सुख – दुख। अजीब खेल है। दुख में सुख और सुख के साथ दुख। सामान्यत: जीवन की सारी कहानी इन्हीं दो चक्रों में सिमट कर रह जाती है। दो होना यानी द्वंद। हम मजबूत द्वंद-जाल में ही तो जकडे हैं। मेरा-तेरा, धर्म-अधर्म, सच-झूठ, हार-जीत, हानि-लाभ, हेड-टेल, गरीबी-अमीरी, सफलता-विफलता, घृणा-प्रेम, अंधेरा-उजाला, जन्म-मृत्यु, जवानी-बुढापा, ऊंच-नीच, स्त्री-पुरुष, जड-चेतन, राग-द्वेष, धरती-आकाश, अच्छा-बुरा, पाप-पुण्य, ज्ञान-अज्ञान और जीव-ईश्वर वगैरह सब द्वंद ही तो हैं। द्वंद ही संसार है और संसार में सुख मृगतृष्णा ही है।
आदि या शायद अनादि काल से मानव दुख से बचने और सुख के रास्ते संधान करने में लगा है। न जाने कितने हजार साल पहले हमारे मंत्रदृष्टा ऋषियों ने ” सर्वे भवन्तु सुखिन: मा कश्चिद दुख:भाग्भवेत” गाया होगा । आज भी कुछ धार्मिकनुमा कार्यक्रमों में यह मंत्र हम सुनते हैं। लेकिन हम कितने सुखी हो पाए और दूसरों को दु:खरहित कर पाए , कह नहीं सकते।
आपने कभी विचार किया है, हम क्यों जीना चाहते हैं ? मरने से क्यों भागते हैं ? तमाम दुख दर्द विफलता और आघात-प्रतिघात सह कर भी क्यों जीते रहना चाहते हैं ? पैसे के लिए, नाम के लिए,बच्चों के लिए, पत्नी-प्रेयषी के लिए, देश के लिए ? मैं मानता हूं सुख के लिए । हम सुख-संतृप्त होने के लिए जीना चाहते हैं। किसी के लिए या जीते रहने के लिए नहीं जीते। सुखेच्छा ही जिजीविषा बढाती है।
पर क्या जीवन में सुख मिलता है ? हम दुखों से बचने को छटपटाते रहते हैं। सुख समेटने को करणीय- अकरणीय क्या-क्या नहीं करते। पहले जीने के लिए और फिर सुख-सुविधा से जीने के लिए ही तो सारे उद्यम-उपक्रम करते हैं। सत्कार्य-सत्संग से अत्याचार-अधर्म तक। हत्या से प्रेमालिंगन तक । फिर भी सुख पकड में नहीं आता। मिलता भी है तो जैसे मुट्ठी में पानी। सुख की प्यास-अग्नि बुझती नहीं और दुख पिंड नहीं छोडते।
सुख है कहां ? पैसे-सम्पन्नता में, शक्ति-यौवन में, पद-अधिकारिता में, पढालिखा-विद्वान या फिर सेलेब्रिटी-वीवीआईपी वगैरह होने में ? कह सकते हैं- अनिवार्यत: नहीं। ये सुख-साधन होने जैसा दृश्य तो बना सकते हैं, पर सुखी नहीं। ऐसी स्थितियों वाले अधिकांश लोग सदैव हंसते-मुस्कराते और ऐंठ -अकड कर चलते-बोलते दिख सकते हैं, पर उनके अंतस में सुखों का कितना सूखा है, यह वे ही जानते हैं।
हम देखते हैं कि कोई कितना प्रभावशाली-महत्वपूर्ण क्यों न हो , उसके लिए दुख न आए, सदैव सुख ही रहे ऐसा किमपि संभव नहीं होता। एक छूटा, दूसरा दुख मुंह बाए खडा रहता है। कभी कभी लगता है सुख केवल भुलावा-भ्रम है, दुख ही होता है। बचपना है, बडों की स्नेह छाया है। जवानी है , मन बहलाने के ढेरों साधन हैं। दोनों स्थितियों में सुख लग सकता है , पर आगे कितने दुख-दैत्य खडे इंतजार कर रहे हैं ,पता नहीं होता।
महात्मा कबीर को न सुख मिला था और न खोजने पर कोई सुखी। तभी तो उन्होंने कहा था-
जा दिन ते जिव जनमिया, कबहुं न पावा सुख
डालै डालै मैं फिरा, पातै पातै दुख।
सुखिया ढूंढत मैं फिरूं , सुखिया मिलै न कोय
जाके आगे दुख कहूं, पहिले उठै रोय ।
चाहने से सुख नहीं मिलता और न चाहने से दुख जाता नहीं। कई बार प्रारंभ में जो सुखदायी लगता है वह दुख का कारण बनता है। जैसे-अति बिषय भोग,व्यसन, शराब -सिगरेट व अन्य मादक पदार्थ और अयुक्त आहार-विहार आदि। दुख या दुखों का भी अपना एक सुख होता है। दोनों यावज्जीवन लगे रहते हैं। संयोग- वियोग में, सोने-जागने में, गरीबी-अमीरी में, खाने-पीने और उसके अपशिष्ट उत्सर्जन में।
दोनों महत्वपूर्ण हैं। दुख के साथ दर्द जुडा होता है और सुख का सजातीय आनंद है। दुख से सुख और दूसरें के दुख के महत्व का पता चलता है। संसार में सुख-दुख दोनों मिलते हैं, लेकिन सुख क्षणिक और आभासी लगता है। उसके साथ दुख भी लगा होता है। इसी लिए कहते हैं कि सुख पाना चाहते हो तो सुख बाटो। प्रेम बाटो। प्रेम सुख है। यही धर्म है। धर्म का फल सुख है। धर्मवान सुख पाता है। सुख देने में कोमलता रहती है और लेने में कठोरता। Every day is a New Year`s Day and every night is a Xmas Night -सुख पाने और देने का यह महत्वपूर्ण सूत्र लगभग सौ साल पहले अमेरिका में जब स्वामी राम तीर्थ ने बोला था तो सभागार तालियों से गूंज उठा था।
पुरुषार्थी दुख-दर्द से घबडाता नहीं। उनसे पार पाने के प्रयासों में वह बडे काम कर जाता है। साहित्य, संगीत, कला सृजन जीवनोपयोगी दर्शन -आविष्कार। कभी कभी शास्वत सुख की तलाश भी। किसी ने कहा है – ज्ञानी काटै ज्ञान से, मूरख काटै रोय। सामान्य और समझदार लोगों में यही अंतर है। विषय-विलासियों को दुख-सुख ज्यादा व्यापते हैं। पुरुषार्थियों को दुख के अनुभव का वक्त कहां ? गले में कैंसर के भयावह कष्ट से पीडित होने के बावजूद स्वामी राम कृष्ण परमहंस यथावत कीर्तन- ध्यान में लीन रहते थे।
मोटे तौर सुख सांसारिक और पारमार्थिक होता है। पहले में बिषय-काम सुख, नाम-अधिकार होने का सुख, सफलता- सम्पन्नता का सुख, पुत्र-पत्नी, रिश्ते-नातों समेत वे सभी सुख होते हैं जिनका संबंध संसार और शरीर से होता है। दूसरे में प्रेम, ज्ञान, मोक्ष, भक्ति, अर्निवचनीय,ब्रह्म सुख सत्संग सुख वगैरह आते हैं। इन सुखों में कहा जाता है कि दुखों से निवृत्ति हो जाती है। कहते है कि कर्तव्य कर्म करने ,परोपकार और धर्मपालन से सांसारिक और पारलौकिक दोनों सुख मिलते हैं। इसे स्वधर्म व रुचि के अनुरूप कार्य-वयवहार कर पाने का सुख भी कह सकते हैं। जैसे वीर फौजी के लिए युद्ध सुख और ज्ञानी -ध्यानी के लिए समाधि में जाने की स्थितियों का सुख।
सुख्ा-दुख का संबंध अनुकूलता-प्रतिकूलता से होता है। मनोनुकूल परिस्थिति आने पर सुख और प्रतिकूल परिस्थिति आने पर दुख भेग होता है। इन्हें मन का फेर या मनोगत भाव भी कह सकते हैं। विचारकों के अनुसार परिस्थितियों से अप्रभावित रहना- सम रहना सीख कर सुख-दुखों के भोग से बचा जा सकता है। सुखद हालत में पुण्य खर्च होते हैं और दुख में पाप कटते हैं। किसी को दुख देते हैं तो वह अपने पाप काटकर मुक्त हो रहा है, लेकिन हम अपने पाप बढा रहे हैं।इसी लिए – परहित सरिस धर्म नहिं भाई, पर पीडा सम नहिं अधमाई - कहा गया है।
दुख्ा-सुख भोग चेतन में ही होता है। जीव-जंतु, पेड-पौधे तक सभी इससे प्रभावित होते हैं। सदियों से मानव सुख-दुख की गुत्थी सुलझाने में लगा है। धर्म-दर्शन की उत्पत्ति का आधार यही गुत्थी है।धर्म ग्रंथों में सुख-दुख का गंभीर व विस्तृत विवेचन और मनोविज्ञान है। गीता , रामायण और कुरान तीनों एक मत हैं कि सांसारिक सुख क्षणिक हैं क्यों कि संसार मरणधर्मा और परिवर्तनशील है।
हम अनंत कामनाओं के साथ संसार सुख के लिए पागल रहते हैं, लेकिन बदले में दुख मिलता है।संसार में कुछ भी पूर्ण और स्थायी नहीं है। परिछिन्न व परिवर्तनशील से मन नहीं भरता, तृप्ति नहीं होती। हम भूख-प्यास, नींद, स्वास्थ्य व शारीरिक परिवर्तन और संतति वृद्धि आदि की प्राकृतिक आवश्यकताओं व सीमाओं में बंधे हुए हैं। ईश्वर किसी को सब कुछ नहीं देता। किसी को कुछ देता है तो बहुत कुछ नहीं देता जिसका दंश उसे सालता रहता है। यहां संतोषं परमं सुखम् का सूत्र काम आता है।
सुख और संतोष का बढा नजदीकी संबंध है। संतोष से सुख होता है। संतोष के बिना कामनायें नष्ट या नियंत्रित नहीं होतीं। कामनाओं के रहते सुख पास नहीं फटकता। बिनु संतोष न काम नसाहीं, काम अक्षत सुख सपनेहु नाहीं। श्रीमदभागवत का एक श्लोक है- सदा संतुष्टमन: सर्वा:सुखमयादिशा: …… जैसे पैरों में जूते पहन कर चलने वाले को कंकड- कांटों का कोई भय नहीं होता उसी तरह जिसके मन में संतोष है, उसके लिए सदैव सर्वत्र सुख ही सुख है, दुख नहीं। कुरान मजीद ने भी संतोष और धैर्य पर बडा जोर दिया है।
काम मोह-अज्ञान है और संतोष-संयम ज्ञान-भक्ित का फल। भजन-भक्ति से काम मिटता है- राम भजन बिनु मिटहिं कि कामा। रामायण कहती है कि जिसके हृदय में भक्ति मणि है उसे कभी दुख नहीं सताते। राम भगति मनि उर बस जाके, दुख लवलेश न सपनेहु ताके। रामायण दुखों के तह तक जाती है। काक भुशुंडि पक्षिराज गरुड को दुखों को नष्ट करने का अपना निष्कर्ष बताते हैं- निज अनुभव अब कहहुं खगेसा, बिनु हरि भजन न जाहिं कलेसा। और भक्ति की लिए वृत्ति बदलनी पडेगी अन्यथा उसमें मन नहीं लगेगा। राम कहते हैं – पापवंत कर सहज सुभाऊ, भजन मोर तेहि भाव न काऊ। कुरान में संसार-सुखों का उपभोग करते हुए कभी खत्म न होने वाले स्वर्गिक सुखों की ओर ले जाने वाने मार्ग पर चलने पर जोर दिया गया है। यह रास्ता है-संयम, ज्ञान और ईशभक्ति का। बिखरे व अशिक्षित समाज को व्यवस्थित व अनुशासित करने का उद्देश्य होने से कुरान में संयम , सदाचार और नैतिकता पर सर्वाधिक जोर दिया गया है। धर्मनिष्ठों के लिए बार बार ऐसे मोहक व दिव्य सुखों का वर्णन किया गया है कि सुखापेक्षी लोग सहज ही आकर्षित हों। इसके विपरीत अधार्मिकों के लिए भीषण नारकीय यातनाओं और दुखों का मिलना बताया गया है। कुरान कहता है कि संसार के सुखों का उपभोग करो, लेकिन संयम- परहेजगारी के साथ। उनमें फंसो- डूबो नहीं।
यही बात गोस्वामी जी रामायण में कहते हैं। काम का ऐसा कौशलपूर्ण उपभोग कि वह धर्म और अर्थ का विरोधी न हो, नहीं तो उससे लोक-परलोक दोनों बिगडते हैं। काम क्रोध मद लोभ सब नाथ परक के पंथ। रामायण के अनुसार धर्मात्मा इन्द्रियजयी ही वस्तुत: वैषयिक सुख भोग करने में भी समर्थ होता है- गुनातीत अरु भोग पुरंदर।
मूर्ख लोग सुख आने पर फूल जाते हैं और दुख आने पर विलाप करते हैं। समझदार दोनों में संयमित रहता है- सुख हरषहिं दुख जड बिलखाहीं, दोउ सम धीर धरहीं मन माहीं। दुख सत्संग से जाता और कहने से कम होता है- जामवंत अंगद दुख देखी, कही कथा उपदेस विसेषी। सीता हनुमान से कहती हैं- कहेहू ते कुछ दुख घटि जाई…।
भगवान राम ने संसार और मृत्युलोक दोनों में सुख पाने का सरल सूत्र बताया है। लंका विजय के बाद अयोध्या में हुई एक आम सभा में उन्हों ने सुख के लिए उनकी बातें सुन कर गांठ बांध लेने को कहा था-
जौ परलोक इहां सुख चहहू, सुनि मम बचन हृदय दृढ गहहू।
भगति पक्ष हठ नहिं सठताई, दुष्ट तर्क सब दूरि बहाई।
बैर न विग्रह आस न त्रासा, सुखमय ताहि सदा सब आसा।
भक्ति के प्रति तो आग्रह हो, लेकन दूसरे के मत का खंडन करे। जिसने सब कुतर्कों को बहा दिया हो, जिसके मन में किसी के प्रति लडाई -झगडा , आशा और भय आदि नहीं है उसके लिए सभी दिशायें सुख देने वाली हैं।
दुख व्यक्ति को तोडता , असामान्य बनाता है। विषाद, हताशा, निराशा, कुंठा और क्रोध लाता है। अपराध- अनाचार करा देता है। सुख बांधता है। आत्म प्रगति की ओर उन्मुख होने से रोकता है। अहंकार पैदा करता और बदले में अन्याय- अत्याचार करवा देता है। साधक सुग्रीव झटका लगने पर, सम्पत्ति, परिवार और प्रभुता के साथ ही (काम) सुख को भी भक्ति में बाधक बताते हैं-
सुख सम्पत्ति परिवार बडाई, सब तजि करिहउं तव सेवकाई।
ये सब राम भगति के बाधक , कहहिं संत तव पद आराधक।
रामायण दरिद्र को सबसे बडा दुख और संत मिलन को सब से बडा सुख बताती है।
नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं, संत मिलन सम सुख जग नाहीं।बिषयरत ब्यक्ति के लिए अर्थाभाव सबसे बडा दुख है। दरिद्र का अर्थ अज्ञान- मोह भी है जो सब दुखों की जड- मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला – है। मोहयुक्त धनवान ब्यक्ति भी दुखी रह सकता है । धनहीन भी सुखी रह सकता है और धनवान होकर भी दुखी रह सकता है।
कोई रोवै महल में , वन में गावै कोय, दुख सुख्ा तो बाहर नहीं मन ही में सब होय।
गीता दोनों स्थिति में सम रहने को कहती है। अनुकूल- प्रतिकूल परिस्थिति ही हमें सुखी-दुखी बना कर बांधती है। कृष्ण प्रिय भक्तों के लक्षणों में ” सम दुखसुख:क्षमी ” कहते हैं। उन्हें सुख-दुख में सम रहने वाला क्षमाशील भक्त प्रिय है। सुख आता हुआ अच्छा और जाता हुआ बुरा लगता है। दुख आता हुआ बुरा और जाता हुआ अच्छा लगता है। इस लिए समान सोच रख कर कर्तव्य कर्म करना ही बुद्धिमत्ता है। गीता कहती है-शीतोष्णसुखदुखेषुसम:। सुख -दुख देने वाली अनुकूलता और प्रतिकूलता की परिस्थितियों से रहित नहीं रहा जा सकता। इस लिए कृष्ण अर्जुन से हानि -लाभ और जय-पराजय में समान रह कर युद्धरत होने को कहते हैं- लाभालाभौजयाजयो।
संतोष से समता आती है। समता से यानी राग-द्वेष मिटने पर सब कुछ भगवान ही हैं ( ईशावास्यमिदं सर्वम् यत्किंचितजगत्यांजगत -संसार में जो कुछ भी है सब में ईश्वर है- ईशोपनिषद और धरती से आकाशों तक में जो कुछ है सब का मालिक अल्लाह है-कुरान) ऐसा अनुभव हो जाता है। इस लिए भगवान भक्तों को समता देते हैं – ददामिबुद्धियोगम्। समता ही बुद्धियोग और कर्मयोग है – समत्वंयोग उच्यते।
जब तक राग-द्वेष रूपी द्वंद हैं तब तक दुख है। ईश्वर सुख स्वरूप-सुखपुंज है , इस लिए जीव स्वाभाविक रूप से सुख चाहता है। द्वंदों के रहते अनुपम ब्रह्म सुख की अनुभूति नहीं होती। राग-द्वेष संसार को महत्व देने से होते हैं। कुछ भी स्थायी न होने से संसार के राग-द्वेष भी नष्ट होने वाले हैं। लेकिन हम नये नये लोगों और वस्तुओं में इसे बनाये रखने का प्रयास करते हैं।
आइए, सुखी बनें और दूसरों के दुख बांटें।
आदि या शायद अनादि काल से मानव दुख से बचने और सुख के रास्ते संधान करने में लगा है। न जाने कितने हजार साल पहले हमारे मंत्रदृष्टा ऋषियों ने ” सर्वे भवन्तु सुखिन: मा कश्चिद दुख:भाग्भवेत” गाया होगा । आज भी कुछ धार्मिकनुमा कार्यक्रमों में यह मंत्र हम सुनते हैं। लेकिन हम कितने सुखी हो पाए और दूसरों को दु:खरहित कर पाए , कह नहीं सकते।
आपने कभी विचार किया है, हम क्यों जीना चाहते हैं ? मरने से क्यों भागते हैं ? तमाम दुख दर्द विफलता और आघात-प्रतिघात सह कर भी क्यों जीते रहना चाहते हैं ? पैसे के लिए, नाम के लिए,बच्चों के लिए, पत्नी-प्रेयषी के लिए, देश के लिए ? मैं मानता हूं सुख के लिए । हम सुख-संतृप्त होने के लिए जीना चाहते हैं। किसी के लिए या जीते रहने के लिए नहीं जीते। सुखेच्छा ही जिजीविषा बढाती है।
पर क्या जीवन में सुख मिलता है ? हम दुखों से बचने को छटपटाते रहते हैं। सुख समेटने को करणीय- अकरणीय क्या-क्या नहीं करते। पहले जीने के लिए और फिर सुख-सुविधा से जीने के लिए ही तो सारे उद्यम-उपक्रम करते हैं। सत्कार्य-सत्संग से अत्याचार-अधर्म तक। हत्या से प्रेमालिंगन तक । फिर भी सुख पकड में नहीं आता। मिलता भी है तो जैसे मुट्ठी में पानी। सुख की प्यास-अग्नि बुझती नहीं और दुख पिंड नहीं छोडते।
सुख है कहां ? पैसे-सम्पन्नता में, शक्ति-यौवन में, पद-अधिकारिता में, पढालिखा-विद्वान या फिर सेलेब्रिटी-वीवीआईपी वगैरह होने में ? कह सकते हैं- अनिवार्यत: नहीं। ये सुख-साधन होने जैसा दृश्य तो बना सकते हैं, पर सुखी नहीं। ऐसी स्थितियों वाले अधिकांश लोग सदैव हंसते-मुस्कराते और ऐंठ -अकड कर चलते-बोलते दिख सकते हैं, पर उनके अंतस में सुखों का कितना सूखा है, यह वे ही जानते हैं।
हम देखते हैं कि कोई कितना प्रभावशाली-महत्वपूर्ण क्यों न हो , उसके लिए दुख न आए, सदैव सुख ही रहे ऐसा किमपि संभव नहीं होता। एक छूटा, दूसरा दुख मुंह बाए खडा रहता है। कभी कभी लगता है सुख केवल भुलावा-भ्रम है, दुख ही होता है। बचपना है, बडों की स्नेह छाया है। जवानी है , मन बहलाने के ढेरों साधन हैं। दोनों स्थितियों में सुख लग सकता है , पर आगे कितने दुख-दैत्य खडे इंतजार कर रहे हैं ,पता नहीं होता।
महात्मा कबीर को न सुख मिला था और न खोजने पर कोई सुखी। तभी तो उन्होंने कहा था-
जा दिन ते जिव जनमिया, कबहुं न पावा सुख
डालै डालै मैं फिरा, पातै पातै दुख।
सुखिया ढूंढत मैं फिरूं , सुखिया मिलै न कोय
जाके आगे दुख कहूं, पहिले उठै रोय ।
चाहने से सुख नहीं मिलता और न चाहने से दुख जाता नहीं। कई बार प्रारंभ में जो सुखदायी लगता है वह दुख का कारण बनता है। जैसे-अति बिषय भोग,व्यसन, शराब -सिगरेट व अन्य मादक पदार्थ और अयुक्त आहार-विहार आदि। दुख या दुखों का भी अपना एक सुख होता है। दोनों यावज्जीवन लगे रहते हैं। संयोग- वियोग में, सोने-जागने में, गरीबी-अमीरी में, खाने-पीने और उसके अपशिष्ट उत्सर्जन में।
दोनों महत्वपूर्ण हैं। दुख के साथ दर्द जुडा होता है और सुख का सजातीय आनंद है। दुख से सुख और दूसरें के दुख के महत्व का पता चलता है। संसार में सुख-दुख दोनों मिलते हैं, लेकिन सुख क्षणिक और आभासी लगता है। उसके साथ दुख भी लगा होता है। इसी लिए कहते हैं कि सुख पाना चाहते हो तो सुख बाटो। प्रेम बाटो। प्रेम सुख है। यही धर्म है। धर्म का फल सुख है। धर्मवान सुख पाता है। सुख देने में कोमलता रहती है और लेने में कठोरता। Every day is a New Year`s Day and every night is a Xmas Night -सुख पाने और देने का यह महत्वपूर्ण सूत्र लगभग सौ साल पहले अमेरिका में जब स्वामी राम तीर्थ ने बोला था तो सभागार तालियों से गूंज उठा था।
पुरुषार्थी दुख-दर्द से घबडाता नहीं। उनसे पार पाने के प्रयासों में वह बडे काम कर जाता है। साहित्य, संगीत, कला सृजन जीवनोपयोगी दर्शन -आविष्कार। कभी कभी शास्वत सुख की तलाश भी। किसी ने कहा है – ज्ञानी काटै ज्ञान से, मूरख काटै रोय। सामान्य और समझदार लोगों में यही अंतर है। विषय-विलासियों को दुख-सुख ज्यादा व्यापते हैं। पुरुषार्थियों को दुख के अनुभव का वक्त कहां ? गले में कैंसर के भयावह कष्ट से पीडित होने के बावजूद स्वामी राम कृष्ण परमहंस यथावत कीर्तन- ध्यान में लीन रहते थे।
मोटे तौर सुख सांसारिक और पारमार्थिक होता है। पहले में बिषय-काम सुख, नाम-अधिकार होने का सुख, सफलता- सम्पन्नता का सुख, पुत्र-पत्नी, रिश्ते-नातों समेत वे सभी सुख होते हैं जिनका संबंध संसार और शरीर से होता है। दूसरे में प्रेम, ज्ञान, मोक्ष, भक्ति, अर्निवचनीय,ब्रह्म सुख सत्संग सुख वगैरह आते हैं। इन सुखों में कहा जाता है कि दुखों से निवृत्ति हो जाती है। कहते है कि कर्तव्य कर्म करने ,परोपकार और धर्मपालन से सांसारिक और पारलौकिक दोनों सुख मिलते हैं। इसे स्वधर्म व रुचि के अनुरूप कार्य-वयवहार कर पाने का सुख भी कह सकते हैं। जैसे वीर फौजी के लिए युद्ध सुख और ज्ञानी -ध्यानी के लिए समाधि में जाने की स्थितियों का सुख।
सुख्ा-दुख का संबंध अनुकूलता-प्रतिकूलता से होता है। मनोनुकूल परिस्थिति आने पर सुख और प्रतिकूल परिस्थिति आने पर दुख भेग होता है। इन्हें मन का फेर या मनोगत भाव भी कह सकते हैं। विचारकों के अनुसार परिस्थितियों से अप्रभावित रहना- सम रहना सीख कर सुख-दुखों के भोग से बचा जा सकता है। सुखद हालत में पुण्य खर्च होते हैं और दुख में पाप कटते हैं। किसी को दुख देते हैं तो वह अपने पाप काटकर मुक्त हो रहा है, लेकिन हम अपने पाप बढा रहे हैं।इसी लिए – परहित सरिस धर्म नहिं भाई, पर पीडा सम नहिं अधमाई - कहा गया है।
दुख्ा-सुख भोग चेतन में ही होता है। जीव-जंतु, पेड-पौधे तक सभी इससे प्रभावित होते हैं। सदियों से मानव सुख-दुख की गुत्थी सुलझाने में लगा है। धर्म-दर्शन की उत्पत्ति का आधार यही गुत्थी है।धर्म ग्रंथों में सुख-दुख का गंभीर व विस्तृत विवेचन और मनोविज्ञान है। गीता , रामायण और कुरान तीनों एक मत हैं कि सांसारिक सुख क्षणिक हैं क्यों कि संसार मरणधर्मा और परिवर्तनशील है।
हम अनंत कामनाओं के साथ संसार सुख के लिए पागल रहते हैं, लेकिन बदले में दुख मिलता है।संसार में कुछ भी पूर्ण और स्थायी नहीं है। परिछिन्न व परिवर्तनशील से मन नहीं भरता, तृप्ति नहीं होती। हम भूख-प्यास, नींद, स्वास्थ्य व शारीरिक परिवर्तन और संतति वृद्धि आदि की प्राकृतिक आवश्यकताओं व सीमाओं में बंधे हुए हैं। ईश्वर किसी को सब कुछ नहीं देता। किसी को कुछ देता है तो बहुत कुछ नहीं देता जिसका दंश उसे सालता रहता है। यहां संतोषं परमं सुखम् का सूत्र काम आता है।
सुख और संतोष का बढा नजदीकी संबंध है। संतोष से सुख होता है। संतोष के बिना कामनायें नष्ट या नियंत्रित नहीं होतीं। कामनाओं के रहते सुख पास नहीं फटकता। बिनु संतोष न काम नसाहीं, काम अक्षत सुख सपनेहु नाहीं। श्रीमदभागवत का एक श्लोक है- सदा संतुष्टमन: सर्वा:सुखमयादिशा: …… जैसे पैरों में जूते पहन कर चलने वाले को कंकड- कांटों का कोई भय नहीं होता उसी तरह जिसके मन में संतोष है, उसके लिए सदैव सर्वत्र सुख ही सुख है, दुख नहीं। कुरान मजीद ने भी संतोष और धैर्य पर बडा जोर दिया है।
काम मोह-अज्ञान है और संतोष-संयम ज्ञान-भक्ित का फल। भजन-भक्ति से काम मिटता है- राम भजन बिनु मिटहिं कि कामा। रामायण कहती है कि जिसके हृदय में भक्ति मणि है उसे कभी दुख नहीं सताते। राम भगति मनि उर बस जाके, दुख लवलेश न सपनेहु ताके। रामायण दुखों के तह तक जाती है। काक भुशुंडि पक्षिराज गरुड को दुखों को नष्ट करने का अपना निष्कर्ष बताते हैं- निज अनुभव अब कहहुं खगेसा, बिनु हरि भजन न जाहिं कलेसा। और भक्ति की लिए वृत्ति बदलनी पडेगी अन्यथा उसमें मन नहीं लगेगा। राम कहते हैं – पापवंत कर सहज सुभाऊ, भजन मोर तेहि भाव न काऊ। कुरान में संसार-सुखों का उपभोग करते हुए कभी खत्म न होने वाले स्वर्गिक सुखों की ओर ले जाने वाने मार्ग पर चलने पर जोर दिया गया है। यह रास्ता है-संयम, ज्ञान और ईशभक्ति का। बिखरे व अशिक्षित समाज को व्यवस्थित व अनुशासित करने का उद्देश्य होने से कुरान में संयम , सदाचार और नैतिकता पर सर्वाधिक जोर दिया गया है। धर्मनिष्ठों के लिए बार बार ऐसे मोहक व दिव्य सुखों का वर्णन किया गया है कि सुखापेक्षी लोग सहज ही आकर्षित हों। इसके विपरीत अधार्मिकों के लिए भीषण नारकीय यातनाओं और दुखों का मिलना बताया गया है। कुरान कहता है कि संसार के सुखों का उपभोग करो, लेकिन संयम- परहेजगारी के साथ। उनमें फंसो- डूबो नहीं।
यही बात गोस्वामी जी रामायण में कहते हैं। काम का ऐसा कौशलपूर्ण उपभोग कि वह धर्म और अर्थ का विरोधी न हो, नहीं तो उससे लोक-परलोक दोनों बिगडते हैं। काम क्रोध मद लोभ सब नाथ परक के पंथ। रामायण के अनुसार धर्मात्मा इन्द्रियजयी ही वस्तुत: वैषयिक सुख भोग करने में भी समर्थ होता है- गुनातीत अरु भोग पुरंदर।
मूर्ख लोग सुख आने पर फूल जाते हैं और दुख आने पर विलाप करते हैं। समझदार दोनों में संयमित रहता है- सुख हरषहिं दुख जड बिलखाहीं, दोउ सम धीर धरहीं मन माहीं। दुख सत्संग से जाता और कहने से कम होता है- जामवंत अंगद दुख देखी, कही कथा उपदेस विसेषी। सीता हनुमान से कहती हैं- कहेहू ते कुछ दुख घटि जाई…।
भगवान राम ने संसार और मृत्युलोक दोनों में सुख पाने का सरल सूत्र बताया है। लंका विजय के बाद अयोध्या में हुई एक आम सभा में उन्हों ने सुख के लिए उनकी बातें सुन कर गांठ बांध लेने को कहा था-
जौ परलोक इहां सुख चहहू, सुनि मम बचन हृदय दृढ गहहू।
भगति पक्ष हठ नहिं सठताई, दुष्ट तर्क सब दूरि बहाई।
बैर न विग्रह आस न त्रासा, सुखमय ताहि सदा सब आसा।
भक्ति के प्रति तो आग्रह हो, लेकन दूसरे के मत का खंडन करे। जिसने सब कुतर्कों को बहा दिया हो, जिसके मन में किसी के प्रति लडाई -झगडा , आशा और भय आदि नहीं है उसके लिए सभी दिशायें सुख देने वाली हैं।
दुख व्यक्ति को तोडता , असामान्य बनाता है। विषाद, हताशा, निराशा, कुंठा और क्रोध लाता है। अपराध- अनाचार करा देता है। सुख बांधता है। आत्म प्रगति की ओर उन्मुख होने से रोकता है। अहंकार पैदा करता और बदले में अन्याय- अत्याचार करवा देता है। साधक सुग्रीव झटका लगने पर, सम्पत्ति, परिवार और प्रभुता के साथ ही (काम) सुख को भी भक्ति में बाधक बताते हैं-
सुख सम्पत्ति परिवार बडाई, सब तजि करिहउं तव सेवकाई।
ये सब राम भगति के बाधक , कहहिं संत तव पद आराधक।
रामायण दरिद्र को सबसे बडा दुख और संत मिलन को सब से बडा सुख बताती है।
नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं, संत मिलन सम सुख जग नाहीं।बिषयरत ब्यक्ति के लिए अर्थाभाव सबसे बडा दुख है। दरिद्र का अर्थ अज्ञान- मोह भी है जो सब दुखों की जड- मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला – है। मोहयुक्त धनवान ब्यक्ति भी दुखी रह सकता है । धनहीन भी सुखी रह सकता है और धनवान होकर भी दुखी रह सकता है।
कोई रोवै महल में , वन में गावै कोय, दुख सुख्ा तो बाहर नहीं मन ही में सब होय।
गीता दोनों स्थिति में सम रहने को कहती है। अनुकूल- प्रतिकूल परिस्थिति ही हमें सुखी-दुखी बना कर बांधती है। कृष्ण प्रिय भक्तों के लक्षणों में ” सम दुखसुख:क्षमी ” कहते हैं। उन्हें सुख-दुख में सम रहने वाला क्षमाशील भक्त प्रिय है। सुख आता हुआ अच्छा और जाता हुआ बुरा लगता है। दुख आता हुआ बुरा और जाता हुआ अच्छा लगता है। इस लिए समान सोच रख कर कर्तव्य कर्म करना ही बुद्धिमत्ता है। गीता कहती है-शीतोष्णसुखदुखेषुसम:। सुख -दुख देने वाली अनुकूलता और प्रतिकूलता की परिस्थितियों से रहित नहीं रहा जा सकता। इस लिए कृष्ण अर्जुन से हानि -लाभ और जय-पराजय में समान रह कर युद्धरत होने को कहते हैं- लाभालाभौजयाजयो।
संतोष से समता आती है। समता से यानी राग-द्वेष मिटने पर सब कुछ भगवान ही हैं ( ईशावास्यमिदं सर्वम् यत्किंचितजगत्यांजगत -संसार में जो कुछ भी है सब में ईश्वर है- ईशोपनिषद और धरती से आकाशों तक में जो कुछ है सब का मालिक अल्लाह है-कुरान) ऐसा अनुभव हो जाता है। इस लिए भगवान भक्तों को समता देते हैं – ददामिबुद्धियोगम्। समता ही बुद्धियोग और कर्मयोग है – समत्वंयोग उच्यते।
जब तक राग-द्वेष रूपी द्वंद हैं तब तक दुख है। ईश्वर सुख स्वरूप-सुखपुंज है , इस लिए जीव स्वाभाविक रूप से सुख चाहता है। द्वंदों के रहते अनुपम ब्रह्म सुख की अनुभूति नहीं होती। राग-द्वेष संसार को महत्व देने से होते हैं। कुछ भी स्थायी न होने से संसार के राग-द्वेष भी नष्ट होने वाले हैं। लेकिन हम नये नये लोगों और वस्तुओं में इसे बनाये रखने का प्रयास करते हैं।
आइए, सुखी बनें और दूसरों के दुख बांटें।
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Aap sabhi bhaiyo & bahno se anurodh hai ki aap sabhi uchit comment de............
jisse main apne blog ko aap sabo ke samne aur acchi tarah se prastut kar saku......