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उम्‍मीदों से लबरेज आज का बिहार...



ीसरे चरण के चुनाव के साथ बिहार की जो तस्वीर उभरती दिख रही है, उससे इतना तो साफ है कि राज्य में आखिरकार विकास के बारे में एक सोच उभर रही है. एक औसत बिहारी को अब लगने लगा है कि विकास एक ऐसी बुनियादी जरूरत है, जिसके बिना 2005 तक उसकी जिंदगी किसी गर्द के गुबार से ज्यादा नहीं थी. एक ऐसा गुबार, जिसे गढ़ने में उसकी कोई भूमिका नहीं थी. लेकिन जबरन, राज्य के तब के प्रशासकों ने उसके ऊपर यह लाद दिया था. पिछले 5 सालों में राज्य ने एक ऐसा दौर देखा, जिसे 1979 के बाद से शायद ही किसी बिहारी ने देखा था. 1979 में जनता पार्टी की सरकार के साथ कर्पूरी ठाकुर ने सत्ता सम्भाली. उसके बाद से राज्य ने पतन का वो आलम देखा, जिसने पूरे देश में अज्ञानता, फूहड़पन, उज्जडता और भ्रष्टाचार को बिहार की बुनियाद बना दिया.

दिल्ली में अगर कोई शख्‍स कुछ बुनियादी गलती करता दिखता, तो लोग कहते थे–“बिहारी है क्या”. शायद ही बिहार में जन्मा कोई ऐसा शख्‍स होगा, जिसने दिल्ली और उसके आसपास के क्षेत्र में ये फिकरा नहीं सुना होगा. जब भी कोई ऐसा कहे, तो खून का घूंट पीकर मासूम चेहरा नहीं बनाया होगा. इस तौहीन के बावजूद, बिहार की सीमा पार करते ही, एक बिहारी हमेशा अपने रंग में आ जाता था– यानी, अक्‍खड़, फूहड़, उज्जड और बात-बात पर राजनीतिक रसूख दिखाने की मानसिकता. मेरे एक संभ्रात और पढ़े-लिखे वरिष्ठ ने स्कूल हॉस्टल में मुझसे कहा था, “बिहारी होना एक मानसिक स्थिति है- एक मेंटल स्टेट और अगर बिहार में लोगों से डील करना है तो इस स्टेट में रहो, वरना लोग तुम्हें बेच खायेंगे”.

कुछ बातें जीवन में हमेशा याद रहती हैं, लेकिन उसे अपनी असल जिंदगी में अमल में लाना, हर किसी के बस में शायद नहीं होता. बिहारी स्टेट ऑफ माइंड की समझ मुझे तब ज्यादा हुई, जब 1996 और फिर 1998 में लोकसभा चुनावों के लिए बिहार के लगभग हर कोने को मैंने छाना. पिछड़ापन, गरीबी, भुखमरी, शिक्षा का अभाव, बेचारगी, हताशा, जातीयता और रूढ़ीवाद– कैसे पूरे समाज को हर तरह से खोखला बना देती है, इसका एहसास मुझे तब हुआ. तब के मुख्यमंत्री और फिर देश भर में रेल मंत्री के तौर पर लोकप्रिय बने लालू प्रसाद यादव से कई बार मैंने जिरह किया. लेकिन हर बार लालू यादव, गरीब जनता के नाम पर अपने एजेंडे को आगे करते दिखे. लालू यादव ने पिछड़ेपन की राजनीति पर अपना ऐसा सिक्का जमाया था कि कोई भी व्यक्ति में उनके तिलिस्म को तोड़ने का माद्दा नहीं दिखता था. उसके साथ ही जातीय समीकरण को लालू यादव ने ऐसा बुना था कि उसे तोड़ने में अन्य राजनीतिक दलों को 15 साल का वक्त लगा.

खैर, बिहार ने एक नया दौर देखा है. विकास नाम की चिडि़या के फड़फड़ाते पंख देखे और लोगों के सपनों को भी हवा लगने लगी. अब भी सड़कों पर गढ्ढे हैं, लेकिन सड़कें हैं. गाडि़यां रेंगती नहीं, चलती हैं. बिजली आज भी 4 से 6 धंटे रोज कटती है, लेकिन जब आती है तो ठीक से आती है. अपराध आज भी होते हैं, लेकिन आज अपराधी छिपकर अपना धंधा चलाते हैं. दुकानें रात के 8 बजे के बाद भी खुली रहती हैं. सड़कों पर लोग अपने परिवार के साथ रात 10 बजे के बाद बिना डर के निकलते हैं. अब नया घर या गाड़ी खरीदते वक्त लोगों को ये डर नहीं सताता कि कहीं अगले दिन उनका अपहरण न हो जाय.

आज एक बिहारी, अपने स्टेट ऑफ माइंड से भले ही न निकला हो, लेकिन उसे इतना पता है कि उसके स्टेट ऑफ माइंड से आगे भी जहान है– एक ऐसी दुनिया है, जिसे हम सब जानते हैं और उसमें उसके लिये भी एक छोटी-सी ही सही, जगह है. राजनीतिक दल इस बदलाव का श्रेय लेने की होड़ में भले ही लगे हों, लेकिन यकीन मानिये, इस बदलाव ने एक अति-पिछड़े राज्य की तस्वीर और तकदीर बदल दी है. चुनाव में जीत चाहे जिस भी पार्टी की हो, लेकिन जीत सिर्फ और सिर्फ लोगों की उम्मीदों की होगी, विकास की होगी.

शायद इस बात का अंदाजा, लालू, पासवान, शरद यादव, शत्रुघ्‍न सिन्‍हा, सुशील मोदी, रविशंकर प्रसाद, आडवाणी सरीखे सभी नेताओं को है. तभी तो, विकास के नाम पर कोई भी पार्टी या नेता, नीतीश को घेरना नहीं चाहता. हर कोई बिहार में सभाएं कर रहे कांग्रेस के तथाकथित युवराज– राहुल गांधी के पीछे पड़ा है. कोई राहुल की बातों में नुक्स निकाल रहा है, तो कोई राहुल के तौर-तरीके में. कोई वंशवाद की राजनीति को खत्म करने की बात कह रहा है, तो कोई ये कहकर खुश है कि कांग्रेस के पास राहुल है, तो क्या हुआ, हमारे पास तेजस्वी है. अरे भाई, कोई ये तो बता दे कि चुनाव के बाद बिहार में विकास की क्या नई दिशा हो सकती है. कौन-कौन से उद्योग हैं, जिन्हें बढ़ावा मिल सकता है. लोगों को कैसे नये रोजगार मिल सकते हैं और राज्य की आमदनी कैसे बढ़ेगी. क्या इस बारे में सिर्फ नीतीश कुमार ही अपनी बातें कहेंगे. बाकी लोग क्यों चुप हैं. कब तक जातीय समीकरण पर अपनी राजनीति की दुकान चमकाते रहेंगे. क्या विकास बस एक पार्टी या नेता की थाती है, जिसपर कोई अपना मुंह खोलने के लिए तैयार नहीं है.

शायद बिहारी स्टेट ऑफ माइंड में रहने वाले नेताओं की मानसिकता अब इतनी छोटी हो चुकी है कि वो बड़ा सोच ही नहीं सकते. तभी विकास के लिए उनके पास न तो कोइ सोच है, न दिशा और न ही उनकी रातनीति में इसके लिए कोई जगह. बिहार आज उम्‍मीदों से भरा है.

बस, लेकिन एक पुरानी कहावत बिहार के संबंध में हमेशा याद आती है– “बहुत बुरा होता है उम्मीदों का टूट जाना, लेकिन उससे भी बुरा होता है सपनों का मर जाना”.

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