बिहार विधानसभा चुनाव नतीजों में जनता ने जद [यू]-भाजपा गठजोड़ को भारी बहुमत देकर यही संकेत दिया कि पारंपरिक धारणाओं के विपरीत वह जातिवाद से ऊपर उठकर फैसला करने में सक्षम है। मीडिया सर्वेक्षणों ने लगभग आम राय से संकेत दिया था कि नीतीश कुमार फिर सत्ता में लौटने जा रहे हैं। जमीनी स्तर पर भी माहौल यही था, लेकिन यह कल्पना खुद नीतीश और भाजपा को भी नहीं थी उन्हें प्रचंड जनादेश मिलेगा। बिहार की जनता ने नकारात्मक मुद्दे दरकिनार कर दिए और विकास के हक में वोट डाला। इससे विकास की मौजूदा प्रक्रिया को जारी रखने के लिए ठप्पा लगा।
जद [यू]-भाजपा गठबंधन ने पिछली बार बेहद विषम हालात में सत्ता की बागडोर संभाली थी, लेकिन नीतीश कुमार प्रचार और श्रेय की फिक्र किए बिना चुपचाप भ्रष्टाचार और बदइंतजामी का मलबा हटाने में लगे रहे। यह ऐसा राच्य था जहा सत्ता के ज्यादातर स्तंभों पर जंग लग चुका था जहा धनबल, बाहुबल और राजनैतिक दबाव के बिना पत्थर भी नहीं हिलता था। राजनीति तथा अपराध के बीच की विभाजन रेखा लगभग अदृश्य थी। ऐसे में पहली बार सत्ता संभालने वाले मुख्यमंत्री के हौसले भले ही कितने भी बुलंद हो, उनके लिए धारा के विपरीत आगे बढ़ना निस्संदेह बेहद मुश्किल रहा होगा।
बहरहाल नीतीश और सुशील मोदी के नेतृत्व ने विवादों से दूर रहते हुए एक सफल कार्यकाल पूरा किया। आज का बिहार अपनी दुर्दशा पर विवश और शर्मिंदा महसूस करने वाला पाच साल पहले का बिहार नहीं है। वह भविष्य की ओर उत्साह, उम्मीद और विश्वास के साथ आगे बढ़ने वाला बिहार है। बिहार में नीतीश का कामकाज हावी रहा है। भारत के सर्वाधिक पिछड़े राच्य को रातोंरात विकसित बना देना तो संभव नहीं है, लेकिन स्वतंत्र संगठनों के सर्वेक्षण और पुरस्कारों से जाहिर है कि तस्वीर बदल रही है।
नीतीश कुमार का 2015 तक बिहार को विकसित राच्य के कतार में खड़ा करने का वादा अब अविश्वसनीय नहीं लगता। उन्हें इकनामिक टाइम्स बिजनेस रिफार्मर आफ द ईयर अवार्ड मिलना इस बात की निशानदेही करता है कि वहा घटनाक्रम सकारात्मक दिशा में आगे बढ़ रहा है। जिस राच्य में शाम सात बजे के बाद सड़कों पर सन्नाटा पसर जाता था वहा अब रात को भी लोग बेफिक्र होकर घर से बाहर निकलने लगे हैं। खुद काग्रेस ने चुनाव नतीजों का श्रेय नीतीश कुमार को देते हुए माना है कि वहा कानून-व्यवस्था की हालत सचमुच सुधरी है।
यह एक सकारात्मक जनादेश है जिसने चुनावी गणित के पंडितों से लेकर जातिवादी राजनीति के पुरोधाओं को भी हैरत में डाल दिया है। दशकों से जातिवादी राजनीति का अखाड़ा बना रहा बिहार अपनी छवि बदल रहा है। अगर बिहार का मतदाता सचमुच इन आग्रहों से ऊपर उठ गया है तो उसकी स्तुति की जानी चाहिए। राष्ट्रीय जनता दल, लोक जनशक्ति पार्टी और काग्रेस के मतों के विभाजन ने भी जनादेश को प्रभावित किया है। संभव है पिछड़ों, दलितों और मुसलमानों के वोट बंटे हों, लेकिन इस बात की भी खासी संभावना है कि इन वोटों का एक बड़ा हिस्सा सत्तारूढ़ गठबंधन के हक में गया। नीतीश कुमार भले ही एकला चलो की तर्ज पर चुपचाप कामकाज में जुटे हों, लेकिन लगातार दो चुनावों में जीत हासिल कर वह सिद्ध कर चुके हैं कि वह चुनावी राजनीति के कच्चे खिलाड़ी नही हैं। भारतीय जनता पार्टी के साथ रहते हुए भी मुसलमानों को अपने साथ जोड़े रखना कोई छोटी बात नहीं है। सत्तारूढ़ गठबंधन में वरिष्ठ दल के सर्वेसर्वा होने के बावजूद उन्होंने अपने कनिष्ठ सहयोगी भाजपा को पूरा सम्मान दिया।
साथ ही राच्य को साप्रदायिकता और जातिवाद की राजनीति से मुक्त करने का एजेंडा आगे बढ़ाते रहे। जब-जब किसी समुदाय या संप्रदाय को असुरक्षा महसूस हुई, उन्होंने कठोर और निर्णायक फैसले लेने में भी हिचक नहीं दिखाई। नरेंद्र मोदी द्वारा चुनाव प्रचार किए जाने संबंधी विवाद ऐसा ही एक मौका था। एक काम करने वाले मुख्यमंत्री के लिए यह एक आदर्श जनादेश है। अब वे राजनैतिक चुनौतियों से निश्चिंत रहते हुए अपना काम आगे बढ़ा सकते हैं। उनके सामने अगर कोई चुनौती होगी तो वह होगी इतने बड़े जनादेश पर खरा उतरने की। यह परिणाम उन विशालकाय उम्मीदों को भी जाहिर करता है जो जनता ने उनसे लगाई हैं।
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Aap sabhi bhaiyo & bahno se anurodh hai ki aap sabhi uchit comment de............
jisse main apne blog ko aap sabo ke samne aur acchi tarah se prastut kar saku......