है और शायद अनपढ़ भी नहीं है।
मेरा इतना कहना था कि एक ऊपर से कूद कर मेरे सामने खरा हो गया। कहने लगा- आबे, हमें बेशर्म कह रहा है। दांत तोर दूंगा। एटिकेट- बेतिकैत साब भूल जाएगा। मैंने संयत होते हुए क्षमा मांगी और कहाँ - भाई, आपका कोई कसूर नहीं है, इतनी तह्जीबे आई इस मुल्क में किसी से तो कुछ सिख लिया होता। लेकिन इसके बदले आपने अपनी ग़लत परम्पराओं और आचरणों को कायम रखा- वाकई आप महान है।
यह वृतांत सुनकर उस सज्जन ने कहा - अ़ब मैं हर किसी से माफ़ी मांग रहा हु। आपसे भी एडवांस माफ़ी मांग ली है। मैंने उस ट्रस्ट आत्मा से कहा - भाई साहब, मैं एक शाश्वत विचार दे रहा हु। हमें ऐसे लोगों के बीच ही जीना होगा। बेहतर है, अपनी खाल मोटी कर ले। मेरा वाक्य अभी पुरा भी न होने पाया था कि डिब्बे के बीच से बेसुरी आवाजों में कन्फोरिया कीर्तन शुरू हो गया।
मैं एक क्षण के लिए स्तंभित रह गया। उन्हें गौर से देखा तो वह मुझे बिल्कुल अजनबी लगे। मैंने कहा - भाई साहब, आपको शायद कोई मुगालता हुआ है। मैंने तो पहले आपको कभी देखा भी नहीं और न ही ऐसी कोई बात हुई है जिसके लिए आप क्षमा मांग रहे है। वह बिना मुखातिब हुए झुंझला कर बोले - आप भी भारतीय है और मुझे भी भारत में ही रहना है... यहाँ सही होते हुए भी सही बात कहना पाप है। वो- वो जो साइड वाली सीट पर पढ़े-लिखे श्रीमान जी तंग पर तंग रखे रास्ता रोके बैठे है, वो अपने जूते के टेल का स्पर्श हर आते-जाते को कराने में न जाने क्या शान समझ रहे है। मैं भी तीन बार उधर से गुजरा तो इनके कीचर से सने जूते के स्पर्श स मेरी पैंट की काया पर इनकी सभ्यता की मुहर दर्ज हो गई।
मैंने जब इन महाशय से प्रार्थना की कि भाई साहब आप पैर नीचे कर ले तो उन्होंने फ़रमाया - चल, चल मुझे बैठने का ढंग सिखा रहा है। जा तुझे जो करना हो कर ले। मैं तो ऐसे ही बैठूँगा। मैंने जब तहजीब का वास्ता दिया तो ये जनाब मुझसे मेरी हैसियत पूछने लगे। खैर, अभी इस हादसे को हुए पॉँच मिनट भी न गुजरे थे कि रोज के कम धंधे वाले डेली कोम्युत्र्स इस आरक्षित डिब्बे में चढ़ गए और यात्रियों को धकिया -धकिया कर जहाँ-तहां बिना पूछे बैठने लगे। जोर-जोर से हा-हा, ही-ही करते हुए औरो को भी बुलाकर उन्होंने मेरी ऊपर वाली बर्थ को ऐसे अल्लोट कर दिया जैसे हमारा उससे कोई वास्ता ही न हो। जूता पहने-पहने पॉँच छः हमारे बिस्तर पर जा बैठे। उनमे से एक-दो ने जूते उतार कर पंखो पर रख दिया।
मैं नीचे वाली सीट पर खाना खा रहा था कि जूतों में लगी धुल मेरे खाने में आ परी। मैंने ऐतराज किया तो ऊपर से आवाज आई - लगता है पहली बार ट्रेन में बेठा है। मुह्जोरी के बीच एक बोला - अगर ऐसा ही है तो भाई साब आप हवाई जहाज से यात्रा क्यो नहीं करते। उनके इस वक्तव्य पर उनकी साडी मण्डली मेरा मजाक उराने लगी।
मैं उनकी बदतमीजियां सहते-सहते तंग आ गया था। काफी देर से खाना बहार फेकने कि सोच रहा था खाना फेकते हुए मेरे मुंह से न चाहते हुए भी निकल गया - ये इसी तरह इक्कीसवीं सदी में न जाने कैसे पहुँच गए। तो एक आवाज आई - पीढी दर पीढी। इस पर सभी दांत निपोरने लगे। अ़ब मुझसे न रहा गया मैंने कह ही डाला - इस पीढी तक तो शर्म, हया क्या होती है यह लेना चाहिए था। कॉमन एटिकेट्स तो आ जाने चाहिए थे। आप में से कोई भी शायद पैतीस चालीस से कम नहीं है और शायद अनपढ़ भी नहीं है।
मेरा इतना कहना था कि एक ऊपर से कूद कर मेरे सामने खरा हो गया। कहने लगा- आबे, हमें बेशर्म कह रहा है। दांत तोर दूंगा। एटिकेट- बेतिकैत साब भूल जाएगा। मैंने संयत होते हुए क्षमा मांगी और कहाँ - भाई, आपका कोई कसूर नहीं है, इतनी तह्जीबे आई इस मुल्क में किसी से तो कुछ सिख लिया होता। लेकिन इसके बदले आपने अपनी ग़लत परम्पराओं और आचरणों को कायम रखा- वाकई आप महान है।
यह वृतांत सुनकर उस सज्जन ने कहा - अ़ब मैं हर किसी से माफ़ी मांग रहा हु। आपसे भी एडवांस माफ़ी मांग ली है। मैंने उस ट्रस्ट आत्मा से कहा - भाई साहब, मैं एक शाश्वत विचार दे रहा हु। हमें ऐसे लोगों के बीच ही जीना होगा। बेहतर है, अपनी खाल मोटी कर ले। मेरा वाक्य अभी पुरा भी न होने पाया था कि डिब्बे के बीच से बेसुरी आवाजों में कन्फोरिया कीर्तन शुरू हो गया।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें
Aap sabhi bhaiyo & bahno se anurodh hai ki aap sabhi uchit comment de............
jisse main apne blog ko aap sabo ke samne aur acchi tarah se prastut kar saku......