वाल्टेयर ने कहा है की यदि इश्वर का अस्तित्व नहीं है तो ये जरुरी है की उसे खोज लिया जाए। प्रश्न उठता है की उसे कहाँ खोजे? कैसे खोजे? कैसा है उसका स्वरुप? वह बोधगम्य है भी या नहीं? अनादिकाल से अनेकानेक प्रश्न मनुष्य के जेहन में कुलबुलाते रहे है और खोज के रूप में अपने-अपने ढंग से लोगो ने इश्वर को परिभाषित भी किया है। उसकी प्रतिमा भी बने है। इश्वर के अस्तित्व के विषय में परस्पर विरोधी विचारो की भी कमी नहीं है।
एक तर्क यह भी है की इश्वर एक अत्यन्त सूक्ष्म सत्ता है, अतः स्थूल इन्द्रियों से उसे अनुभव नहीं किया जा सकता है। एक तरफ हम इश्वर के अस्तित्व को स्वीकार भी कर रहे है और दूसरी तरफ इश्वर को अनुभव से परे की वास्तु भी बता रहे है। भारतीय दर्शन में ईश्वरवादी और अनीश्वरवादी दो प्रमुख विचार्धरेये मिलती है। लेकिन ईश्वरवादी विचारधाराओ में भी इश्वर के स्वरुप को लेकर अनेक भेद मिलते है।
मीमांसा के प्रवर्तक जैमिनी इश्वर की बात ही नहीं करते, तो सांख्य में कपिल 'इश्वारासिधिः' अर्थात इश्वर का प्रमाण नहीं है अथवा सृष्टि का स्वामी अनिग्मय है - ऐसा कह कर इश्वर के स्वरुप को और उलझा देते है, जटिल बना देते है। वस्तुतः इन्ही संकल्प्नाओ और कल्पनाओ के अधर पर इश्वर के विभिन्न स्वरुप आज हमारे सामने है। जिसको जो स्वरुप अच्छा लगा, वह उसी के साथ बंध गया। उर्दू शायर ' अकबर' इलाहाबादी तो ये कहते है: जहन में जो घिर गया लैंथ क्यो कर हुआ,/ जो समझ में आ गया फ़िर वो खुदा क्यों कर हुआ।
कहा गया है की सृष्टि की रचना प्रभु की इच्छा मात्र से हो गई। सोअकम्यत। बहुस्यां प्रजायेयेति। उस परमात्मा ने कामना की मैं बहुत हो जाऊ। प्रभु ने चाहा कल्पना की और सृष्टि का सृजन प्रारम्भ हो गया. ऋग्वेद में कहा गया है, 'प्रारम्भ में न अस्तित्व था और न ही अनस्तित्व। सम्पूर्ण विश्व एक अदृश्य उर्जा था।' बहुत पहले सचमुच कुछ नहीं था। एक शुन्य से, एक निर्वात से इस सृष्टि की उत्त्पति प्रारम्भ हुई, ऐसा वेदों में कहा गया है।
यदि हम साधारण शब्दों में कहे तो हमारे कल्पना रूपी इश्वर की कल्पना मात्र से ही यह सृष्टि अस्तित्व में आई। कल्पना का बहुत महत्व है। इश्वर भी कल्पनाशील था और मनुष्य भी कल्पनाशील है। सृष्टि की रचना प्रारभ ही और अन्य प्राणियो के बाद मनुष्य भी इस सृष्टि में सम्मिलित हो गया।
कल्पना ही सही, इश्वर एक बहुत बार सहारा है। चाहे वह साकार हो या निराकार, व्यक्त हो या अव्यक्त, हम आस्तिक हो या नास्तिक, हमारी कल्पना का इश्वर तो है ही। यदि इश्वर बोधगम्य नहीं है अथवा इश्वर है ही नहीं, तो जीवन के निराशाजनक क्षणों में, विषम प्रतिकूल परिस्थितियों में डेट रहने का संबल इश्वर नहं तो और क्या हो सकता है।
यहाँ एक बात और उभर कर आती है की इश्वर का अस्तित्व यदि किसी भी रूप में है, तो वह आदमी के कारन ही है। यदि आदमी ही नहीं तो कहे का इश्वर? ग्राहक नहीं तो कैसी दुकान और कैसा दुकानदार? बिना प्रजा कैसा रजा? ख्वाजा मीर 'दर्द' ठीक ही कहते है :
इंसान की जात से ही खुदाई का खेल है,
बाजी कहाँ बिसात पे गर शाह ही नहीं.
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Aap sabhi bhaiyo & bahno se anurodh hai ki aap sabhi uchit comment de............
jisse main apne blog ko aap sabo ke samne aur acchi tarah se prastut kar saku......