सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

आपकी प्यास, आपका रास्ता

एक बार गौतम बुद्ध एक गांव में ठहरे थे। एक व्यक्ति ने उनको आकर कहा कि आप रोज कहते हैं कि हर व्यक्ति मोक्ष पा सकता है। लेकिन हर व्यक्ति मोक्ष पा क्यों नहीं लेता है? बुद्ध ने कहा, मेरे मित्र, एक काम करो। संध्या को गांव में जाना और सारे लोगों से पूछकर आना, वे क्या पाना चाहते हैं। एक फेहरिस्त बनाओ। हर एक का नाम लिखो और उसके सामने लिख लाना, उनकी आकांक्षा क्या है।

वह आदमी गांव में गया। उसने एक-एक आदमी को पूछा। थोडे-से लोग थे उस गांव में, सबने उत्तर दिए। वह सांझ को वापस लौटा। उसने बुद्ध को आकर वह फेहरिस्त दी। बुद्ध ने कहा, इसमें कितने लोग मोक्ष के आकांक्षी हैं? वह बहुत हैरान हुआ। उसमें एक भी आदमी ने अपनी आकांक्षाओं में मोक्ष नहीं लिखाया था। बुद्ध ने कहा, हर आदमी पा सकता है, यह मैं कहता हूं। लेकिन हर आदमी पाना चाहता है, यह मैं नहीं कहता।

हर आदमी पा सकता है, यह बहुत अलग बात है और हर आदमी पाना चाहता है, यह बहुत अलग बात है। अगर आप पाना चाहते हैं, तो यह आश्वासन मानें। अगर आप सच में पाना चाहते हैं तो इस जमीन पर कोई ताकत आपको रोकने में समर्थ नहीं है। अगर आप नहीं पाना चाहते तो इस जमीन पर कोई ताकत आपको देने में समर्थ नहीं है।

सबसे पहली बात, सबसे पहला सूत्र, जो स्मरण रखना है, वह यह कि आपके भीतर एक वास्तविक प्यास है? अगर है, तो आश्वासन मानें कि रास्ता मिल जाएगा और अगर नहीं है, तो कोई रास्ता नहीं है। आपकी प्यास ही आपके लिए रास्ता बनेगी।

दूसरी बात, जो मैं प्रारंभिक रूप से यहां कहना चाहूं, वह यह है कि बहुत बार हम प्यासे भी होते हैं किन्हीं बातों के लिए, लेकिन हम आशा से भरे हुए नहीं होते हैं। हम प्यासे होते हैं, लेकिन आशा नहीं होती। हम प्यासे होते हैं, लेकिन निराश होते हैं। जिसका पहला कदम निराशा में उठेगा, उसका अंतिम कदम निराशा में समाप्त होगा। अंतिम कदम अगर सफलता और सार्थकता में जाना है, तो पहला कदम बहुत आशा में उठना चाहिए।

तो इन तीन दिनों के लिए आपको कहूंगा- यूं तो पूरे जीवन के लिए कहूंगा-एक बहुत आशा से भरा हुआ दृष्टिकोण। क्या आपको पता है, बहुत कुछ इस पर निर्भर करता है आपके चित्त का कि आप आशा से भरकर किसी काम को कर रहे हैं या निराशा से? अगर आप पहले से निराश हैं, तो आप अपने ही हाथ से उस डाल को काट रहे हैं, जिस पर आप बैठे हुए हैं।

तो मैं आपको यह कहूं, साधना के संबंध में बहुत आशा से भरा हुआ होना बडा महत्वपूर्ण है। आशा से भरे हुए होने का मतलब यह है कि अगर इस जमीन पर किसी भी मनुष्य ने सत्य को कभी पाया है, अगर इस जमीन पर मनुष्य के इतिहास में कभी भी कोई मनुष्य आनंद को और चरम शांति को उपलब्ध हुआ है, तो कोई भी कारण नहीं है कि मैं उपलब्ध नहीं हो सकूंगा।

उन लाखों लोगों की तरफ मत देखें, जिनका जीवन अंधकार से भरा हुआ है और जिन्हें कोई आशा और कोई किरण और कोई प्रकाश दिखाई नहीं पडता। उन थोडे-से लोगों को इतिहास में देखें, जिन्हें सत्य उपलब्ध हुआ है। उन बीजों को मत देखें, जो वृक्ष नहीं बन पाए और नष्ट हो गए। उन थोडे-से बीजों को देखें, जिन्होंने विकास को उपलब्ध किया और जो परमात्मा तक पहुंचे। स्मरण रखें कि उन बीजों को जो संभव हो सका, वह प्रत्येक बीज को संभव है। एक मनुष्य को जो संभव हुआ है, वह प्रत्येक दूसरे मनुष्य को संभव है।

मैं आपको कहना चाहता हूं कि बीज रूप से आपकी शक्ति उतनी ही है जितनी बुद्ध की, महावीर, कृष्ण या क्राइस्ट की है। परमात्मा के जगत में इस अर्थ में कोई अन्याय नहीं है कि वहां कम और यादा संभावनाएं दी गई हों। संभावनाएं सबकी बराबर हैं, पर वास्तविकताएं सबकी बराबर नहीं हैं। क्योंकि हममें से बहुत लोग अपनी संभावनाओं को वास्तविकता में परिणत करने का प्रयास ही कभी नहीं करते। तो एक आधारभूत खयाल, आशा से भरा हुआ होना है। यह विश्वास रखें कि अगर कभी भी किसी को शांति उपलब्ध हुई है, आनंद उपलब्ध हुआ है, तो मुझे भी उपलब्ध हो सकेगा। अपना अपमान न करें निराश होकर। निराशा स्वयं का सबसे बडा अपमान है। उसका अर्थ है कि मैं इस योग्य नहीं हूं कि मैं भी पा सकूंगा। मैं कहूं, इस योग्य आप हैं, निश्चित पा सकेंगे।

देखें! निराशा में भी जीवन भर चलकर देखा है। आशा में तीन दिन चलकर देखें। इतनी आशा से भरकर चलें कि होगी घटना, जरूर घटेगी। क्यों! बाहर की दुनिया में हो सकता है कोई काम आप आशा से भरे हों, तो भी न कर पाएं। लेकिन भीतर की दुनिया में आशा बहुत बडा रास्ता है। जब आप आशा से भरते हैं, तो आपका कण-कण आशा से भर जाता है, आपका रोआं-रोआं आशा से भर जाता है। आपके विचारों पर आशा का प्रकाश भर जाता है और आपके प्राण के स्पंदन में, आपके हृदय की धडकन में आशा व्याप्त हो जाती है।

आपका पूरा व्यक्तित्व जब आशा से भर जाता है, तो भूमिका बनती है कि आप कुछ कर सकेंगे। निराशा का भी व्यक्तित्व होता है- कण-कण हो रहा है, उदास है, थका है, डूबा हुआ है, कोई प्राण नहीं हैं। सब-जैसे कि आदमी जिंदा नाममात्र को हो और मरा हुआ है। ऐसा आदमी किसी प्रयास पर निकलेगा, किसी अभियान पर, तो क्या पा सकेगा? और आत्मिक जीवन का अभियान सबसे बडा अभियान है। इससे बडी कोई चोटी नहीं है, जिसको कोई मनुष्य कभी चढा हो। इससे बडी कोई गहराई नहीं है समुद्रों की, जिसमें मनुष्य ने कभी डुबकी लगाई हो। स्वयं की गहराई सबसे बडी गहराई है और स्वयं की ऊंचाई सबसे बडी ऊंचाई है। इस अभियान पर जो निकला हो, उसे बडी आशाओं से भरा हुआ होना चाहिए।

मैं आपको कहूंगा, तीन दिन आशा की एक भाव-स्थिति को कायम रखें। आज रात ही जब सोएं, तो आशा से भरे हुए सोएं। यह विश्वास लेकर सोएं कि कल सुबह जब उठेंगे, तो कुछ होगा।

दूसरी बात मैंने कही, आशा का एक दृष्टिकोण। आशा के इस दृष्टिकोण के साथ ही यह स्मरण दिला दूं, हमारी निराशा इतनी गहरी है कि जब हमें कुछ मिलना भी शुरू होता है, तो निराशा के कारण दिखाई नहीं पडता। मेरे पास एक व्यक्ति आते थे। वे अपनी पत्नी को मेरे पास लाए। उन्होंने मुझे कहा कि मेरी पत्नी को बिलकुल नींद नहीं आती बिना दवा के। दवा से भी तीन-चार घंटे से ज्यादा नहीं आती। अनजाने भय उसे परेशान किए रहते हैं। मैंने उनको कहा कि ध्यान का यह छोटा-सा प्रयोग शुरू करिए, लाभ होगा। उन्होंने प्रयोग शुरू किया। सात दिन बाद वे मुझे मिले। मैंने उनसे पूछा, क्या हुआ? कैसा है? वे बोले, अभी कुछ खास नहीं हुआ। बस नींद भर आने लगी है। सात दिन बाद वे मुझे फिर मिले, मैंने उनसे पूछा, क्या हुआ? बोले, अभी कुछ खास नहीं हुआ, थोडा-सा भय दूर हो गया है। वे सात दिन बाद मुझे फिर मिले। मैंने उनसे पूछा, कुछ हुआ? वे बोले, अभी कुछ विशेष तो नहीं हुआ, यही है कि थोडी नींद आ जाती है, भय कम हो गया है, और कुछ खास नहीं हुआ।

इसे मैं निराशा की दृष्टि कहता हूं। ऐसे आदमी को कुछ भी हो जाए, तो उसे पता नहीं चलेगा। यह दृष्टि तो बुनियाद से गलत है। इसका तो मतलब है, इस आदमी को कुछ हो नहीं सकता, अगर हो भी जाए, तो भी उसे कभी पता नहीं चलेगा कि कुछ हुआ। और बहुत कुछ हो सकता था, जो कि रुक जाएगा।

आशा के इस दृष्टिकोण के साथ-साथ मैं आपसे कहूं, इन तीन दिनों में जो घटित हो, उसे स्मरण रखें और जो घटित न हो, उसे बिलकुल स्मरण न रखें।

स्मरणीय वह है जो घटित हुआ हो। थोडा-सा कण भी अगर लगे शांति का, उसे पकडें। वह आपको आशा देगा और गतिमान करेगा। अगर आप उसको पकडते हैं जो नहीं हुआ, तो आपकी गति अवरुद्ध हो जाएगी और जो हुआ है, वह भी मिट जाएगा।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

अपने ईगो को रखें पीछे तो जिदंगी होगी आसान

आधुनिक युग में मैं(अहम) का चलन कुछ ज्यादा ही चरम पर है विशेषकर युवा पीढ़ी इस मैं पर ज्यादा ही विश्वास करने लगी है आज का युवा सोचता है कि जो कुछ है केवल वही है उससे अच्छा कोई नहीं आज आदमी का ईगो इतना सर चढ़कर बोलने लगा है कि कोई भी किसी को अपने से बेहतर देखना पसंद नहीं करता चाहे वह दोस्त हो, रिश्तेदार हो या कोई बिजनेस पार्टनर या फिर कोई भी अपना ही क्यों न हों। आज तेजी से टूटते हुऐ पारिवारिक रिश्तों का एक कारण अहम भवना भी है। एक बढ़ई बड़ी ही सुन्दर वस्तुएं बनाया करता था वे वस्तुएं इतनी सुन्दर लगती थी कि मानो स्वयं भगवान ने उन्हैं बनाया हो। एक दिन एक राजा ने बढ़ई को अपने पास बुलाकर पूछा कि तुम्हारी कला में तो जैसे कोई माया छुपी हुई है तुम इतनी सुन्दर चीजें कैसे बना लेते हो। तब बढ़ई बोला महाराज माया वाया कुछ नहीं बस एक छोटी सी बात है मैं जो भी बनाता हूं उसे बनाते समय अपने मैं यानि अहम को मिटा देता हूं अपने मन को शान्त रखता हूं उस चीज से होने वाले फयदे नुकसान और कमाई सब भूल जाता हूं इस काम से मिलने वाली प्रसिद्धि के बारे में भी नहीं सोचता मैं अपने आप को पूरी तरह से अपनी कला को समर्पित कर द...

सीख उसे दीजिए जो लायक हो...

संतो ने कहा है कि बिन मागें कभी किसी को सलाह नही देनी चाहिए। क्यों कि कभी कभी दी हुई सलाह ही हमारे जी का जंजाल बन जाती है। एक जंगल में खार के किनारे बबूल का पेड़ था इसी बबूल की एक पतली डाल खार में लटकी हुई थी जिस पर बया का घोंसला था। एक दिन आसमान में काले बादल छाये हुए थे और हवा भी अपने पूरे सुरूर पर थी। अचानक जोरों से बारिश होने लगी इसी बीच एक बंदर पास ही खड़े सहिजन के पेड़ पर आकर बैठ गया उसने पेड़ के पत्तों में छिपकर बचने की बहुत कोशिश की लेकिन बच नहीं सका वह ठंड से कांपने लगा तभी बया ने बंदर से कहा कि हम तो छोटे जीव हैं फिर भी घोंसला बनाकर रहते है तुम तो मनुष्य के पूर्वज हो फिर भी इधर उधर भटकते फिरते हो तुम्हें भी अपना कोई ठिकाना बनाना चाहिए। बंदर को बया की इस बात पर जोर से गुस्सा आया और उसने आव देखा न ताव उछाल मारकर बबूल के पेड़ पर आ गया और उस डाली को जोर जोर से हिलाने लगा जिस पर बया का घोंसला बना था। बंदर ने डाली को हिला हिला कर तोड़ डाला और खार में फेंक दिया। बया अफसोस करके रह गया। इस सारे नजारे को दूर टीले पर बैठा एक संत देख रहे थे उन्हें बया पर तरस आने लगा और अनायास ही उनके मुं...

इन्सान की जात से ही खुदाई का खेल है.

वाल्टेयर ने कहा है की यदि इश्वर का अस्तित्व नहीं है तो ये जरुरी है की उसे खोज लिया जाए। प्रश्न उठता है की उसे कहाँ खोजे? कैसे खोजे? कैसा है उसका स्वरुप? वह बोधगम्य है भी या नहीं? अनादिकाल से अनेकानेक प्रश्न मनुष्य के जेहन में कुलबुलाते रहे है और खोज के रूप में अपने-अपने ढंग से लोगो ने इश्वर को परिभाषित भी किया है। उसकी प्रतिमा भी बने है। इश्वर के अस्तित्व के विषय में परस्पर विरोधी विचारो की भी कमी नहीं है। विश्वास द्वारा जहाँ इश्वर को स्थापित किया गया है, वही तर्क द्वारा इश्वर के अस्तित्व को शिद्ध भी किया गया है और नाकारा भी गया है। इश्वर के विषय में सबकी ब्याख्याए अलग-अलग है। इसी से स्पस्ट हो जाता है की इश्वर के विषय में जो जो कुछ भी कहा गया है, वह एक व्यक्तिगत अनुभूति मात्र है, अथवा प्रभावी तर्क के कारन हुई मन की कंडिशनिंग। मानव मन की कंडिशनिंग के कारन ही इश्वर का स्वरुप निर्धारित हुआ है जो व्यक्ति सापेक्ष होने के साथ-साथ समाज और देश-काल सापेक्ष भी है। एक तर्क यह भी है की इश्वर एक अत्यन्त सूक्ष्म सत्ता है, अतः स्थूल इन्द्रियों से उसे अनुभव नहीं किया जा सकता है। एक तरफ हम इश्वर के अस...