हमारे देश में बरे परिवारों की परम्परा बहुत पुराणी है। परिवार के सभी सदस्यों की रिश्तेदारिया हो जाती है। जैसे चार भाई है, तो उन चारो की ससुराल, बहन की ससुराल, ताऊ व चाचा की ससुराल, नाना का घर, बुआए मौसी का घर आदि। दूर-दूर तक फेली रिस्तेदारियो वाला परिवार समाज में मान-सम्मान की दृष्टी से भी देखा जाता रहा है।
घर की किसी भी गमी या खुशी में इन सभी का इकट्ठा होकर परिवार के साथ होना उस परिवार के लिए एक बरी बात होती है। आम तौर पर हर व्यक्ति के मन में यह रहता है की हमारे शादी या गमी में ज्यादा से ज्यादा लोग आए। कई बार तो व्यक्ति परोस या रिश्तेदारी में किसी के मरने या जीने में कितने लोग शामिल हुए, उसको भी गिनने की कोशिश करता है और उसके आधार पर अनुमान लगाता है की मेरे यहाँ कितने लोग आयेंगे।
रिश्तेदारों में नजदीकी के कारन व्यक्ति एक-दुसरे की प्रकृति और स्वाभाव को भी जानने लगता है और उनके सुख-दुःख में इतना जुरने लगता है की उसी का एक हिस्सा बन जाता है। ये बरी रिस्तेदारिया ही कई बार हमारे परचिन्तन का कारन होती है। एक तरह से देखे तो आम लोगो की जिंदगी में यही फेली हुई रिस्तेदारिया उनका संसार बन जाती है और इसी संसार से जुरे मोह, इर्ष्या, क्रोध और दया जैसे भावो के बीच लोग अपनी जिंदगी बिता देते है।
सभी सगे-संबंधियों की प्रकृति, स्वाभाव, संस्कार व आदते अलग- अलग होती है। कोई शराबी होगा, कोई जुवारी, कोई क्रोधी होगा, किसी हो हार्ट की प्रॉब्लम होगी, किसी को केंसर होगा, किसी को पैरालिसिस होगा, तो किसी को संतान नहीं होगी। कोई जवानी में मर गया होगा, किसी का तलाक़ हो गया होगा। इस प्रकार इस बात को अच्छी तरह समझ लेना होगा की हम सभी के साथ कुछ न कुछ चलता ही रहता है।
अध्यात्म कहता है की सबके साक्षी हो जाओ और बिना उसका रूप या भागीदार बने जितनी भलाई या सहायता आपसे हो सकती है, उतनी जरुर करो। लेकिन समस्या तब आती है, जब हम स्वयं भी उनका रूप या हिस्सा बन्ने लगते है। जैसे रिश्तेदारी में कोई परशानी होने पर हम उसी के बारे में सोचते रहते है या उसे ले कर ख़ुद भी परेशां रहने लगते है। जबकि एक सीमा के आगे हम उसमे कुछ कर नहीं सकते, सबकी अपनी -अपनी यात्रा है। संसार इसी तरह से चलता है।
हमारी तिन तरह की फेमिली होती है - बायोलोजिकल फेमिली, इन्तेलेक्टुँल फेमिली और स्प्रितुअल फेमिली। बिओलोगिकल फेमिली में सगे सम्बन्धी आते है, इन्तेलेक्टुँल फेमिली में बौधिक स्तर पर साथ काम करने वाले हमारे कॉलीग्स और प्रोफेशनल फ्रिएंड्स आते है। इनसे जब मिलते है तो बुधि के स्तर पर चर्चा करते है। तीसरी होती है स्प्रितुअल फेमिली। जब हम अध्यात्मिक उन्नति के लिए किसी को अपना अध्यात्मिक गुरु बनाते है, तब उन गुरु द्वारा दीक्षित सभी शिष्य एक फेमिली की तरह हो जाते है। हम उनसे जब भी मिलते है तब ज्ञान की चर्चा करते है, प्रकृति की चर्चा वहां नहीं होती। इन तीनो फेमिलिएस का अपना -अपना प्रभाव होता है। लेकिन आम तौर पर बिओलिगिकल फेमिली से लोग सिर्फ़ तमोगुण, इन्तेलेक्टुँल फेमिली से रजोगुण और स्प्रितुअल फेमिली से सत्व गुन ही ग्रहण किया करते है। मोह और आसक्ति के कारन हम में से अधिकतर लोग अपना दायरा अपनी बिओलोगिकल फेमिली तक ही सिमित कर देते है। वही हमारे सुख- दुःख का कारन बन जाता है।
यह आसक्ति तब तक ज्यादा होती है जब तक हमारी स्प्रितुअल फेमिली नहीं होती। कुछ सोचते है की स्प्रितुअल फेमिली होने पर कहीं बिओलोगिकल फेमिली छुट न जाए, लेकिन वस्तुतः ऐसा नहीं है। यदि हम अपनी स्प्रितुअल फेमिली बनाये तो ऐसा नहीं है की बिओलोगिकल फेमिली पर ध्यान नहीं दे पाएंगे। बल्कि इस धारणा के उलट हम विकल्पों से ऊपर उठ जायेंगे और साक्षी भावः में आकर सबके लिए अच्छा भावः रखेंगे।
घर की किसी भी गमी या खुशी में इन सभी का इकट्ठा होकर परिवार के साथ होना उस परिवार के लिए एक बरी बात होती है। आम तौर पर हर व्यक्ति के मन में यह रहता है की हमारे शादी या गमी में ज्यादा से ज्यादा लोग आए। कई बार तो व्यक्ति परोस या रिश्तेदारी में किसी के मरने या जीने में कितने लोग शामिल हुए, उसको भी गिनने की कोशिश करता है और उसके आधार पर अनुमान लगाता है की मेरे यहाँ कितने लोग आयेंगे।
रिश्तेदारों में नजदीकी के कारन व्यक्ति एक-दुसरे की प्रकृति और स्वाभाव को भी जानने लगता है और उनके सुख-दुःख में इतना जुरने लगता है की उसी का एक हिस्सा बन जाता है। ये बरी रिस्तेदारिया ही कई बार हमारे परचिन्तन का कारन होती है। एक तरह से देखे तो आम लोगो की जिंदगी में यही फेली हुई रिस्तेदारिया उनका संसार बन जाती है और इसी संसार से जुरे मोह, इर्ष्या, क्रोध और दया जैसे भावो के बीच लोग अपनी जिंदगी बिता देते है।
सभी सगे-संबंधियों की प्रकृति, स्वाभाव, संस्कार व आदते अलग- अलग होती है। कोई शराबी होगा, कोई जुवारी, कोई क्रोधी होगा, किसी हो हार्ट की प्रॉब्लम होगी, किसी को केंसर होगा, किसी को पैरालिसिस होगा, तो किसी को संतान नहीं होगी। कोई जवानी में मर गया होगा, किसी का तलाक़ हो गया होगा। इस प्रकार इस बात को अच्छी तरह समझ लेना होगा की हम सभी के साथ कुछ न कुछ चलता ही रहता है।
अध्यात्म कहता है की सबके साक्षी हो जाओ और बिना उसका रूप या भागीदार बने जितनी भलाई या सहायता आपसे हो सकती है, उतनी जरुर करो। लेकिन समस्या तब आती है, जब हम स्वयं भी उनका रूप या हिस्सा बन्ने लगते है। जैसे रिश्तेदारी में कोई परशानी होने पर हम उसी के बारे में सोचते रहते है या उसे ले कर ख़ुद भी परेशां रहने लगते है। जबकि एक सीमा के आगे हम उसमे कुछ कर नहीं सकते, सबकी अपनी -अपनी यात्रा है। संसार इसी तरह से चलता है।
हमारी तिन तरह की फेमिली होती है - बायोलोजिकल फेमिली, इन्तेलेक्टुँल फेमिली और स्प्रितुअल फेमिली। बिओलोगिकल फेमिली में सगे सम्बन्धी आते है, इन्तेलेक्टुँल फेमिली में बौधिक स्तर पर साथ काम करने वाले हमारे कॉलीग्स और प्रोफेशनल फ्रिएंड्स आते है। इनसे जब मिलते है तो बुधि के स्तर पर चर्चा करते है। तीसरी होती है स्प्रितुअल फेमिली। जब हम अध्यात्मिक उन्नति के लिए किसी को अपना अध्यात्मिक गुरु बनाते है, तब उन गुरु द्वारा दीक्षित सभी शिष्य एक फेमिली की तरह हो जाते है। हम उनसे जब भी मिलते है तब ज्ञान की चर्चा करते है, प्रकृति की चर्चा वहां नहीं होती। इन तीनो फेमिलिएस का अपना -अपना प्रभाव होता है। लेकिन आम तौर पर बिओलिगिकल फेमिली से लोग सिर्फ़ तमोगुण, इन्तेलेक्टुँल फेमिली से रजोगुण और स्प्रितुअल फेमिली से सत्व गुन ही ग्रहण किया करते है। मोह और आसक्ति के कारन हम में से अधिकतर लोग अपना दायरा अपनी बिओलोगिकल फेमिली तक ही सिमित कर देते है। वही हमारे सुख- दुःख का कारन बन जाता है।
यह आसक्ति तब तक ज्यादा होती है जब तक हमारी स्प्रितुअल फेमिली नहीं होती। कुछ सोचते है की स्प्रितुअल फेमिली होने पर कहीं बिओलोगिकल फेमिली छुट न जाए, लेकिन वस्तुतः ऐसा नहीं है। यदि हम अपनी स्प्रितुअल फेमिली बनाये तो ऐसा नहीं है की बिओलोगिकल फेमिली पर ध्यान नहीं दे पाएंगे। बल्कि इस धारणा के उलट हम विकल्पों से ऊपर उठ जायेंगे और साक्षी भावः में आकर सबके लिए अच्छा भावः रखेंगे।
टिप्पणियाँ
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Aap sabhi bhaiyo & bahno se anurodh hai ki aap sabhi uchit comment de............
jisse main apne blog ko aap sabo ke samne aur acchi tarah se prastut kar saku......