नदी का प्रवाह आगे बढ़ता है। कोई यह पूछे की उसके आगे बढ़ने का उद्देश्य क्या है? कोई उद्देश्य नहीं बताया जा सकता। जमीन ढालू है, इसलिए पानी को नीचे चले जाना है। यह जीवन का प्रवाह नदी के प्रवाह की भांति अनादिकाल से बहता आ रहा है, पूछा जाए की जीवन का उद्देश्य क्या है, तो कहना होगा की कुछ नहीं। जीवन का कोई उद्देश्य नहीं होता। जीवन नियति का एक बंधन है। उस बंधन को भोगना है। यदि जीवन का कोई उद्देश्य होता तो वनस्पति का भी होता, कीरे-मकोरो का भी होता, पशुओ का भी होता और मनुष्यों का भी होता। किन्तु किसी का कोई उद्देश्य नहीं है। उद्देश्य होता नहीं, उद्देश्य बनाया जाता है। उसका निर्माण किया जाता है।
मनुष्य विवेकशील प्राणी है। उसने बुध्ही का विकास किया है। उसमे चिंतन है, मनन है, प्रज्ञा है, मेधा है और धारणा है। इसलिए वह अपने उद्देश्य का निर्धारण करता है। पूछा यह जाना चाहिए की जीवन का उद्देश्य क्या होना चाहिए! जीवन का कोई उद्देश्य नहीं है। लेकिन जीवन का कोई उद्देश्य होना चाहिए, क्योंकि हमें क्षमता मिली है, विवेक मिला है, इसलिए हम उद्देश्य का निर्माण कर सकते है। यदि आप सोचे की जीवन का उद्देश्य क्या होना चाहिए तो मैं आपको छोटा-सा उतर दूंगा। ज्ञान, दर्शन और चरित्र में सामंजस्य- यह होना चाहिए जीवन का उद्देश्य। जीवन को संचालित करने वाली यह त्रयी बहुत महत्वपूर्ण है। हम जानते है, हम देखते है, आस्था और श्रधा करते है, आकर्षण उत्पन्न करते है और आचरण करते है। जैसे मस्तिस्क, हृदय और हाथ- पैर है, वैसे ही ज्ञान, दर्शन और चरित्र है। ज्ञान हमारा मस्तिस्क है, दर्शन हमारा हृदय है और चरित्र हमारे हाथ-पैर है। शारीरिक स्तर पर तीनो का योग है और तीनो समन्वित रूप से कार्य करते है। किन्तु मानसिक सत्र पर ज्ञान, दर्शन और चरित्र- इस त्रयी में संगती नहीं है। इसलिए आदमी का जीवन विसंगतियों और विरोधाभासों का जीवन है। आदमी उसी में जी रहा है। उन विसंगतियों और विरोधाभासों को मिटाना, उस त्रयी में सामंजस्य स्थापित करना, यह जीवन का सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्य होना चाहिए।
आज की समस्या यह है की आदमी की कथनी और करनी में बहुत दुरी है। आदमी का कहना एक प्रकार का है और आचार-प्रचार दुसरे प्रकार का है। यह क्यों? दुरी होना स्वाभाविक है। जानना ज्ञान का कम है। एक आवरण हटता और जानने की क्षमता पैदा हो जाती है। जो भीतर में था वह प्रकट हो गया। पर ज्ञान हो जाने पर विसंगति नहीं मिटती विरोधाभास समाप्त नहीं होता। ऐसे बहुत सरे लोगो को देखा है, जो बरे विद्वान और पंडित है किन्तु आचार और व्यव्हार की दृष्टीसे शुन्य है। उनका व्यव्हार इतना रुखा और कटु होता है की दूसरा कोई भी व्यक्ति उनके साथ रहना नहीं चाहता, पास में जाना भी पसंद नहीं करता। उनमे निरंतर वृतिया पाई जाती है। कहाँ ज्ञान, विद्वता और पांडित्य तथा कहाँ आचार और व्यव्हार।
इतना अन्तर क्यों? ज्ञान का काम अज्ञान का परिस्कार करना नहीं है। ज्ञान का कम व्यव्हार का परिस्कार करना नहीं है। जैसे ज्ञान के साथ आचार का सम्बन्ध है, वैसे ही आचार-व्यव्हार और द्रिस्तिकोन के साथ मूर्छा का सम्बन्ध भी है। मूर्छा का आवरण जब तक सघन होता है, तब तक ज्ञान कितना ही आ जाए , आदमी भटक जाता है।
जैन दर्शन में ज्ञान की सार्भोमता की अस्वीकृति में कहाँ गया की बहुत ब्रा विद्वान और अध्येता भी भटक सकता है। कारन स्पस्ट है की उनके ज्ञान का आवरण हट चुका है, किन्तु मार्गच्युत करने वाला तथ्य-मोह अभी वहां मौजूद है।
कहा जाता है, ज्ञान जीवन में प्रकाश भरता है। ज्ञान एक दीप है, एक सूर्य है। ज्ञान केवल प्रकाश दे सकता है, क्रिया नहीं दे सकता है। प्रकाश देना एक बात है और उसके अनुसार आचरण करना दूसरी बात है। दीया जला दीया। प्रकाश हो गया। पर आँखों में मोतियाबिंद है तो दीया क्या करेगा। आंख है, पर शराब पि ली, मूर्छा आ गई। सूर्य का प्रकाश है, पर मूर्छा इतनी सघन है की उसे पता ही नहीं चलता की रात है या दिन।
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Aap sabhi bhaiyo & bahno se anurodh hai ki aap sabhi uchit comment de............
jisse main apne blog ko aap sabo ke samne aur acchi tarah se prastut kar saku......