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“मां” अब भी रोती है

‘मां तब भी रोती थी, जब बेटा खाना नहीं खाता था और मां अब भी रोती है जब बेटा खाना नहीं देता….. कुछ दिनों पहले मेरे एक मित्र ने मुझे यह पंक्तियां एसएमएस के माध्यम से भेजीं. मांएं होती ही ऐसी हैं वह हमेशा बस देना और देना जानती हैं….और हम भूलना.
मुझे मेरे एक साथी द्वारा सुनाई गई एक कहानी याद आ गई. ‘एक बार एक विधवा मां अपने बेटे को पढ़ा-लिखाकर नौकरी के लिए बाहर भेज देती है. मां अपना पूरा जीवन बेटे के चेहरे को देखकर काट रही होती है. बेटा सैटल हो जाता है और शहर में ही किसी अन्य लड़की के साथ लिवइन रिलेशन में रहने लगता है. इसी बीच अचानक लड़के को मां का फोन आता है कि वह शहर आने वाली हैं, क्योंकि वह अपने बेटे को देखना चाहती हैं. बेटा कशमकश में है कुछ सोच नहीं पाता कि मां को क्या कहे. खैर मां शहर पहुंच जाती है तो देखती है कि बेटे के साथ एक सुकन्या भी है. बाद में लड़की इधर-उधर होती है तो मां बेटे से लड़की के बारे में पूछती है. इस पर लड़का कहता है कि ‘मां शहर में कमरे मिलना काफी मुश्किल है और मंहगाई भी है. मैं इस कमरे में इस पलंग पर सोता हूं और यह लड़की दूसरे पलंग पर सोती है. लड़का दूसरे पलंग की ओर इशारा करते हुए कहता है. खैर कुछ दिनों बाद मां गांव वापिस लौट जाती है. एक दिन अचानक लड़की लड़के से पूछती है कि मेरी चांदी की प्लेट कहीं दिखाई नहीं दे रही. जब तुम्हारी मां आई थी तो यहीं थी, जब से तुम्हारी मां गई है, तभी से प्लेट भी गायब है. अब प्लेट के चोरी होने की बात लड़का अपनी मां से पूछने में झिझक रहा था. खैर लड़की का दबाव बढ़ते देख उसने मां को फोन किया और कहा ‘मां तुम कैसी हो, खैर मुझे यह पूछना तो नहीं चाहिए, लेकिन प्रिया कह रही थी कि उसकी चांदी की प्लेट नहीं दिख रही है. तुमने प्लेट देखी है क्या? इस पर मां ने जवाब दिया ‘बेटा…..अगर वह लड़की अपने पलंग पर सो रही होती तो उसे अपनी चांदी की प्लेट पलंग के पास रखी मिल जाती……
खैर आज के युग में हमारी सोच मैं, मेरा परिवार, मेरी पत्नी और बच्चे तक सिमट कर रह गई है. ऐसे में हमारे पैरेंट्स कब उस दायरे से बाहर निकल जाते हैं या हम निकाल देते हैं हमें खुद भी अहसास नहीं होता. अहसास होता है, जब ईंट-पत्थर के कमरे में हम बुखार से तप रहे होते हैं और हमें मां के हाथों की थपकी की कम खलती है. कुछ दिनों पहले महिला हेल्प लाइन में एक मामला देखने को मिला. यहां पर जंग दो भाईयों और उनकी पत्नियों के बीच थी. लड़ाई का मेन मुद्दा था यह था कि मां किसके साथ रहेगी. महिला हेल्प लाइन में एक दीवार का सहारा लेकर एक बूढ़ी महिला पैर सिकोड़ कर बैठी हुई थी. दोनों बेटे और बहुरानियां आपस में उलझे पड़े थे. दोनों में से कोई भी अपनी मां को अपने साथ रखने के लिए तैयार नहीं था. खैर बाद में मामले में किसी तरह समझौता हो गया, लेकिन मैं उस बुजुर्ग महिला की पीड़ा की बात कहना चाहती हूं. जिसने अपनी पूरी जिंदगी अपने पति और बच्चों की सेवा में गुजार दिया…..अपने दोनों बच्चों से मिले इस तिरस्कार से उस बूढ़ी मां के मन पर क्या बीतती होगी? नैतिकता, मानवता जैसे मूल्य खोते चले जा रहे हैं. मेरे एक परिचित हैं जिनके घर मेरा अक्सर आना-जाना होता है. एक बार उनके घर गई तो देखा कि परिचित की मां अपनी सास को बुरी तरह गरिया रही थी, सास फर्श पर पड़ी थी. इतने बड़े घर में युवक की दादी के लिए एक कोना नहीं था, उसे सीढिय़ों के नीचे बने स्पेस में एक पर्दा डालकर बस पसरने भर की जगह दी गई थी. कुछ दिनों पहले युवक की दादी का देहांत हो गया और युवक सहित उसकी मां और पूरे परिवार ने जमकर टेसूए बहाए. परिचित की मां को इस बात का अफसोस नहीं था कि उनकी मां समान सास चली गईं, बल्कि इस बात का अफसोस था कि बुढिय़ा के जाने से पूरे साल के व्रत-त्योहार नहीं मना पाएंगी….. खैर किसी को कितना कोसा जाए, अब तो यह घर-घर की बात हो गई है.

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