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* प्रेम में ऐसे डूबा की मरई दुबे न रहा *


मैं आप सभी को एक सुनी-सुनाई कहानी सुनाने जा रहा हु| इसमें शब्द त्रुटी यदि कोई हो तो क्षमा कर दीजियेगा
मैं मरई दुबे को नहीं देखा, मगर उनका कथा पूरे इलाका में मशहुर हैं| मेरा एक सहपाठी जो उनके गाँव के ठीक पड़ोस में रहता हैं, उसके साथ एक बार उसके गाँव जाना हुआ| वहां उसके पिताजी से मरई दुबे के बारे में सुना. उनके पिताजी मरई दुबे के बारे में विस्तार से बताये| मैं भी अपनी तरफ से खूब छानबीन किया और अब आप सबके सामने मरई दुबे जी के कहानी सुना रहे हैं |
अगर आप लोग आरा से सड़क के रास्ते बक्सर की और चलते हैं तो कुछ मील की दुरी पर गजराजगंज परता हैं| गजराजगंज में एक खाते पीते कुलीन ब्राह्मण परिवार में मरई का जन्म हुआ था.| बुढ़ापा में मरई डोम के कमर कुछ झुक गया था मगर औनगुलभर चाम झूलने के बाबजूद पिपरी गोराई जैसे के तैसा था, थोरा भी मद्धिम नहीं हुआ था | आंख के हलकी नीली चमक अभी भी मोहक था | कान भी ठीक से काम कर रहा था और हाथ पैर भी | केवल दांत टूट गया था जिसका असर उनके आवाज पर पड़ा था | सबसे निराली बात जो थी वोह थी लाखिया डोमिन की बात | ताउम्र दोनों पति-पत्नी एक ही थाली में खाना खाए खुले घर के आगे में खुलेआम | लाखिया डोमिन ऐसी थी की अँधेरा में खरा होवे तो भक्जोइर(उजाला) हो जाये| ये टूसा जैसी नाक और सपनिया आँख |
कहा जाता हैं कि एक बार मरई दुबे जमीरा नदी पार कर रहा था तो देखा कि एक पूर्णिमा की चाँद नदी के दूसरी और खड़ी थी | वोह शायद अभी-अभी नदी में से डुबकी लगा कर निकली थी | नजर पड़ा तो ऐसे अटका की नजर हटाये नहीं हट रहा था | उनको तो जैसे काठ मार गया था.| मरई दुबे नदी पार कर न आव देखा न ताव सीधे बढ़कर आगे से पूरा बाहों में उनको जकड लिया | वोह कुछ देर छटपटायी जरुर मगर अंत में कसम देकर जैसे-तैसे अलग की | मरई दुबे ने आकाश के नीचे और धरती के ऊपर, जमीरा नदी को साक्षी मानकर उनके मांग पर रेत लगा कर कसम खायी  कि " अब चाहे धरती उलटे या पलटे जीते-जी तुम्हारा साथ नहीं छोडूंगा |

ये क्या बात हुआ कि बवंडर उठ गया | सुनते हैं कि मरई दुबे की माँ जनम देकर चल बसी | बुढा बाप थे बहुत नेक धर्मवाला | पूरा गजराजगंज में उनका इज्जत थी, पूछ थी | जब वोह ये बात सुने तो तिलमिलाए, फड़के और खाट पर पड़े तो फिर नहीं उठे | उधर मरई दुबे सलेमपुर डोम टोली के बिटोर में खड़े थे.| लाखिया के बाप नाटा डोम गडासा निकाले हुए था | पूरा डोम टोली सरिया और हसिया से लैस था | मरई सबके बीच में घिरा फिर भी निडर खड़ा था| उनके चेहरे पर सूत भर भी शिकन नहीं थी | चढ़ती जवानी की उम्र थी, एकदम पट्ठा| निहारनेवाली डोमिन सब जो उन्हें देखा तो पलक नहीं झपका रही थी | रंग ऐसा जैसे शरीर से भक-भक (उजाला) फुट रहा था | हलके नीले आंख में ऐसी मोहकता थी की हर देखनेवाली डोमिन की नजर ललचा गयी | आखिर में नाटा डोम बोला----

" तुम हो पंडित के छोरा, वोह भी नामी गजराजगंज के| हांका भी लगे तो सलेमपुर के डोम टोली पलक झपकते जल कर राख हो जाये| लाखिया हैं डोम की छोकरी| आखिर क्या सोचकर यहाँ चले आये हो| पूरा डोम टोली की साँस जहाँ के तहां रुका हुआ था| सबकी निगाह मरई की तरफ थी|
                    "दादू! हम नहीं जानते पंडित और डोम | हमें गजराजगंज छोड़ना पड़े या घर, ऊपर वाला साक्षी हैं , इस शरीर से प्राण भले ही निकल जाये लेकिन जीतेजी हम लाखो को नहीं छोड़ सकते | पूरा डोम टोली अवाक् रह गया | चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी| नाटा डोम को पलभर कुछ नहीं सुझा| "देखो बाबु! जवानी के जोश और पानी के सुल्सुला, आखिर हम कैसे यकीन करे"| "दादू इसमें यकीन की क्या बात हैं,आप जो शर्त रखो, कसम धरती मैया के रति भर भी यदि पीछे हटू तो फिर कभी लाखो के मुंह नहीं देखूंगा| अचरज से पूरा डोम टोली अवाक् रह गया | बात जो कहो, लौ जबरदस्त लगी हुई थी | भला इतना निडर होकर कोई बोल सकता हैं भला | नाटा डोम बड़े सोच में पड़ गया, बड़े देर तक आंख बंद कर सोचते रहे फिर वोह बोले "तो सुनो बाबु! पूरा सात महिना रात और दिन तुम लाखिया से दूर रहोगे | नाटा डोम तुम्हे जुवान देता हैं कि लाखिया को पूरा जान से सहेज कर रखूँगा | तुम भी घर-परिवार के माया-मोह टटोल लो| मन कहे तो सात महिना बाद ठीक चैत पूर्णमासी के रात आना| इसी टोल में तुम्हारी शादी रचा दूंगा | नाटा डोम के बात से पूरा डोम टोली में काना-फूसी होने तो लगा जरुर,मगर कोई बोला नहीं| मरई सुना तो ठगा का ठगा रह गया | उनका जुबान ही नहीं खुल रहा था, देर तक खड़े-खड़े सोचता रहा और आखिर में मुंह खोला....
                    "दादू! एक बात मेरी भी मान लो| लाखो को देखे बिना मुझे चैन नहीं मिलेगा | बंदिश चाहे जो लगा दो मगर रात बिराइत नदी कछार पर मरई तो जरुर आएगा | जब तक लाखो नहीं आएगी वही बैठ के इंतजार करूँगा | कसम धरती मैया के कि उसके मुंह जुठियाए बिना कंठ में अन्न के एक दाना भी जाये तो ये शरीर गल जाये | मरई ये बात कह सलेमपुर सरेह पार करता हुआ घर को लौट गया |
इधर गजराजगंज में आंधी-तूफान चल रहा था | पूरा गाँव तिलका बाबा के दरवाजा पर | तरह-तरह के मुंह, तरह-तरह की बात | कोई कह रहा था की सलेमपुर चलकर डोम टोली को फूंक दो तो कोई लाखिया को रातो-रात उठा लेने की राय दे रहा था, तो कोई कह रहा था कि बात जाती-धर्म का हैं, मामला मरई को काबू करने से पलट जाये वही ठीक हैं | अंग्रेजी राज में खून-खराबा के नतीजा बहुत पुराना नहीं हुआ हैं | ग़दर में बाबु कुवर सिंह के पलटन के रसद भरने के कारन पूरा गाँव उजड़ गया था | एक-एक आदमी को गिन के दस-दस कोड़ा पड़ा था | बात इतना पेचीदा था कि तिलका बाबा के माथा काम नहीं कर रहा था | उधर मरई दुबे के बाबूजी ऐसे गुम हुए कि न पलक झपके और न जुबान खुले | एकटक ऊपर आसमान को देख रहे थे | कुलबोरन जनम लेते ही माँ को खा गया | कहावत हैं ना "पीठ पर का घाव और बुढ़ापे का बेटा नजदीक होकर भी नहीं दिखाई पड़ता लेकिन टीस बहुत ज्यादा देता हैं "
मरई तिलका बाबा के सामने खड़ा हुआ तो अचरज से सभी लोगो की आंख फट पड़ी " इ निर्लज्ज को देखो! न ही बूढ़े बाप का ख्याल रखा और न ही जाती-धर्मं का लिहाज किया | बेहया सा तनकर खड़ा हैं| अरे थोरी सी भी शर्म हो तो जमीरा नदी में डूब कर मर जाता | ऐसा पुत भला  घर में पैर रखता | क्या रे मरई क्या सोचा हैं तु ? बस आखरी मौका हैं, कह दो गलती हो गयी हैं सबकुछ माफ़! वर्ना.........| तिलका बाबा मरई के मुंह देखा तो बात वही-का वही रोक दिया |
"कैसी गलती और कैसी माफ़ी! ठेंगा पर जाये इ धर्म और बिरादरी | हम आकाश के नीचे और धरती के ऊपर जमीरा नदी के साक्षी मानकर लाखो का हाथ थामा हैं और जीते जी मुझसे उसको कोई अलग नहीं कर सकता हैं | बस! मरई के ढीठपना से सब के सब ठिठक गया जैसे सबको काठ मर गया हो| मरई चुपचाप दालान से उतरकर गली से गुजरता हुआ घर के तरफ चला गया|
अब गाँव थूके या चाटे, मरई को कोई परवाह नहीं थी | हर शाम चूल्हा में अपना खाना बनाकर रोटी को पोटली में बांध कर सहेज कर रखता था और रात अँधेरा हो या झमाझम पानी ही क्यों न पड़ रहा हो, मरई कंधे पर खाना के पोटली और हाथ में सोटा ले निकल जाता था | चकवा-चकवी बने पूरा साथ महिना गुजर गया और अंततः मरई दुबे सलेमपुर डोम टोली में लाखिया सा ब्याह रचा मरई डोम बन गया | पूरा इलाका में डंका बज गया की गजराजगंज के मरई दुबे, सलेमपुर डोम टोली में ब्याह रचा मरई डोम बन गया हैं | बाप मरा तो वोह गया जरुर मगर गांववाला उन्हें लाश तक नहीं देखने दिया | ख़बरदार! साले जहाँ गाँव में पांव रखा तो जिन्दा वापिस नहीं जा पायेगा | तिलका बाबा जबतक जिन्दा रहे, सलेमपुर के ब्राह्मण के बीच रातजगा होता | खुसुर-पुसुर कर कलंक की याद दिल धिकारता, ये तो सीधा छाती पर मुसल कूट रहा हैं और हम सब कान में तेल डाल, हाथ में मेहदी रचा, आंख बंद कर बैठे हुए है | कुल पांच बार धावा किया गया| दो बार झोपडी फूंक दिया गया | एक बार तो मरई लाखिया के साथ घिर गया था ठीक जमीरा नदी के किनारे पर, वोह तो ऊपर वाला का शुक्र था की हाथ में सोटा था | किसी को टिकने नहीं दिया.
पूरा डोम टोली उजड़ गया, पांच कोस में एक भी डोम टोली नहीं बचा | मगर मरई जमीरा नदी के तट नहीं छोड़ा | बांस काटकर लाता, लाखिया सूप बनाती, चंगोली और तरह-तरह के डलिया सब | दोनों मिलकर उस सब को रंगता,सुखाता और दिन भर घूम कर बेचता | तिलका बाबा के मरने के बाद लोग सब में वैसा रोष न रहा और आखिर में मरई डोम जब अपने पुस्तेनी घर में बसेरा डाला तो किसी को रोकने की हिम्मत नहीं हुआ | आखिर हिम्मत कैसे परता,सलेमपुर के भुखल यादव बीघा भर सड़क के जमीन लिखा का पनाह जो दिया था|
पूरा उम्र वोह उसी घर में रहे और उनका दुकान सुपती, मौनिया, चंगोली और डलिया के | कहा जाता है कि मरते समय बाप श्राप दिया था कि रख लो कलंकी डोमिन को, लेकिन बुढा ब्राह्मण का श्राप है कि इस कलंक का वंश नहीं बढेगा | डोर यही से कटेगा , फिर कोई नाम लेने वाला नहीं होगा |........ अब ये तो ठीक हैं कि मरई का डोर कटा, मगर नाम तो गजराजगंज कौन कहे, पूरा भोजपुर में आज भी मरई और लाखिया डोमिन की कथा मशहूर है |

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