गीता में श्री कृष्ण ने कहाँ है : सर्वधर्मान परित्यज्य। अर्थात सभी धर्मो को छोरकर मेरी शरण में आ जाओ। केवल सरनागत हो जाओ। बस इतना ही काफी है। मैं तुम्हे तमाम पापो से मुक्त कर दूंगा।
गोपिया तो नि:साधन हो गई थी। देखा जाए तो उन्होंने भगवन को प्राप्त करने के लिए कुछ किया ही नहीं था। गोपिया सिर्फ भगवान की शरण में चली गई थी। फ़िर जो कुछ किया भगवान ने ही किया। पूतना अर्थात अविद्या, मोह रूपी वृत्रासुर, दंभ रूपी बकासुर और पाप रूपी अधासुर को मारा तो भगवान ने ही मारा। रजोगुण और तमोगुण के प्रभाव का नाश किया तो भगवान ने ही किया। गोपिया भगवान की शरणागत है। पुर्न्मन और अनन्यभाव से। इसलिए तो मीरा कहती है :
ना जानू मैं आरती वंदन, न पूजा की रीत,/सखी, मैं तो प्रेम दीवानी, मेरा दर्द न जाने कोई।
कृष्ण ने 'सर्वधर्मान परित्यज्य' और शरण में आने का निर्देश क्यों दिया। क्योकि उन्हें मालूम है की लोगो की अधर्म के प्रति ज्यादा रूचि है।इसलिए यदि में ऐसा कहू की अधर्म को छोरकर मेरी शरण में आ जाओ तो अधर्म में रूचि होने से वे अधर्म को तो छोरेंगे नहीं, मेरी शरण में आयेंगे नहीं। अगर में कहूँ की सभी धर्म छोरकर मेरे पास आ जाओ तो जल्द ही मान जायेंगे।
जीवन में कुछ पाना चाहते हो तो उसके लिए प्यास होनी चाहिए और वह भी सच्ची प्यास। एक किस्सा है एक बार किसी रेलवे प्लेटफार्म पर जब गारी रुकी तो एक लरका पानी बेचता हुआ निकला। ट्रेन में बैठे एक सेठ ने उसे आवाज दी, ऐ लरके, इधर आ। लरका दौरकर आया। उसने पानी का ग्लास भरकर सेठ की ओर बाध्य तो सेठ ने पूछा, कितने पैसे में? लरके ने कहा , पचीस पैसे। सेठ ने उससे कहा की पन्द्रह पैसे में देगा क्या? यह सुनकर लरका हलकी मुस्कान दबाये पानी वापस घरे में उरेलता हुआ आगे बढ़ गया। उसी डिब्बे में एक महात्मा बैठे थे, जिन्होंने यह नजारा देखा था की लरका मुस्कुराया पर मौन रहा। जरुर कोई रहस्य उसके मन में होगा। महात्मा नीचे उतरकर उस लरके के पीछे- पीछे गए। बोले: ऐ लरके, ठहर जरा, यह तो बता तू हंसा क्यों? वह लरका बोला, महाराज, मुझे हँसी इसलिए आई की सेठजी को प्यास तो लगी ही नहीं थी। लरके जे जवाब दिया, महाराज, जिसे वाकई प्यास लगी हो वह कभी रेट नहीं पूछता। वह तो ग्लास लेकर पहले पानी पीता है। फ़िर बाद में पूछेगा की कितने पैसे देने है? वास्तव में जिन्हें इश्वर ओर जीवन में कुछ पाने की तम्मंना होती है, वे वाद-विवाद में नहीं परते। पर जिनकी प्यास सच्ची नहीं होती, वे ही वाद-विवाद में परे रहते है। वे साधना के पथ पर आगे नहीं बढ़ते। मन में सच्ची प्यास है तो उपाय तैयार है। ऐसे लोग भगवान की शरण में समर्पित हो जाते है। उनके पाप प्रभु को समर्पित होने से टिक नहीं पते है। हम जैसे है, जहाँ है, वोहन से इश्वर तक पहुच सकते है। सिर्फ़ मन में सच्ची प्यास होनी चाहिए। संकल्प होना चाहिए। इच्छा तो कीजिये, फ़िर उपाय तैयार मिलेगा। हमें तो केवल प्रभु की शरण में समर्पित हो जाना चाहिए। दो कदम आगे चलिए तो सही, वह दौरकर आएगा। यह जीवन उसी का दिया हुआ प्रसाद है ओर वही इसे चला रहा है। इसके लिए हम भगवान का ऋणी होना चाहिए। इसके लिए हमें यज्ञ करना चाहिए।
लोग सामान्य तौर पर क्या कहते है, बंगला है, मोटर है, यानि इश्वर की कृपा है। कृपा का अर्थ है प्रसाद। ओर फ़िर प्रसाद को कभी अकेले नहीं खाया जाता। उसे banta
गोपिया तो नि:साधन हो गई थी। देखा जाए तो उन्होंने भगवन को प्राप्त करने के लिए कुछ किया ही नहीं था। गोपिया सिर्फ भगवान की शरण में चली गई थी। फ़िर जो कुछ किया भगवान ने ही किया। पूतना अर्थात अविद्या, मोह रूपी वृत्रासुर, दंभ रूपी बकासुर और पाप रूपी अधासुर को मारा तो भगवान ने ही मारा। रजोगुण और तमोगुण के प्रभाव का नाश किया तो भगवान ने ही किया। गोपिया भगवान की शरणागत है। पुर्न्मन और अनन्यभाव से। इसलिए तो मीरा कहती है :
ना जानू मैं आरती वंदन, न पूजा की रीत,/सखी, मैं तो प्रेम दीवानी, मेरा दर्द न जाने कोई।
कृष्ण ने 'सर्वधर्मान परित्यज्य' और शरण में आने का निर्देश क्यों दिया। क्योकि उन्हें मालूम है की लोगो की अधर्म के प्रति ज्यादा रूचि है।इसलिए यदि में ऐसा कहू की अधर्म को छोरकर मेरी शरण में आ जाओ तो अधर्म में रूचि होने से वे अधर्म को तो छोरेंगे नहीं, मेरी शरण में आयेंगे नहीं। अगर में कहूँ की सभी धर्म छोरकर मेरे पास आ जाओ तो जल्द ही मान जायेंगे।
जीवन में कुछ पाना चाहते हो तो उसके लिए प्यास होनी चाहिए और वह भी सच्ची प्यास। एक किस्सा है एक बार किसी रेलवे प्लेटफार्म पर जब गारी रुकी तो एक लरका पानी बेचता हुआ निकला। ट्रेन में बैठे एक सेठ ने उसे आवाज दी, ऐ लरके, इधर आ। लरका दौरकर आया। उसने पानी का ग्लास भरकर सेठ की ओर बाध्य तो सेठ ने पूछा, कितने पैसे में? लरके ने कहा , पचीस पैसे। सेठ ने उससे कहा की पन्द्रह पैसे में देगा क्या? यह सुनकर लरका हलकी मुस्कान दबाये पानी वापस घरे में उरेलता हुआ आगे बढ़ गया। उसी डिब्बे में एक महात्मा बैठे थे, जिन्होंने यह नजारा देखा था की लरका मुस्कुराया पर मौन रहा। जरुर कोई रहस्य उसके मन में होगा। महात्मा नीचे उतरकर उस लरके के पीछे- पीछे गए। बोले: ऐ लरके, ठहर जरा, यह तो बता तू हंसा क्यों? वह लरका बोला, महाराज, मुझे हँसी इसलिए आई की सेठजी को प्यास तो लगी ही नहीं थी। लरके जे जवाब दिया, महाराज, जिसे वाकई प्यास लगी हो वह कभी रेट नहीं पूछता। वह तो ग्लास लेकर पहले पानी पीता है। फ़िर बाद में पूछेगा की कितने पैसे देने है? वास्तव में जिन्हें इश्वर ओर जीवन में कुछ पाने की तम्मंना होती है, वे वाद-विवाद में नहीं परते। पर जिनकी प्यास सच्ची नहीं होती, वे ही वाद-विवाद में परे रहते है। वे साधना के पथ पर आगे नहीं बढ़ते। मन में सच्ची प्यास है तो उपाय तैयार है। ऐसे लोग भगवान की शरण में समर्पित हो जाते है। उनके पाप प्रभु को समर्पित होने से टिक नहीं पते है। हम जैसे है, जहाँ है, वोहन से इश्वर तक पहुच सकते है। सिर्फ़ मन में सच्ची प्यास होनी चाहिए। संकल्प होना चाहिए। इच्छा तो कीजिये, फ़िर उपाय तैयार मिलेगा। हमें तो केवल प्रभु की शरण में समर्पित हो जाना चाहिए। दो कदम आगे चलिए तो सही, वह दौरकर आएगा। यह जीवन उसी का दिया हुआ प्रसाद है ओर वही इसे चला रहा है। इसके लिए हम भगवान का ऋणी होना चाहिए। इसके लिए हमें यज्ञ करना चाहिए।
लोग सामान्य तौर पर क्या कहते है, बंगला है, मोटर है, यानि इश्वर की कृपा है। कृपा का अर्थ है प्रसाद। ओर फ़िर प्रसाद को कभी अकेले नहीं खाया जाता। उसे banta
Good Article.Keep writing.
जवाब देंहटाएंHare Krishna !!