अद्भुत दृश्य था। मुंह अंधेरे नहा-धोकर हजारों-लाखों की भीड़ नदी-तालाब-कुओं के पास इक_ी। ओह! कितनी बेसब्री थी उन आंखों में। तीन बजे सुबह से ही सूर्य के उगने की प्रतीक्षा। सड़कों पर कोई झाड़ू लगा रहा है, कोई पानी मार रहा है। इस रास्ते से परवैतिन-व्रती गुजरने वाले हैं। जात-धर्म का कहीं कोई मोल नहीं। गरीब-गुरबों के अधनंगे बच्चे घाटों के किनारे जमा हो गए हैं। आज उन्हें कोई हिकारत से नहीं देख रहा था। दूसरे त्योहार भी होते हैं, ऐसे बिन बुलाए मेहमान आ गए तो तुरत झिड़की। पर, यहां तो आशीष के साथ सबके हाथों में प्रसाद रखा जा रहा है। अद्भुत व्रत छठ का। व्रती के आगे प्रसाद के लिए हाथ फैलाने वाले सबके सब एक रंग में। चाहे कीमती गर्म कपड़ों में लिपटा कोई हो या भूखा-अंधनंगा। व्रती के लिए सब एक समान। जो जैसे आया सबके हाथों में प्रसाद देना ही देना है। न कहीं मारपीट, न तू तू-मैं मैं। कौन-सी शक्ति है यह, जिसने सबको इतना अनुशासित बना दिया।
मंदिर-मस्जिद के नाम पर दंगे-फसाद होते रहे हैं। पर, दो जगहों पर अनुशासन का अनूठा रूप देखा है मैंने। एक तो छठ व्रत के समय और दूसरा किसी पीर बाबा की मजार पर। हिंदू हो या मुसलमान, क्या मजाल कि कोई इधर-उधर कर ले। भागलपुर में भी जब दंगा हुआ था तो मजार को कहीं कोई आंच नहीं आई। तो फिर, दूसरे मौके पर जब-तब क्यों हो जाती है भिड़ंत। जबकि, हर जगह आस्था ही होती है। ईश्वर या अल्लाह के रूप में। शायद कुछ अनुष्ठानों में पारंपरिक अनुशासन और भय इसका कारण रहा हो। छठ के वक्त एक अज्ञात भय से भी कांपते रहते हैं लोग। कहीं हवन वाले गोइठा में पांव न पड़ जाए, कहीं व्रत का कोई सामान न छू जाए। कहीं गंदगी न रह जाए। यह व्रत मुसलमानों को भी करते देखा है। तो दूसरी ओर पीर की मजार पर भी आस्था का वही स्वरूप। हिंदू हों या मुसलमान, निष्ठा की चादर लेकर उस दरगाह पर पहुंचने वाले हर किसी की आंखों में उमड़ रहा होता है एक निश्छल विश्वास। बस! इसी विश्वास की दरकार हर जगह है। चाहे दशहरा हो या ईद।
मंदिर-मस्जिद के नाम पर दंगे-फसाद होते रहे हैं। पर, दो जगहों पर अनुशासन का अनूठा रूप देखा है मैंने। एक तो छठ व्रत के समय और दूसरा किसी पीर बाबा की मजार पर। हिंदू हो या मुसलमान, क्या मजाल कि कोई इधर-उधर कर ले। भागलपुर में भी जब दंगा हुआ था तो मजार को कहीं कोई आंच नहीं आई। तो फिर, दूसरे मौके पर जब-तब क्यों हो जाती है भिड़ंत। जबकि, हर जगह आस्था ही होती है। ईश्वर या अल्लाह के रूप में। शायद कुछ अनुष्ठानों में पारंपरिक अनुशासन और भय इसका कारण रहा हो। छठ के वक्त एक अज्ञात भय से भी कांपते रहते हैं लोग। कहीं हवन वाले गोइठा में पांव न पड़ जाए, कहीं व्रत का कोई सामान न छू जाए। कहीं गंदगी न रह जाए। यह व्रत मुसलमानों को भी करते देखा है। तो दूसरी ओर पीर की मजार पर भी आस्था का वही स्वरूप। हिंदू हों या मुसलमान, निष्ठा की चादर लेकर उस दरगाह पर पहुंचने वाले हर किसी की आंखों में उमड़ रहा होता है एक निश्छल विश्वास। बस! इसी विश्वास की दरकार हर जगह है। चाहे दशहरा हो या ईद।
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Aap sabhi bhaiyo & bahno se anurodh hai ki aap sabhi uchit comment de............
jisse main apne blog ko aap sabo ke samne aur acchi tarah se prastut kar saku......