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बरी मछली और छोटी मछली

अ़ब कहने को तो कोई भी कह देता है, लेकिन प्रधानमंत्री जी बरे आदमी ठहरे। वह छोटी मछलियों के साथ बरी मछलियों को पकरने की बात कह रहे है। बहुत मुश्किल काम बता रहे है। मन तो हमारा भी बहुत करता है, पर क्या करे। बरी मछलियों को पकरना कोई आसान काम थोरे ही है। छोटी मछलियों का क्या, कांटा फेंका, थोरा सा चारा लगाया और खींचा। मछली ख़ुद ही खिंची चली आती है।
लेकिन बरी मछलिया, बाप रे बाप। वो कोई कम खतरनाक थोरे ही होती है। व्हेल जैसा तो उनका कद होता है। इन छोटे- छोटे काँटों के साथ उनको पकरना असंभव कम है। इतनी भारी होती है की मालूम परा की उनको पकरने गए तो और ख़ुद ही नहीं रहे। उनके नीचे दब गए तो कोई उठाने वाला भी नहीं मिलेगा। और केवल कद ही बरा हो, तो एक बार हिम्मत कर भी ले। लेकिन कभी उनके दांतों की और निगाह दौराए तो पता चलेगा। छोटा-मोटा आदमी तो बेहोश ही हो जाएगा। साहब, उनके दांतों से लोहा लेना अपने जैसे छोटे-मोटे आदमी के बस की तो बात ही नहीं है। अपन तो छोटे से आदमी है। कांटा चुभता है उसी में तिलमिला जाते है।
और फ़िर बरी मछलियों के बारे में कुछ पता भी नहीं रहता। बरी मछली पद पर रहे या न रहे, वो हमेशा ही बरी मछली रहती है। जंगल तंत्र का कोई भरोसा नहीं, कोई भी, कभी भी, कहीं भी सवार हो सकता है। आज वो कुछ भी नहीं है। लेकिन क्या ठिकाना कल वो ही सब कुछ हो। क्योंकि जनतंत्र में वोट का अधिकार रखने वाले ये लाखों- करोरों लार्वे किसी को भी चुनकर सर पर बिठा देते है। अ़ब जो इतनी भारी मछली सर पर बैठ जाए, तो कोई कैसे जुबान खोल सकता है।
अ़ब प्रधानमंत्री कह रहे है की उन पर नज़र रखी जाए। तो बरी मछलियों का तेज ही इतना होता है की आंखे चुंधिया जाती है, नजर ठहर नहीं पाती। और साहब अगर गलती से बरी मछली को पता लग जाए की उन पर नजर रखी जा रही है, तो बस वह एक ही छलांग में समूचा निगलने को तैयार हो जाती है। फ़िर बरी मछली भी क्या करे। कोई ऐसे ही बरी मछली नहीं बन जाता। जाने क्या-क्या ज्तन करने परते है तब अंडे से बरी मछली तक का सफर तय होता है। कितने चारे निगलने परते है, घोटालों के नाना प्रकार के जिम खंगालने परते है।
जब मछली बरी हो जाती है तो पेट भी बरा हो जाता है। अ़ब सामान्य खुराक से तो कोई बरा बन नहीं सकता। भारी खुराक जुटानी परती है। भारी खुराक के लिए मछली कुछ तो करेगी। पेट भरने का अधिकार तो सभी को है। सो उस बिचारी मछली को अपने हिसाब से खुराक तो जुटानी परती है। अ़ब सब ऊँगली तो फ़ौरन उठा देते है, लेकिन कोई बरी मछली के दिल से नहीं पूछता। बिचारी को बरे पेट की क्षुधा शांत करने के लिए कितने पापर बेलने परते है। कहाँ-कहाँ निगाह नहीं रखनी परती। किधर-किधर नहीं देखना परता।
अ़ब भई आसमान में बैठकर कोई बरी मछलियों के लिए कुछ भी कह दे, पर साहब रहना तो हमें इसी समुद्र में है। अ़ब कोई समुद्र में रहकर बरी मछली से भला कैसे बैर कर सकता है। हमारी तो औकात ही क्या है। अरे हम तो छोटी मछली की तरह है। या फ़िर सही बात तो छोटी मछली कहने में भी शर्म आ रही है। हम तो बिलबिलाते छोटे-छोटे कीरे जैसे है। बरी-बरी मछलियों से भला हम कैसे पंगा ले सकते है। हमारे भी तो बाल-बच्चे है, हमारे भी तो पेट है, भले ही छोटे-छोटे से है।
आज अगर गलती से हमने उन पर नजर डाल भी ली, तो कल से इनकी नजर से कौन बचायेगा। इनका तो कुछ नहीं बिगरता, ये तो शाश्वत है, अमर है, अजर है। सदा ही इनके बरे पेट व बरे तीखे दांत कायम रहेंगे। लेकिन हम जैसे छोटे लोगों का क्या होगा? सो किसी छोटी मछली पर ही नजर रखते है। आख़िर काम तो करना ही है।

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