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सफलता अकेली ठीक नहीं, शांति भी हो

युवाओं को सफलता तो खुब मिल रही है, सारे सुख-सुविधाएं भी जुटाई जा रही हैं, मल्टीनेशनल्स में अच्छे पैकेज के साथ नौकरी भी है लेकिन गहराई से देखने पर पता चलता है कि अभी कुछ चूक हो रही है। हम भीतर से अशांत हैं क्योंकि हमारी जो जड़ें हैं, वे कमजोर होती जा रही हैं, आध्यात्मिक रूप से हम खोखले हैं।



आज जितनी भी शिक्षा, ज्ञान, समझ दी जा रही है, पाठ पढ़ाया जा रहा है और अक्ल बांटी जा रही है, उसमें यह शर्त के साथ शपथ के रूप में बताया जा रहा है कि हर काम में, हर हाल में सफल होना ही है। असफल लोग जितने हताश और परेशानी में हैं सफल लोग उससे भी ज्यादा परेशानी और तनाव में हैं। सफल हो जाएं और फिर लगातार सफल बने रहें, यह इरादा एक दिन दुराग्रह में बदल जाता है और इससे भी आगे जाकर नशे का रूप ले लेता है। हर बार सफल होने की इच्छा धीरे-धीरे सदैव जीत की आकांक्षा में बदल जाती है। सफलता और जीत के बारीक फर्क को समझ लें। सफलता में स्वहित का भाव रहता है परन्तु परहित की कामना भी बनी रहती है। सफल लोग अपनी सफलता में दूसरों का नुकसान नहीं करना चाहते, किन्तु जीत, पराजय के बिना हासिल होती ही नहीं। दूसरों को पराजित करने में हम जाने अनजाने में कब हिंसा, ईष्र्या, द्वेष, षडयंत्र पाल लेते हैं पता ही नहीं चलता।जीत एक काल कोठरी की तरह है और सफलता खुले काराग्रह की तरह। दुनिया में दो तरह की जेल है। पहली जो दूसरों के लिए बनाई गई है और दूसरी वह जो हमने अपने लिए बना ली है। जो अधार्मिक लोग हैं वे हमेशा दूसरों के हारने के चक्कर में रहते हैं और जीत उनके लिए नशा है। ऐसे लोग केवल जीत ही हासिल नहीं करते वे बहुत सारी अशांति भी प्राप्त कर लेते हैं। जो धार्मिक हैं वे जीत की जगह सफलता पर टिकते हैं लेकिन पूर्ण शांति से ऐसे लोग भी वंचित रह जाते हैं। इन दोनों से ऊंची स्थिति है आध्यात्मिक होने की। आध्यात्मिक व्यक्ति कभी भी असफल नहीं होता। इसे मिले तो भी वो जीतता है, यदि हारे तो भी जीतता है। उसकी घोषणा होती है कि मुझे कोई हरा नहीं सकता, क्योंकि मैं जीतना नहीं चाहता, मैं कभी असफल नहीं होता क्योंकि सफलता के प्रति मेरा दुराग्रह नहीं है। मेरी रुचि कर्म करने में है। पूरी निष्ठा और ईमानदारी से सफलता असफलता तो ऊपर वाले पर छोड़ देता हूं तभी तो आध्यात्मिक हूं। इसलिए कर्म और परिणाम को आध्यात्मिक दृष्टि से लिया जाए। केवल सांसारिक नजरिए से न लें।

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