हम्मे से बहुत से लोगो के मन में यह विचार कई बार आता होगा की भाग्य प्रबल है या पुरुषार्थ। हम बचपन से ही यह सुनते आ रहे है। कोई कभी कहता है की भाग्य ब्रा है, कभी प्रयास को महत्वपूर्ण बताता है। इसी उधेर्बुन में हम सब बरे होते चले आए है। किन्तु अभी तक इसका समाधान कहीं नहीं ढूढ़ पाए।
कोई तो झुग्गी-झोपरी में जन्म लेता है और पुरा जीवन अभावग्रस्त रहता है। वह जीवन का हर पल रोग, भूख, शोक और अपमान की स्थिति में रह कर जीता है और नारकीय जीवन बिताता हुआ इस संसार से कुच कर जाता है। कोई किसी संपन्न घराने में जन्म लेता है, जहाँ सब सुख-सुविधाए, पदप्रतिष्ठा, मान-सम्मान् का बाहुल्य होता है। उसे कभी अनुभव भी नहीं होता होगा की अभाव क्या होता है, भूख और गरीबी क्या होती है।
अक्सर आपने ऐसा भी देखा होगा की कोई तो जन्म से ही स्वस्थ, सबल और सुंदर होता है और कोई जन्म से ही कुरूप या विकलांग पैदा होता है। किसी को दीर्घायु प्राप्त होती है, तो कोई अकाल ही काल का ग्रास बन जाता है। कहीं पति संसार से पहले कुच कर जाता है तो कहीं पत्नी का पहले प्राणांत हो जाता है। ऐसा क्यों होता है? साधारनतया हम सब यही कहते है की इस सब के लिए भाग्य ही जिम्मेदार है। और देखिये, कोई व्यक्ति मिट्टी में हाथ डालता है तो उसके हाथ कोई खजाना लग जाता है। और कई बार कोई व्यक्ति सम्पन्नता की उचाई से ऐसा गिरता है की सब कुछ मिट्टी हो जाता है। यह विधि की विडंबना ही तो है। प्राब्ध का खेल लगता है। शायद यही कारन है की हम लोग तक़दीर का रोना रोते है और भाग्य को पलटने की कई उलटी-सीधी जुगत लगते है। कई जादू-टोना, धागा-ताबीज, झारू-फूंक या फिर किसी पाखंडी ज्योतिषी का सहारा लेते है। मनुष्य एक विचारशील प्राणी है और विचार ही मनुष्य की सबसे बरी सम्पदा है। समग्र प्राणी जगत में मानव दुर्लभ और अमूल्य माना गया है। जिस भी रूप में यह मानव-जीवन मिला है, अमूल्य है। क्या ऐसा उचित होगा की भाग्य को ही सदा कोसते हुए हम अकर्मण्य बनकर इस अमूल्य जीवन को व्यर्थ नस्ट होने दे? यह संसार तो कर्म करने की भूमि है और हम हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहेंगे तो कोई भी काम सिद्ध नहीं होने वाला है। जब तक सामने परी हुई थाली में से निवाला नहीं तोरेंगे, वह मुंह में नहीं जाएगा। अरण्य का शेर भी जब तक अपने भोजन के लिए स्वयम प्रयास नहीं करता, अपने आप उसके मुंह में कोई पशु नहीं आता। शेर को भी पुरुषार्थ करना परता है, अपनी मांद छोरकर किसी मृग आदि के पीछे भागेगा तभी उसकी उदरपूर्ति होगी। हमारे मनीषी बताते है की भाग्य को केवल आलसी कोसा करते है। पुरुषार्थी अपने भाग्य का निर्माण स्वयम करते है। पुरुषार्थी आलस्यरहित रहना ठीक समझते है। साधारणतया जिसे हम भाग्य या प्रारब्ध कहते है, वह हमारे पूर्वसंचित कर्म ही होते है। श्रेष्ठ पुरूष दौर लगाते है, आगे चलते है, उनके पीछे और चलते है। जो दौर्ता है उसे लक्ष्य मिलने की सम्भावना अधिक होती है। घर के अन्दर पलंग पर परे- परे हम केवल कमरों को ही देख सकते है। जो दौर रहा है, वह स्वयम को भी देख पाता है और दुसरो को भी देख पाता है। महाराज भर्तिहरि ने मनुष्यों को तिन श्रेणियों में बांटा था - अधम, मध्यम और उत्तम। अधम क्लेश के डर से कोई काम प्रारंभ नहीं करते। मध्यम लोग कार्य प्रारंभ तो कर देते है परन्तु कोई विघ्न पर्ने पर दुखी होकर बीच में छोर्र देते है। परन्तु उत्तम लोग बार- बार कष्ट, विघ्न आने पर भी प्रारंभ किए गए काम को नहीं छोरते, वरन उसे पुरा करके ही दम लेते है। ऐसे लोग ही पुरुषार्थी कहलाते है।
इसलिए उपनिषद कहते है ' चरैवेति, चरैवेति' अर्थात चलते रहो, चलते रहो। चलते रहने का ही नाम जीवन है।
कोई तो झुग्गी-झोपरी में जन्म लेता है और पुरा जीवन अभावग्रस्त रहता है। वह जीवन का हर पल रोग, भूख, शोक और अपमान की स्थिति में रह कर जीता है और नारकीय जीवन बिताता हुआ इस संसार से कुच कर जाता है। कोई किसी संपन्न घराने में जन्म लेता है, जहाँ सब सुख-सुविधाए, पदप्रतिष्ठा, मान-सम्मान् का बाहुल्य होता है। उसे कभी अनुभव भी नहीं होता होगा की अभाव क्या होता है, भूख और गरीबी क्या होती है।
अक्सर आपने ऐसा भी देखा होगा की कोई तो जन्म से ही स्वस्थ, सबल और सुंदर होता है और कोई जन्म से ही कुरूप या विकलांग पैदा होता है। किसी को दीर्घायु प्राप्त होती है, तो कोई अकाल ही काल का ग्रास बन जाता है। कहीं पति संसार से पहले कुच कर जाता है तो कहीं पत्नी का पहले प्राणांत हो जाता है। ऐसा क्यों होता है? साधारनतया हम सब यही कहते है की इस सब के लिए भाग्य ही जिम्मेदार है। और देखिये, कोई व्यक्ति मिट्टी में हाथ डालता है तो उसके हाथ कोई खजाना लग जाता है। और कई बार कोई व्यक्ति सम्पन्नता की उचाई से ऐसा गिरता है की सब कुछ मिट्टी हो जाता है। यह विधि की विडंबना ही तो है। प्राब्ध का खेल लगता है। शायद यही कारन है की हम लोग तक़दीर का रोना रोते है और भाग्य को पलटने की कई उलटी-सीधी जुगत लगते है। कई जादू-टोना, धागा-ताबीज, झारू-फूंक या फिर किसी पाखंडी ज्योतिषी का सहारा लेते है। मनुष्य एक विचारशील प्राणी है और विचार ही मनुष्य की सबसे बरी सम्पदा है। समग्र प्राणी जगत में मानव दुर्लभ और अमूल्य माना गया है। जिस भी रूप में यह मानव-जीवन मिला है, अमूल्य है। क्या ऐसा उचित होगा की भाग्य को ही सदा कोसते हुए हम अकर्मण्य बनकर इस अमूल्य जीवन को व्यर्थ नस्ट होने दे? यह संसार तो कर्म करने की भूमि है और हम हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहेंगे तो कोई भी काम सिद्ध नहीं होने वाला है। जब तक सामने परी हुई थाली में से निवाला नहीं तोरेंगे, वह मुंह में नहीं जाएगा। अरण्य का शेर भी जब तक अपने भोजन के लिए स्वयम प्रयास नहीं करता, अपने आप उसके मुंह में कोई पशु नहीं आता। शेर को भी पुरुषार्थ करना परता है, अपनी मांद छोरकर किसी मृग आदि के पीछे भागेगा तभी उसकी उदरपूर्ति होगी। हमारे मनीषी बताते है की भाग्य को केवल आलसी कोसा करते है। पुरुषार्थी अपने भाग्य का निर्माण स्वयम करते है। पुरुषार्थी आलस्यरहित रहना ठीक समझते है। साधारणतया जिसे हम भाग्य या प्रारब्ध कहते है, वह हमारे पूर्वसंचित कर्म ही होते है। श्रेष्ठ पुरूष दौर लगाते है, आगे चलते है, उनके पीछे और चलते है। जो दौर्ता है उसे लक्ष्य मिलने की सम्भावना अधिक होती है। घर के अन्दर पलंग पर परे- परे हम केवल कमरों को ही देख सकते है। जो दौर रहा है, वह स्वयम को भी देख पाता है और दुसरो को भी देख पाता है। महाराज भर्तिहरि ने मनुष्यों को तिन श्रेणियों में बांटा था - अधम, मध्यम और उत्तम। अधम क्लेश के डर से कोई काम प्रारंभ नहीं करते। मध्यम लोग कार्य प्रारंभ तो कर देते है परन्तु कोई विघ्न पर्ने पर दुखी होकर बीच में छोर्र देते है। परन्तु उत्तम लोग बार- बार कष्ट, विघ्न आने पर भी प्रारंभ किए गए काम को नहीं छोरते, वरन उसे पुरा करके ही दम लेते है। ऐसे लोग ही पुरुषार्थी कहलाते है।
इसलिए उपनिषद कहते है ' चरैवेति, चरैवेति' अर्थात चलते रहो, चलते रहो। चलते रहने का ही नाम जीवन है।
टिप्पणियाँ
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Aap sabhi bhaiyo & bahno se anurodh hai ki aap sabhi uchit comment de............
jisse main apne blog ko aap sabo ke samne aur acchi tarah se prastut kar saku......