एक बार स्वामी विवेकानंद अपने परिचितों के मध्य बैठे वार्तालाप कर रहे थे कि उनका एक शिष्य आया और उन्हें प्रमाण निवेदन कर एक कोने में बैठ गया। स्वामीजी ने स्नेह से उसे अपने पास बैठने के लिए कहा, तो वह सकुचाते हुए उठा और उनके समक्ष जाकर खड़ा हो गया। उपस्थित सभी लोगों ने सोचा कि स्वामीजी का यह शिष्य विनम्रतावश ऐसा कर रहा है। स्वामीजी ने खड़े होकर उसका हाथ पकड़ा और अपने पास बैठा लिया। फिर उसके आने का प्रयोजन पूछा। वह बोला- गुरुवर, मेरी हार्दिक इच्छा है कि आप मेरे घर भोजन करें। क्या आपको मेरा निमंत्रण स्वीकार है।
स्वामीजी ने सहर्ष कहा- क्यों नहीं, मैं तुम्हारे घर कल अवश्य आऊंगा और भोजन भी गृहण करूंगा।
अगले दिन स्वामीजी तय समय पर उस शिष्य के घर पहुंचे और भोजना करना शुरु किया। कुछ करीबी लोग भी उनके साथ थे जिन्हें तब तक यह ज्ञात हो चुका था कि स्वामीजी का वह शिष्य एक निचली जाति से है। वे सभी स्वामीजी को रोकते हुए कहने लगे- आप कुलीन होकर इसके यहां भोजन कर स्वयं को अपवित्र क्यों कर रहे हैं? तब स्वामीजी ने उनसे कहा- भोजन तो जाति से नहीं, अन्न से बना है और आपके व हमारे घरों में बनने वाले भोजन जितना ही स्वादिष्ट है। व्यक्ति जाति से नहीं, कर्म से उच्च या निम्न होता है। इसके कर्म अच्छे हैं, तो यह आप सभी के जैसा व जितना कुलीन है।
स्वामीजी की दो दो टूक बातों ने विरोधियों को क्षमा मांगने पर विवश कर दिया।
वस्तुत: जातिभेद संकीर्ण मानसिकता का परिचायक है क्योंकि यह मनुष्य द्वारा बनाया गया है। ईश्वर तो प्रत्येक व्यक्ति का निर्माता है, जिसने जाति या धर्म में बांटकर उसे नहीं बनाया। वस्तुत: ये व्यक्ति के अच्छे या बुरे कर्म होते हैं, जो उसे श्रेष्ठ अथवा अधम बनाते हैं। अत: व्यक्ति का मूल्यांकन धर्म के आधार पर नहीं वरन कर्म के आधार पर करना चाहिए।
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Aap sabhi bhaiyo & bahno se anurodh hai ki aap sabhi uchit comment de............
jisse main apne blog ko aap sabo ke samne aur acchi tarah se prastut kar saku......