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नए बिहार का उदय



इस बात को प्रमाणित करने की कोई आवश्यकता नहीं कि बिहार विधानसभा चुनाव शत-प्रतिशत निष्पक्ष एवं शातिपूर्ण रहा है। जाहिर है नीतीश कुमार व राष्ट्रीय जनतात्रिक गठबंधन के समर्थन में जो एकपक्षीय चुनाव परिणाम आया है, उसे जन भावनाओ की स्वाभाविक अभिव्यक्ति मानने के अलावा कोई चारा नहीं है।

चुनावी हिंसा न होना एवं मतदाताओं की लंबी कतारें वास्तव में प्रदेश की बदली सामूहिक चेतना को प्रतिबिंबित करने वाली थीं। महिलाओं की लंबी कतारें एक नई सामाजिक परिवर्तन की कहानी बता रही थीं। ऐसा लगता नहीं था कि उन्हें निर्देशित और नियंत्रित करने वाले कारक कहीं उपस्थित भी हैं। यह स्थिति पहले चरण से लेकर आखिर तक बनी रही। चौथा और छठा चरण, जिसमें माओवादी आतंक का खतरा सामने था, उसमें भी यही प्रवृत्ति जारी रही।

बिहार के आम मतदाताओं की यह सामूहिक तस्वीर आने वाले परिणामों का आभास दे रही थी। पूरा प्रदेश उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम एक ही लहर में सराबोर था। एक्जिट पोल सर्वेक्षणों में केवल इस यथार्थ को ही अभिव्यक्ति मिली।

चुनाव अभियान के दौरान साफ दिखा कि आम जनता की आवाज मुखर थी। एक संप्रदाय को छोडकर सभी सामाजिक समूहों में लोग अपनी राजनीतिक इच्छा खुलेआम व्यक्त कर रहे थे। ज्यादातर लोग पूछने पर बता देते थे कि वे वोटिंग मशीन में किसके पक्ष में बटन दबाने वाले हैं, इसलिए इस बार चुनाव परिणामों का पूर्व आकलन आसान था। आकलन में समस्या तब आती है जब मतदाता अपना रुख बताने से कतराते हैं। कई कारणों से आम जागरूक मतदाता अपनी राजनीतिक पसंद बताने से बचना चाहते हैं, लेकिन इस बार बिहार में बहुमत मतदाताओं के सामने ऐसी स्थितिया नहीं थीं।

राजनीतिक समीकरणों में ज्यादातर मतदाताओं के सामने यह साफ था कि उन्हें समर्थन किसे देना है और लंबे समय बाद पहली बार कहीं किसी प्रकार की बदले की कार्रवाई का भय नहीं था। यह बिहार जैसे राज्य के लिए बहुत बड़ा बदलाव था। यानी प्रदेश की राजनीति लंबे दौर के असामान्य माहौल से बाहर निकलकर सामान्य अवस्था में आ चुकी थी, जिसमें कोई भी लोकतंत्र के सहज माहौल में अपने राजनीतिक पक्ष को बता सकता था। इस बदले महौल का स्वाभाविक राजनीतिक प्रतिफल जो हो सकता है वही चुनाव परिणाम के रूप में हमारे सामने है।

आखिर पिछले चुनाव की 46.27 प्रतिशत की जगह 52.43 प्रतिशत मतदान तथा 54.77 प्रतिशत महिलाओं का मतदान करना सामान्य घटना नहीं है। पिछले विधानसभा चुनाव में केवल 44 प्रतिशत महिलाओं ने मतदान किया था। इस बार मतदान करने वाली महिलाओं की संख्या 10 प्रतिशत बढ़ी, जबकि पुरुषों की संख्या में केवल 4 प्रतिशत की वृद्धि हुई। स्थानीय निकायों में महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण, छात्राओं को साइकिल एवं वजीफा के बाद महिलाओ की लंबी कतारें सबके चेहरे पर मुस्कान लाने वाली थीं।

नीतीश कुमार की कार्यशैली के कुछ पक्षों से असहमति व्यक्त की जा सकती है, किंतु उनके कार्यकाल में राजनीतिक माहौल भयमुक्त हुआ इससे कोई इनकार नहीं कर सकता। 2006 से अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई में कई गलत लोग भी फंसे हैं पर कुल मिलाकर करीब 52 हजार लोगों को सजा दिए जाने से राजनीतिक अपराध एवं बाहुबलियों के प्रभाव से काफी हद निजता मिली। इससे चुनाव को भी हिंसामुक्त बनाने में मदद मिली और राजनीतक तनाव का भी अंत हुआ। चूंकि नीतीश के कार्यकाल में ऐसा हुआ इसलिए उसे ज्यादातर लोगो का समर्थन मिलना स्वाभाविक है।

बिहार की सामूहिक राजनीतिक चेतना लालू बनाम नीतीश के संघर्ष से निर्मित हुई है। उनके सामने किसी आदर्श व्यक्तित्व के चयन का विकल्प नहीं था, बल्कि इन्हीं में से एक को चुनना था। नीतीश द्वारा विकास के नारे ने इसलिए मतदाताओं को प्रभावित किया, क्योंकि उनके सामने विकास का कोई आदर्श विकल्प नहीं था। लालू-राबड़ी के अविकास, नकारात्मक विकास और कुविकास के सामने पाच वर्ष की उपलब्धिया थीं। इसलिए जनता ने अग्रगामी प्रवाह का पक्ष लिया। इसमें धनपति और लालू काल के कई नेता भी राजग के चुनाव चिन्ह पर विधानसभा पहुंच गए।

दूसरी ओर राजद ही नहीं काग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ने वाले अनेक ऐसा नेता जिन्हें जनाधार वाला माना जाता था बुरी तरह पराजित हो गए। स्वयं राबड़ी देवी की पराजय क्या साधारण घटना है? काग्रेस के वर्तमान एवं पूर्व अध्यक्ष की पराजय का अर्थ क्या है? लालू-पासवान ही नहीं काग्रेस तथा एक होकर चुनाव लड़ने वाली कम्युनिस्ट पार्टिया तक इस बदली सामूहिक चेतना को अभिव्यक्त करने में सफल नहीं रहीं। बदले माहौल के समर्थकों के लिए लालू-पासवान परखे हुए जोखिम थे और काग्रेस भी।

नीतीश सहित राजग के सारे नेताओं ने राजद-लोजपा के साथ काग्रेस को भी निशाना बनाया और यह प्रश्न उठाया कि आखिर लंबे शासनकाल में इन्होंने प्रदेश को कहा छोड़ा? यह प्रश्न बदले हुए माहौल के अनुकूल था और इसका असर वही हुआ जैसा ये चाहते थे। इसमें लालू यादव की 334 एवं उनके पुत्र तेजस्वी की करीब 100 सभाएं भी काम नहीं आई। चुनावशास्त्र की भाषा में कहा जा सकता है कि विपक्षी एकता का सत्तारूढ़ गठजोड़ के मुकाबले कमजोर होना इस विजय का मूल कारण है। जद [यू] भाजपा के सामने अलग-अलग चार घटक थे और इनमें मतों का बंटना स्वाभाविक था।

अगर इन सबका मत एक साथ मिला दें तब यह जद-यू भाजपा गठजोड़ से थोड़ा ज्यादा हो जाता है। पर क्या काग्रेस और वामदल एक साथ आने की मन:स्थिति में थे? क्या वामदलों में बिहार की मुख्य जनाधार वाली भाकपा [माले] किसी सूरत में लालू और काग्रेस के साथ चुनावी तालमेल कर सकती थी। क्या अगले लोकसभा चुनाव में बहुमत का सपना पालने वाली काग्रेस लालू-पासवान के गठजोड़ में जूनियर साझेदार बनती?

पिछले लोकसभा चुनाव में काग्रेस ने अकेले 37 स्थानों पर चुनाव लड़कर 10 प्रतिशत मत पाए थे। वह इससे आगे बढ़ने की नीति पर चल रही है।

दरअसल विपक्ष का एकजुट न होना वर्तमान राष्ट्रीय एवं प्रादेशिक राजनीति की स्वाभाविक परिणति थी। सवाल यह भी है कि क्या इनकी एकता को जनता स्वीकार करती? 2005 के दोनों विधानसभा चुनाव बिहार के बहुमत का लालू-राबड़ी की नीतियों से विद्रोह का परिचायक था। रामविलास पासवान को मई 2005 के पहले चुनाव मे लालू विरोधी मत ही मिले थे। सरकार बनने देने में अड़ंगा डालने का खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा एवं अक्टूबर-नवंबर में उनके उम्मीदवार बुरी तरह पिट गए और जद [यू] भाजपा गठजोड़ ने पूर्ण बहुमत प्राप्त किया।

कहा जा सकता है कि शासन के सभी मोर्चे पर लालू-राबड़ी से बेहतर प्रदर्शन के कारण लोगों ने परिवर्तन को बनाए रखने के लिए मतदान किया। इस तरह की चेतना कई प्रकार के विखंडित सामाजिक समीकरणो को भी आत्मसात कर लेती है। ऐसा ही बिहार में हुआ है। कुछ नीतीश की नीतियों से तो कुछ बदले माहौल से पूर्व में राजनैतिक ताकत के लिए बनाया गया चुनावी सामाजिक समीकरण चरमरा गया। पिछले लोकसभा चुनाव में ही इसका संदेश मिल गया था, उसमें राजग को 175 विधानसभाओं में बढ़त मिली और इस बार तीन चैथाई से ज्यादा का बहुमत। भाजपा की सीटें जिस अनुपात में बढ़ीं उसकी कोई कल्पना नहीं रहा था।

इस परिणाम से साफ है कि राजग को सभी जातीय समूहों का मत मिला है। जिन 54 क्षेत्रों में मुस्लिम मत निर्धारक हैं उनमें ही 46 पर राजग की विजय का अर्थ साफ है। वास्तव में इस बदलाव के जो सकारात्मक पक्ष हैं उनको और ताकत देने की आवश्यकता है। इससे बिहार के साथ पूरे देश की राजनीति के लिए अच्छा संदेश जाएगा।

मौजूदा चुनाव परिणाम के आधार पर कहा जा सकता है कि जब तक परिवर्तन का कोई बेहतर विकल्प नहीं आता या राजग गठजोड़ स्वयं कुछ नादानी नहीं करता, इसमें परिवर्तन की संभावना नहीं है।

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