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प्रेम तो शक्ति है, उसे अपनी कमजोरी न बनने दें ...



हमारी कमजोरियां हमें न सिर्फ नुकसान पहुंचाती हैं बल्कि पतन भी करा देती हैं। श्रीराम के पिता राजा दशरथ की कमजोरी रानी कैकेयी थीं। राजा दशरथ ने कोप भवन में बैठी रानी को मनाने के लिए ऐसे वचन कहे थे- प्रिया प्रान सुत सरबसु मोरें। परिजन प्रजा सकल बस तोरें॥ यानि कि हे प्रिये, मेरी प्रजा, कुटुम्बी, सारी सम्पत्ति, पुत्र और यहां तक कि मेरे प्राण ये सब तेरे अधीन हैं। तू जो चाहे मांग ले पर अब कोप त्याग, प्रसन्न होजा। यह राजा की कमजोरी थी। कैकेयी की कमजोरी उनकी दासी मंथरा थी जो कि स्वभाव से ही लालची थी। करइ बिचारू कुबुद्धि कुजाती। होइ अकाजु कवनि बिधि राती॥ वह दुर्बुद्धि, नीच जाति वाली दासी विचार करने लगी कि किस प्रकार से यह काम रातोंरात बिगड़ जाए। श्रीराम के राजतिलक के पूर्व कैकेयी ने मंथरा की बात सुनी, उसके बहकावे में आ गईं और दशरथ से भरत के लिए राजतिलक तथा श्रीराम के लिए वनवास मांग लिया। अपनी कमजोरी के वश में आकर कैकेयी ने रामराज्य का निर्णय उलट दिया और तो और, दासी का सम्मान करते हुए कहा - करौ तोहि चख पूतरि आली। यदि मेरा यह काम होता है, मैं तुझे अपनी आंखों की पुतली बना लूंगी। मनुष्य अपनी ही कमजोरी के वश में होकर गलत निर्णय लेता है और इसी कमजोरी को पूजने लगता है।

श्रीरामचरितमानस में एक प्रसंग आता है कि जब श्रीराम वनवास चले गए, दशरथ का निधन हो गया और भरत तथा शत्रुघ्न अपने ननिहाल से लौटे तब मंथरा पर शत्रुघ्न ने प्रहार किया था। हुमगि लात तकि कू बर मारा। परि मुह भर महि करत पुकारा ''उन्होंने जोर से कुबड़ पर एक लात जमा दी और वह मुंह के बल जमीन पर गिर पड़ी।'' इसमें प्रतीक की बात यह छिपी है कि जो कमजोरी पर प्रहार करता है वह शत्रुघ्न कहलाता है और हमें अपने शत्रु का नाश ऐसे ही करना चाहिए। लोभ हमारा सबसे बड़ा शत्रु है, कमजोरी है इसे बक्शना नहीं चाहिए। वरना जो लोग कमजोरियों को ढोते हैं एक दिन वह कमजोरी उनको पटकनी दे देती है।

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