हम कब से हैं ? जन्म लेने के बाद से? या फिर नामकरण के बाद से? उसके पूर्व नहीं थे ? या मृत्यु के बाद नहीं रहेंगे ? कह सकते हैं अस्तित्व का होना जीवन है और उस ‘होने’ का न रह जाना मृत्यु। दोनों का आधार जन्म है। तो फिर वही पुराना सवाल- पहले अंडा हुआ या मुर्गी ? पहले जन्म हुआ या मृत्यु ? जन्म हुआ तो मृत्यु भी होगी ही। दोनों क्या एक ही सिक्के के दो पहलू नहीं हैं ? तो फिर वह सिक्का क्या है ? जन्म पर थाली क्यों बजाना और मृत्यु पर मातम क्यों मनाना ?
हम विचार करें तो पाते हैं कि जन्म -मृत्यु की चर्खी अनवरत चलती रहती है। आ रहे और अपना पार्ट अदा कर जा रहे हैं। शरीर और मन में भी श्ह खेल चलता रहता है। हजारों लाखों कोशिकायें प्रति पल जन्मती-मरती रहती हैं। कितने ही भाव-विचार और संकंल्प-विकल्प आते जाते रहते हैं। हर सांस में आयु घट रही है, शरीर जर्जर हो रहा है । मर रहा है। एक क्षण भी स्थिर नहीं है। जवान होने पर लडकपन मर जाता है और बूढे होने पर जवानी भी मर जाती है। इसे रोक-टाल पाना किसी वश में नहीं है।
सब कुछ मरणशील- मरणधर्मा है। हम सब जानते हैं किएक दिन हम भी मरेंगे।सब बिछड जाएंगे। सब कुछ छूट जाएगा-
पत्ता टूटा पेड से ,ले गयी पवन उडाय
अब के बिछडे न मिलें , दूर पडेंगे जाय।
किसी दिन देख लेना , तुम्हें ऐसी नींद आएगी
तुम जग न पाओगे, दुनिया तुम्हें तुम्हें जगाएगी।
हम भी गुस्ताखी करेंगे , जिंदगी में एक बार
दोस्त पैदल चलेंगे, हम कंधों पर सवार।
बिना यह जाने कि हम कहां से आये हैं, कहां जाएंगे और हमारी मंजिल क्या है। हमारे होने का कोई मकसद भी है या यूं ही बस जीते जाना है ?मरने के बाद हम नहीं रह जाते। कुछ अर्से बाद हमारी यादें और नाम भी। उसी तरह जैसे कितने ही नाम-चेहरे और नाते5रिश्तेदार नहीं रहे। सुंदर चेहरा, सुगढ शरीर और बलिष्ठ देहयष्टि देखते देखते कैसी कमजोर काया में बदल जाती है। अधिकार और रोब टपकाती आवाज अनुग्रह की याचक हो जाती है। धीरे धीरे सब उठते रहते हैं। अपने-पराये सभी। बीमारी-बुढापा या किसी घटना- दुर्घटना के बहाने से। कितना आश्चर्यजनक है कि सब कुछ अस्थायी और खत्म होने वाला देखते- जानते हुए भी हम मृत्यु की चर्चा तक नहीं करना चाहते। इसका नाम तक नहीं लेना -सुनना चाहते। आंख मूंद कर दुनियादारी में ऐसे लगे रहना चाहते है मानों हम कभी नहीं मरेंगे- सामान सौ बरस का पल की खबर नहीं।
साधो ! यह मुर्दों का गांव
पीर मरे , पैगम्बर मरिहैं, मरिहैं जिंदा जोगी
राजा मरिहैं, परजा मरिहैं, मरिहैं वैद्य औ रोगी
चांद मरे औ सूरज मरिहैं
गुरू मरे और शिष्य भी मरिहैं……।
भारतीय मूल की वैज्ञानिक डा. प्रिया नटराजन के नेतृत्व में येल यूनिवर्सिटी के खगोलशास्त्रियों के दल ने एक महत्वपूर्ण अध्ययन में पाया है कि ब्रह्मांड लगातार फैल रहा है।डार्क एनर्जी उसका लगातार विस्तार कर रही है। डार्क एनर्जी अदृश्य ऊर्जा मानी जाती है। इस प्रक्रिया से ब्रह्मांड अंतत: एक दिन मृतप्राय और ठंढे बंजर में बदल जाएगा, जिसमें कुछ पैदा नहीं होगा और जीवन संभव नहीं होगा।
जिन रिश्तों में हम भूले और फूले रहते हैं वे इतने कच्चे होते हैं कि शरीर से प्राण पखेरू उडते ही सब का व्यवहार बदल जाता है। जल्दी से जल्दी शव को हटाने का प्रयास होता है। पत्नी- प्रेयसी का वही शरीर जिससे अलग होने का मन नहीं करता था , भुतहा लगने लगता है। उसे कितना सजायें, सुगंधित सेंट वगैरह लगायें वह सुंदर नहीं लगता। उस शव के साथ अकेले में रात गुजारने में डर लगता है।प्राणाधार होने का दंभ भरने वाली पत्नी भी रोपीट कर किनारे हो जाती है-
घर नारि बडो हित जासो, रहत अंग संग लागी
जब ही हंस तजी यह काया , प्रेत प्रेत कर भागी।
मुंशी प्रेम चंद अपने एक उपन्यास में एक पात्र से कहलाते हैं- जीवन तो अमर है। मृत्यु तो केवल पुनर्जन्म की सूचना है। एक उच्चतर जीवन का मार्ग। जिस मृत्यु पर घर वाले रोएं वह भी कोई मृत्यु है। वीर मृत्यु वही है जिस पर बेगाने रोएं और घर वाले आनंद मनायें। दिव्य मृत्यु दिव्य जीवन से कहीं उत्तम है। कोई जीवन दिव्य नहीं जिसका अंत भी दिव्य न हो।
सफल जीवन से अधिक महत्वपूर्ण है सफल-सार्थक मृत्यु। जीवन की सफलता किस में है? जीवन-पूंजी जुटाने में। पुण्य हैं जीवन पूंजी।पुण्य सत्कर्मों का फल हैं। और सार्थकता? जीवन रहस्य समझ लेने में । हम क्या हैं, कहां तक जाएंगे -यह जान लेने में। यही जीवन का वास्तविक उद्देश्य है। परम पुरुषार्थ है। जो मृत्यु समाज को कुछ सकारात्मक दे जाए, लोगों को चेता और सही पथ की ओर उन्मुख कर जाए, वही सार्थक मृत्यु है।
इसके विपरीत लोग पद -पैसा में जीवन की सफलत मानते हैं। जैसे भी हो पैसा आये। अधिकार सम्पन्नता रहे। काफी पहले एक उपन्यास की कहते पढा था- सफल जीवन पर्याय है खुशामद, अत्याचार और धूर्तता का। मैं जिन महात्माओं को जानती हूं उनके जीवन सफल न थे।
जन्म-जीवन और मृत्यु पर हमारे धर्मशास्त्रों ने गहन विवेचन किया है। हजारों साल पहले गीता ने उदघोष किया था-
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता व नभूय:
अजो नित्य: शास्वतोअयंपुराणो प हन्यते हन्यमाने शरीरे।
एक शरीर है, दूसरा इसमें रहने वाला शरीरी यानी आत्मा। शरीर तो जन्मता और प्रतिपल मरता रहता है।शरीरी न कभी जन्मता है और न मरता है। यह जन्म रहित, नित्य निरंतर रहने वाला, शास्वत और अनादि है। शरीर के मरने या मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता।
शरीरी में कभी विकार नहीं होता । यह ‘ नायं हन्ति न हन्यते’ – न मरने वाला है ,न मारने वाला है। इसे न आग जला सकती है और पानी गीला कर सकता है। और तो और इसे दुनिया का भी कोई भी अस्त्र-शस्त्र भी मार या नष्ट नहीं कर सकता।ये शरीर को ही मार सकते हैं, उसमें व्याप्त शरीरी को नहीं। सभी अस्त्र-शस्त्र पृथ्वी तत्व से ही बनते हैं। शरीर के आगे शरीरी तक उनकी पहुंच ही नहीं होती।
मरता वह है जिसमें कोई विकार -बदलाव होता है। शरीर में छह विकार होते हैं- यह पैदा होता है,सत्ता वाला दीखता है, बदलता, बढता , घटता और नष्ट होता है। शरीरी इन सभी विकारों से रहित है।शरीर ही जन्मता और मरता है। गीता भगवान कृष्ण कहते हैं जो जन्मता है वह मरता ही है और जो मरता है वह जन्मता है- जातस्यहि ध्रुवोमृत्युर्धवंजन्ममृतस्यच। शरीरी को अपना अंश बताते हुए उन्हों ने इसे सनातन कहा- ममैवांसो जीवलोके जीवभूत:सनातन:।
आधी उम्र बीतने पर शरीर कमजोर होने लगता है, इंद्रियों की शक्ति कम होने लगती है। इस तरह शरीर, इंद्रियों और अंत:करण आदि का तो अपक्षय होता है, पर शरीर इन सबसे अप्रभावित रहता है। इसके नित्य तत्व में कमी आती। बालपन, जवानी और बुढापा तीनों अवस्था में यह समान रहता है।हम शरीर के साथ चिपके नहीं रहते। स्वामी रामसुख दास कहते हैं कि उत्पन्न होने वाली वस्तु स्वत: नष्ट होती है उसे मिटाना नहीं पडता।जो उत्पन्न नहीं होती वह कभी मिटती ही नहीं। हमने 84 लाख शरीर धारण किये, पर कोई शरीर हमारे साथ नहीं रहा। हम जयों के त्यों रहे। यह जानने की विवेक शक्ति उन शरीरों में नहीं थी, किन्तु इस मनुष्य शरीर में है।
कुरान मजीद तो मूलत: इस जीवन की नश्वरता और अंतिम यात्रा को ही सत्य बताने की चेतावनियों-संदेशों पर ही केन्द्रित है। देखें कुछ आयतें-
* हर चीज जो इस धरती में है, नाशवान है, और केवल तेरे प्रभु का प्रतापवान व उदार स्वरूप ही शेष रहने वाला है( सूरा अर रहमान)। ध्यान देने की बात है गीता भी शरीर को मिट्टी यानी पृथ्वी तत्व से उत्पन्न मानती है।
* यह कि (परलोक में) कोई बोझ उठाने वाला , दूसरें का बोझा नहीं उठाएगा। अर्थात हर व्यक्ति स्वंय के कर्मों का उत्तरदायी है। किसी की जिम्मेदारी दूसरे पर नहीं डाली जा सकती। कोई चाहे भी तो किसी के कर्म की जिम्मेदारी अपने ऊपर नहीं ले सकता(सूरा अल नज्म)।
* और यह कि पहुंचना अंतत: तेरे प्रभु के पास ही है , और यह कि उसी ने हंसाया , उसी ने रुलाया और यह कि उसी ने मृत्यु दी और उसी ने जीवन प्रदान किया और यह कि उसी ने नर और मादा का जोडा पैदा किया और एक बूंद से जब वह टपकाई जाती है और कि दूसरा जीवन देना भी उसी के जिम्मे है।
* और यह कि सांसारिक जीवन कुछ नहीं है, एक खेल और दिल बहलावा है। वास्तविक जीवन का घर तो पारलौकिक घर है (सूरा अन कबूत)।
* और हे नबी, नित्यता तो हमने तुम से पहले भी किसी मनुष्य के लिए नहीं रखी है। यदि तुम मर गए तो क्या ये लोग नित्य जीते रहेंगे ?हर जानदार को मृत्यु का मजा चखना है (यानी जो जन्मा है उसका मरना तय है-गीता)। आखिर में हमारी ओर ही पलटना है (सूरा अल अंबिया)।
* लोगो बचो अपने प्रभु के प्रकोप से और डरो उस दिन से जब कोई बाप अपने बेटे की ओर बदला न देगा और न कोई बेटा ही बाप की ओर बदला देने वाला होगा( सूरा लुकमान)।
* वही है जिसने तुम्हें मिट्टी से पैदा किया, फिर तुम्हारे जीवन की एक अवधि निश्चित कर दी, और एक दूसरी अवधि और भी है। किंतु तुम लोग संदेह में पडे हुए हो। वही एक अल्लाह आसमानों में भी है और धरती में भी। तुम्हारे छुपे और खुले हाल सब जानता है और जो बुराई या भलाई तुम कमाते हो उससे भलीभांति वाकिफ है (सूरा अलअनआम)।
हम अपने इस रोगी- विकारी और मरणशील शरीर से ही अपनी पहचान अभिहित करते हैं। उस शरीर से जो चेतना निकल जाने के बाद केवल गंदगी-दुर्गंध का ढेर रह जाता है। जो जीवित अवस्था में भी तमाम साफ सफाई के बाद भी अपने सभी छिद्रों से केवल गंदगी ही उत्सर्जित करता है। लेकिन धर्मशास्त्र इस शरीर को सर्वाधिक महत्वपूर्ण बताते हैं। यह लोक- परलोक को संवारने-सुधारने का साधन है। लेकिन इसे साध्य समझने की भूल नहीं करनी चाहिए। कुमार सुभव का एक श्लोक है-
शरीरमाद्यं खलुसाधनम्, धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलकारणम्।
धर्म, अर्थ , काम और मोक्ष समेत सभी सिद्धियों के लिए आरोग्यता मूल कारण है। यदि शरीर रोग ग्रस्त हो जाए तो कोई भी कार्य सुचारु ढंग से नहीं होगा। इस लिए स्वास्थ्य के प्रति सजग रहना आवश्यक है। स्वस्थ रहना धर्म का अंग है।
रामायण मानव शरीर को संसार सागर पार कराने वाला जहाज बताती है-नर तनु भव बारिधि कहुं बेरो । अन्य सभी योनियां भोग शरीर हैं। उन से काल, कर्म गुण व स्वभाव के घेरे का टूटना संभव नहीं है। अन्य शरीरों से केवल पुण्य-पाप का भोग होता है, उससे भव संतरण नहीं हो सकता। देवता भी अपने पुण्यों का भोग करते हैं, नये पुण्य संचित नहीं कर पाते।पुण्य क्षय के बाद उन्हें पुन: जन्म मरण के चक्र में फंसना पडता है। मानव शरीर में अपने पुरुषार्थ से इस भव जाल से निकल सकने की योग्यता है । अन्य शरीर में पुरुषार्थ की क्षमता नहीं है।
इसी कहा जाता है कि बिना कोई क्षण गंवाये तुरंत पुरुषार्थ में दत्तचित्त हो जाना चाहिए। भगवान श्री राम अयोध्या के आम दरबार में मानव जन्म की महत्ता बताते हुए कहते हैं-
बडे भाग मानुष तन पावा, सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्ह गावा।
साधनधाम मोक्ष कर द्वारा,पाई न जेहि परलोक संवारा।
सो परत्र दुख पावइ, सिर धुनि धुनि पछताइ
कालहि कर्महि ईश्वरहिं मिथ्या दोष लगाइ।
मनुष्य जन्म बहुत बडे भाग्योदय का फल है। जिसने इस साधनधाम और मोक्ष द्वार को व्यर्थ में गंवा दिया वह इस लोक और परलोक दोनों में दुख पाता है। उसके पास फिर पक्षताने और समय या ईश्वर को कोसते रहने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता। इस मनुष्य तन का सबसे बडा लाभ ज्ञान- भक्ति है और मनुष्य शरीर पा कर भी ज्ञान- भक्ति रहित होने के समान कोई हानि नहीं है।
कृष्ण्ा गीता में अर्जुन को समझाते हैं कि शरीर के मरने पर भी शरीरी यानी आत्मा का मरना नहीं होता। अर्थात उसका अभाव नहीं होता, इस लिए शोक करना अनुचित है। बालि वध के मार्मिक प्रसंग में भी यही संदेश मिलता है। पति के शव को देख शोकाकुल तारा से राम कहते हैं-
क्षिति जल पावक गगन समीरा, पंच रचित यह अधम शरीरा।
प्रकट सो तनु तव आगे सोवा , जीव नित्य केहि लगि तुम रोवा।
पृथ्वी, अग्नि, आकाश , जल और वायु इन पांच तत्वों से बना यह अधम शरीर तो तुम्हारे सामने पडा है। जीव नित्य है। वह न जन्मता और न मरता है, इस लिए तुम किसके लिए रो रही हो ?
स्वामी रामसुख दास कहते हैं- शरीरों के मरने का जो दुख होता है, वह मरने से नहीं होता, प्रत्युत जीने की इच्छा से होता है। मैं जीवित रहूं, ऐसी इच्छा रहती है और मरना पडता है तब दुख होता है। यानी हम शरीर के साथ एकात्मकता कर लेते हैं, तब शरीर के मरने से अपना मरना लगता है, तभी दुख होता है। परंतु जो शरीर के साथ अपनी एकात्मकता नहीं मानता, उसे मरने पर दुख नहीं होता, अपितु सुख होता है। नये कपडे मिलने का सुख। वासांसि जीर्णानि यथाविहाय …।
विचार करने पर हम पाते हैं कि न हम कभी जन्मते हैं और न कभी मरते हैं। केवल रूपांतरित होते रहते हैं। शरीर मिट्टी से आता और मिट्टी में मिल जाता है। हर प्राणी पृथ्वी से ही उत्पन्न चीजों को खाता-पीता है। आहार के लिए सभी प्राणी एक दूसरे पर निर्भर हैं। मनुष्य समेत सभी प्राणी आकाश तत्व से परस्पर जुडे-बंधे हैं।सागर के बुलबुले की तरह। बुलबुला अलग दिख कर क्या सागर से सम्पृक्त नहीं है ? आइए, एक नया जन्म लें। अपने नये जन्म -मृत्यु का मजा लें। अहं का मिटना ही मृत्यु और समता-असंगता आने को जन्म मान कर।
हम विचार करें तो पाते हैं कि जन्म -मृत्यु की चर्खी अनवरत चलती रहती है। आ रहे और अपना पार्ट अदा कर जा रहे हैं। शरीर और मन में भी श्ह खेल चलता रहता है। हजारों लाखों कोशिकायें प्रति पल जन्मती-मरती रहती हैं। कितने ही भाव-विचार और संकंल्प-विकल्प आते जाते रहते हैं। हर सांस में आयु घट रही है, शरीर जर्जर हो रहा है । मर रहा है। एक क्षण भी स्थिर नहीं है। जवान होने पर लडकपन मर जाता है और बूढे होने पर जवानी भी मर जाती है। इसे रोक-टाल पाना किसी वश में नहीं है।
सब कुछ मरणशील- मरणधर्मा है। हम सब जानते हैं किएक दिन हम भी मरेंगे।सब बिछड जाएंगे। सब कुछ छूट जाएगा-
पत्ता टूटा पेड से ,ले गयी पवन उडाय
अब के बिछडे न मिलें , दूर पडेंगे जाय।
किसी दिन देख लेना , तुम्हें ऐसी नींद आएगी
तुम जग न पाओगे, दुनिया तुम्हें तुम्हें जगाएगी।
हम भी गुस्ताखी करेंगे , जिंदगी में एक बार
दोस्त पैदल चलेंगे, हम कंधों पर सवार।
बिना यह जाने कि हम कहां से आये हैं, कहां जाएंगे और हमारी मंजिल क्या है। हमारे होने का कोई मकसद भी है या यूं ही बस जीते जाना है ?मरने के बाद हम नहीं रह जाते। कुछ अर्से बाद हमारी यादें और नाम भी। उसी तरह जैसे कितने ही नाम-चेहरे और नाते5रिश्तेदार नहीं रहे। सुंदर चेहरा, सुगढ शरीर और बलिष्ठ देहयष्टि देखते देखते कैसी कमजोर काया में बदल जाती है। अधिकार और रोब टपकाती आवाज अनुग्रह की याचक हो जाती है। धीरे धीरे सब उठते रहते हैं। अपने-पराये सभी। बीमारी-बुढापा या किसी घटना- दुर्घटना के बहाने से। कितना आश्चर्यजनक है कि सब कुछ अस्थायी और खत्म होने वाला देखते- जानते हुए भी हम मृत्यु की चर्चा तक नहीं करना चाहते। इसका नाम तक नहीं लेना -सुनना चाहते। आंख मूंद कर दुनियादारी में ऐसे लगे रहना चाहते है मानों हम कभी नहीं मरेंगे- सामान सौ बरस का पल की खबर नहीं।
साधो ! यह मुर्दों का गांव
पीर मरे , पैगम्बर मरिहैं, मरिहैं जिंदा जोगी
राजा मरिहैं, परजा मरिहैं, मरिहैं वैद्य औ रोगी
चांद मरे औ सूरज मरिहैं
गुरू मरे और शिष्य भी मरिहैं……।
भारतीय मूल की वैज्ञानिक डा. प्रिया नटराजन के नेतृत्व में येल यूनिवर्सिटी के खगोलशास्त्रियों के दल ने एक महत्वपूर्ण अध्ययन में पाया है कि ब्रह्मांड लगातार फैल रहा है।डार्क एनर्जी उसका लगातार विस्तार कर रही है। डार्क एनर्जी अदृश्य ऊर्जा मानी जाती है। इस प्रक्रिया से ब्रह्मांड अंतत: एक दिन मृतप्राय और ठंढे बंजर में बदल जाएगा, जिसमें कुछ पैदा नहीं होगा और जीवन संभव नहीं होगा।
जिन रिश्तों में हम भूले और फूले रहते हैं वे इतने कच्चे होते हैं कि शरीर से प्राण पखेरू उडते ही सब का व्यवहार बदल जाता है। जल्दी से जल्दी शव को हटाने का प्रयास होता है। पत्नी- प्रेयसी का वही शरीर जिससे अलग होने का मन नहीं करता था , भुतहा लगने लगता है। उसे कितना सजायें, सुगंधित सेंट वगैरह लगायें वह सुंदर नहीं लगता। उस शव के साथ अकेले में रात गुजारने में डर लगता है।प्राणाधार होने का दंभ भरने वाली पत्नी भी रोपीट कर किनारे हो जाती है-
घर नारि बडो हित जासो, रहत अंग संग लागी
जब ही हंस तजी यह काया , प्रेत प्रेत कर भागी।
मुंशी प्रेम चंद अपने एक उपन्यास में एक पात्र से कहलाते हैं- जीवन तो अमर है। मृत्यु तो केवल पुनर्जन्म की सूचना है। एक उच्चतर जीवन का मार्ग। जिस मृत्यु पर घर वाले रोएं वह भी कोई मृत्यु है। वीर मृत्यु वही है जिस पर बेगाने रोएं और घर वाले आनंद मनायें। दिव्य मृत्यु दिव्य जीवन से कहीं उत्तम है। कोई जीवन दिव्य नहीं जिसका अंत भी दिव्य न हो।
सफल जीवन से अधिक महत्वपूर्ण है सफल-सार्थक मृत्यु। जीवन की सफलता किस में है? जीवन-पूंजी जुटाने में। पुण्य हैं जीवन पूंजी।पुण्य सत्कर्मों का फल हैं। और सार्थकता? जीवन रहस्य समझ लेने में । हम क्या हैं, कहां तक जाएंगे -यह जान लेने में। यही जीवन का वास्तविक उद्देश्य है। परम पुरुषार्थ है। जो मृत्यु समाज को कुछ सकारात्मक दे जाए, लोगों को चेता और सही पथ की ओर उन्मुख कर जाए, वही सार्थक मृत्यु है।
इसके विपरीत लोग पद -पैसा में जीवन की सफलत मानते हैं। जैसे भी हो पैसा आये। अधिकार सम्पन्नता रहे। काफी पहले एक उपन्यास की कहते पढा था- सफल जीवन पर्याय है खुशामद, अत्याचार और धूर्तता का। मैं जिन महात्माओं को जानती हूं उनके जीवन सफल न थे।
जन्म-जीवन और मृत्यु पर हमारे धर्मशास्त्रों ने गहन विवेचन किया है। हजारों साल पहले गीता ने उदघोष किया था-
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता व नभूय:
अजो नित्य: शास्वतोअयंपुराणो प हन्यते हन्यमाने शरीरे।
एक शरीर है, दूसरा इसमें रहने वाला शरीरी यानी आत्मा। शरीर तो जन्मता और प्रतिपल मरता रहता है।शरीरी न कभी जन्मता है और न मरता है। यह जन्म रहित, नित्य निरंतर रहने वाला, शास्वत और अनादि है। शरीर के मरने या मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता।
शरीरी में कभी विकार नहीं होता । यह ‘ नायं हन्ति न हन्यते’ – न मरने वाला है ,न मारने वाला है। इसे न आग जला सकती है और पानी गीला कर सकता है। और तो और इसे दुनिया का भी कोई भी अस्त्र-शस्त्र भी मार या नष्ट नहीं कर सकता।ये शरीर को ही मार सकते हैं, उसमें व्याप्त शरीरी को नहीं। सभी अस्त्र-शस्त्र पृथ्वी तत्व से ही बनते हैं। शरीर के आगे शरीरी तक उनकी पहुंच ही नहीं होती।
मरता वह है जिसमें कोई विकार -बदलाव होता है। शरीर में छह विकार होते हैं- यह पैदा होता है,सत्ता वाला दीखता है, बदलता, बढता , घटता और नष्ट होता है। शरीरी इन सभी विकारों से रहित है।शरीर ही जन्मता और मरता है। गीता भगवान कृष्ण कहते हैं जो जन्मता है वह मरता ही है और जो मरता है वह जन्मता है- जातस्यहि ध्रुवोमृत्युर्धवंजन्ममृतस्यच। शरीरी को अपना अंश बताते हुए उन्हों ने इसे सनातन कहा- ममैवांसो जीवलोके जीवभूत:सनातन:।
आधी उम्र बीतने पर शरीर कमजोर होने लगता है, इंद्रियों की शक्ति कम होने लगती है। इस तरह शरीर, इंद्रियों और अंत:करण आदि का तो अपक्षय होता है, पर शरीर इन सबसे अप्रभावित रहता है। इसके नित्य तत्व में कमी आती। बालपन, जवानी और बुढापा तीनों अवस्था में यह समान रहता है।हम शरीर के साथ चिपके नहीं रहते। स्वामी रामसुख दास कहते हैं कि उत्पन्न होने वाली वस्तु स्वत: नष्ट होती है उसे मिटाना नहीं पडता।जो उत्पन्न नहीं होती वह कभी मिटती ही नहीं। हमने 84 लाख शरीर धारण किये, पर कोई शरीर हमारे साथ नहीं रहा। हम जयों के त्यों रहे। यह जानने की विवेक शक्ति उन शरीरों में नहीं थी, किन्तु इस मनुष्य शरीर में है।
कुरान मजीद तो मूलत: इस जीवन की नश्वरता और अंतिम यात्रा को ही सत्य बताने की चेतावनियों-संदेशों पर ही केन्द्रित है। देखें कुछ आयतें-
* हर चीज जो इस धरती में है, नाशवान है, और केवल तेरे प्रभु का प्रतापवान व उदार स्वरूप ही शेष रहने वाला है( सूरा अर रहमान)। ध्यान देने की बात है गीता भी शरीर को मिट्टी यानी पृथ्वी तत्व से उत्पन्न मानती है।
* यह कि (परलोक में) कोई बोझ उठाने वाला , दूसरें का बोझा नहीं उठाएगा। अर्थात हर व्यक्ति स्वंय के कर्मों का उत्तरदायी है। किसी की जिम्मेदारी दूसरे पर नहीं डाली जा सकती। कोई चाहे भी तो किसी के कर्म की जिम्मेदारी अपने ऊपर नहीं ले सकता(सूरा अल नज्म)।
* और यह कि पहुंचना अंतत: तेरे प्रभु के पास ही है , और यह कि उसी ने हंसाया , उसी ने रुलाया और यह कि उसी ने मृत्यु दी और उसी ने जीवन प्रदान किया और यह कि उसी ने नर और मादा का जोडा पैदा किया और एक बूंद से जब वह टपकाई जाती है और कि दूसरा जीवन देना भी उसी के जिम्मे है।
* और यह कि सांसारिक जीवन कुछ नहीं है, एक खेल और दिल बहलावा है। वास्तविक जीवन का घर तो पारलौकिक घर है (सूरा अन कबूत)।
* और हे नबी, नित्यता तो हमने तुम से पहले भी किसी मनुष्य के लिए नहीं रखी है। यदि तुम मर गए तो क्या ये लोग नित्य जीते रहेंगे ?हर जानदार को मृत्यु का मजा चखना है (यानी जो जन्मा है उसका मरना तय है-गीता)। आखिर में हमारी ओर ही पलटना है (सूरा अल अंबिया)।
* लोगो बचो अपने प्रभु के प्रकोप से और डरो उस दिन से जब कोई बाप अपने बेटे की ओर बदला न देगा और न कोई बेटा ही बाप की ओर बदला देने वाला होगा( सूरा लुकमान)।
* वही है जिसने तुम्हें मिट्टी से पैदा किया, फिर तुम्हारे जीवन की एक अवधि निश्चित कर दी, और एक दूसरी अवधि और भी है। किंतु तुम लोग संदेह में पडे हुए हो। वही एक अल्लाह आसमानों में भी है और धरती में भी। तुम्हारे छुपे और खुले हाल सब जानता है और जो बुराई या भलाई तुम कमाते हो उससे भलीभांति वाकिफ है (सूरा अलअनआम)।
हम अपने इस रोगी- विकारी और मरणशील शरीर से ही अपनी पहचान अभिहित करते हैं। उस शरीर से जो चेतना निकल जाने के बाद केवल गंदगी-दुर्गंध का ढेर रह जाता है। जो जीवित अवस्था में भी तमाम साफ सफाई के बाद भी अपने सभी छिद्रों से केवल गंदगी ही उत्सर्जित करता है। लेकिन धर्मशास्त्र इस शरीर को सर्वाधिक महत्वपूर्ण बताते हैं। यह लोक- परलोक को संवारने-सुधारने का साधन है। लेकिन इसे साध्य समझने की भूल नहीं करनी चाहिए। कुमार सुभव का एक श्लोक है-
शरीरमाद्यं खलुसाधनम्, धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलकारणम्।
धर्म, अर्थ , काम और मोक्ष समेत सभी सिद्धियों के लिए आरोग्यता मूल कारण है। यदि शरीर रोग ग्रस्त हो जाए तो कोई भी कार्य सुचारु ढंग से नहीं होगा। इस लिए स्वास्थ्य के प्रति सजग रहना आवश्यक है। स्वस्थ रहना धर्म का अंग है।
रामायण मानव शरीर को संसार सागर पार कराने वाला जहाज बताती है-नर तनु भव बारिधि कहुं बेरो । अन्य सभी योनियां भोग शरीर हैं। उन से काल, कर्म गुण व स्वभाव के घेरे का टूटना संभव नहीं है। अन्य शरीरों से केवल पुण्य-पाप का भोग होता है, उससे भव संतरण नहीं हो सकता। देवता भी अपने पुण्यों का भोग करते हैं, नये पुण्य संचित नहीं कर पाते।पुण्य क्षय के बाद उन्हें पुन: जन्म मरण के चक्र में फंसना पडता है। मानव शरीर में अपने पुरुषार्थ से इस भव जाल से निकल सकने की योग्यता है । अन्य शरीर में पुरुषार्थ की क्षमता नहीं है।
इसी कहा जाता है कि बिना कोई क्षण गंवाये तुरंत पुरुषार्थ में दत्तचित्त हो जाना चाहिए। भगवान श्री राम अयोध्या के आम दरबार में मानव जन्म की महत्ता बताते हुए कहते हैं-
बडे भाग मानुष तन पावा, सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्ह गावा।
साधनधाम मोक्ष कर द्वारा,पाई न जेहि परलोक संवारा।
सो परत्र दुख पावइ, सिर धुनि धुनि पछताइ
कालहि कर्महि ईश्वरहिं मिथ्या दोष लगाइ।
मनुष्य जन्म बहुत बडे भाग्योदय का फल है। जिसने इस साधनधाम और मोक्ष द्वार को व्यर्थ में गंवा दिया वह इस लोक और परलोक दोनों में दुख पाता है। उसके पास फिर पक्षताने और समय या ईश्वर को कोसते रहने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता। इस मनुष्य तन का सबसे बडा लाभ ज्ञान- भक्ति है और मनुष्य शरीर पा कर भी ज्ञान- भक्ति रहित होने के समान कोई हानि नहीं है।
कृष्ण्ा गीता में अर्जुन को समझाते हैं कि शरीर के मरने पर भी शरीरी यानी आत्मा का मरना नहीं होता। अर्थात उसका अभाव नहीं होता, इस लिए शोक करना अनुचित है। बालि वध के मार्मिक प्रसंग में भी यही संदेश मिलता है। पति के शव को देख शोकाकुल तारा से राम कहते हैं-
क्षिति जल पावक गगन समीरा, पंच रचित यह अधम शरीरा।
प्रकट सो तनु तव आगे सोवा , जीव नित्य केहि लगि तुम रोवा।
पृथ्वी, अग्नि, आकाश , जल और वायु इन पांच तत्वों से बना यह अधम शरीर तो तुम्हारे सामने पडा है। जीव नित्य है। वह न जन्मता और न मरता है, इस लिए तुम किसके लिए रो रही हो ?
स्वामी रामसुख दास कहते हैं- शरीरों के मरने का जो दुख होता है, वह मरने से नहीं होता, प्रत्युत जीने की इच्छा से होता है। मैं जीवित रहूं, ऐसी इच्छा रहती है और मरना पडता है तब दुख होता है। यानी हम शरीर के साथ एकात्मकता कर लेते हैं, तब शरीर के मरने से अपना मरना लगता है, तभी दुख होता है। परंतु जो शरीर के साथ अपनी एकात्मकता नहीं मानता, उसे मरने पर दुख नहीं होता, अपितु सुख होता है। नये कपडे मिलने का सुख। वासांसि जीर्णानि यथाविहाय …।
विचार करने पर हम पाते हैं कि न हम कभी जन्मते हैं और न कभी मरते हैं। केवल रूपांतरित होते रहते हैं। शरीर मिट्टी से आता और मिट्टी में मिल जाता है। हर प्राणी पृथ्वी से ही उत्पन्न चीजों को खाता-पीता है। आहार के लिए सभी प्राणी एक दूसरे पर निर्भर हैं। मनुष्य समेत सभी प्राणी आकाश तत्व से परस्पर जुडे-बंधे हैं।सागर के बुलबुले की तरह। बुलबुला अलग दिख कर क्या सागर से सम्पृक्त नहीं है ? आइए, एक नया जन्म लें। अपने नये जन्म -मृत्यु का मजा लें। अहं का मिटना ही मृत्यु और समता-असंगता आने को जन्म मान कर।
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Aap sabhi bhaiyo & bahno se anurodh hai ki aap sabhi uchit comment de............
jisse main apne blog ko aap sabo ke samne aur acchi tarah se prastut kar saku......