कृष्ण की इच्छा थी कि उनके देह-विसर्जन के पश्चात् द्वारकावासी अर्जुन की सुरक्षा में हस्तिनापुर चले जाएँ। सो अर्जुन अन्त:पुर की स्त्रियों और प्रजा को लेकर जा रहे थे। रास्ते में डाकुओं ने लूटमार शुरू कर दी। अर्जुन ने तत्काल गाण्डीव के लिए हाथ बढ़ाया। पर यह क्या ! गाण्डीव तो इतना भारी हो गया था कि प्रत्यंचा खींचना तो दूर धनुष को उठाना ही संभव नहीं हो पा रहा था। महाभारत के विजेता, सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी विवश होकर अपनी आँखों के सामने अपना काफ़िला लुटता देख रहे थे। विश्वास नहीं हो रहा था कि वह वही है जिसने अजेय योद्धाओं को मार गिराया था। बिजली की कौंध से शब्द उनके मन में गूँज गए ‘‘तुम तो निमित्त मात्र हो पार्थ।’’
‘श्रीमद्भावगत’ का यह प्रसंग जितना मार्मिक है उतना ही एक अखंड सत्य का उद्घोषक भी। जीवन में जब-जब कृष्ण तत्व अनुपस्थित होता है, तब-तब मनुष्य इसी तरह ऊर्जा रहित हो जाता है। कृष्ण के न रहने का मतलब है, जीवन में शाश्वत मूल्यों का ह्रास। उनका जीवन प्रतीक है अन्याय के प्रतिकार का, प्रेम के निर्वाह का, कर्म के उत्सव का, भावनाओं की उन्मुक्त अभिव्यक्ति का, शरणागत की रक्षा का। उनकी जीवन शैली हमें गौरव से जीना और गरिमा से मरना सिखाती है। जड़-सिद्धांत के या किन्हीं सम्प्रदायों के लिए हठ का उनके विचारों में कोई स्थान न था।
वे प्रतिबद्ध थे कर्म के प्रति। कहीं कोई निजी हित या प्रयोजन प्रेरित कर्म न था, इसलिए कर्मफल से लगाव भी नहीं था। कंस के रूप में, अत्याचार का अन्त करके मथुरा का आधिपत्य अधिकारी को सौंप कर निर्द्वन्द्व भाव से द्वारका बसाने चल दिए। गोकुल में उनकी लीलाएँ अनाचारी व्यवस्था का विरोध थी; ग्रामवासियों को अपने अधिकारों के प्रति सचेत करके, स्वावलम्बी बनाना ही उनका प्रयोजन था। मथुरागमन के बाद का जीवन भी असत्य और निरंकुशता का दमन करते हुए निष्कलंक निकल आने का आदर्श प्रस्तुत करता है। जरासन्ध-शिशुपाल जैसी समाज विरोधी शक्तियों का विनाश किया पर उससे पहले सुधार का भरपूर अवसर दिया। विनाशकारी महाभारत के युद्ध से पूर्व शान्ति दूत बनकर हर सम्भव प्रयास किया युद्ध टालने का।
जीवन में अनेक बार हित करते हुए भी चरित्र पर कलंक लग जाता है। कृष्ण ने सत्राजित से अनुरोध किया था कि स्वर्ण की अक्षय स्रोत्र स्यमंतक मणि राष्ट्रकोष को दे दें। श्रम से प्राप्त सम्पदा व्यक्तिगत होती है परन्तु कृपा से प्राप्त वस्तु सामूहिक कल्याण में जानी चाहिए। सत्राजित ने वह मणि अपने भाई प्रसेन की सुरक्षा में रखवा दी। वह जंगल में शिकार के लिए गया तो मणि गले में पहने था। एक सिंह ने उस पर आक्रमण कर दिया। वह मारा गया। मणि छिटक कर कहीं दूर जा गिरी। उसी वन में रह रहे जाम्बवान को पड़ी मिली तो उसने बच्चे को खेलने के लिए दे दी। उधर राजदरबार में सबको मणि के लिए हत्या करने का संदेह कृष्ण पर हो गया। कृष्ण ने जब तक जाम्बवान से मणि पुन: प्राप्त नहीं की, चैन नहीं लिया। किसी भी परस्थिति में हार कर बैठ जाना उचित नहीं- यह संदेश दिया।
शत्रु के अधिक शक्तिशाली होने पर व्यर्थ का जनसंहार बचाने के लिए रणभूमि छोड़कर चले आने में भी कोई संकोच नहीं किया।
अपने कर्मों का दायित्व लेना सीखना हो तो फिर इस जगद्गुरु कृष्ण की ही शरण में जाना होगा। गांधारी के शाप से सम्पूर्ण यदुकुल का नाश हुआ। प्रभास क्षेत्र में अश्वत्थ की छाया में विश्राम करते हुए ‘जरा’ नाम व्याध के बाण का शिकार बने। पाँव से रक्तधारा बहती रही। व्याध को भी उपचार नहीं करने दिया। शाप फलीभूत होना तो था ही। ‘जरा’ का अर्थ है वृद्धावस्था और विनाश। किस पर नहीं आता। मुस्कुराते हुए यादव वंश की अन्तिम किरण को समेट लिया।
यह कृष्ण के पार्थिव शरीर का विलय था। उनकी अजस्र का प्रवाह आस्था के रूप में हमारे भीतर बहता रहता है। अपने जिए जीवन का सिद्धान्त कृष्ण ने गीता में गाया। निरन्तर कर्म की प्रेरणा से युक्त रहना ही कृष्ण तत्व को साकार करना है। अच्छे बुरे फल को कृष्णार्पित कर ही जीने का मूल है। कृष्ण स्पंज है सब सोख लेंगे। बस कृष्ण तत्त्व को जीवन में बनाए रखना होगा।
‘श्रीमद्भावगत’ का यह प्रसंग जितना मार्मिक है उतना ही एक अखंड सत्य का उद्घोषक भी। जीवन में जब-जब कृष्ण तत्व अनुपस्थित होता है, तब-तब मनुष्य इसी तरह ऊर्जा रहित हो जाता है। कृष्ण के न रहने का मतलब है, जीवन में शाश्वत मूल्यों का ह्रास। उनका जीवन प्रतीक है अन्याय के प्रतिकार का, प्रेम के निर्वाह का, कर्म के उत्सव का, भावनाओं की उन्मुक्त अभिव्यक्ति का, शरणागत की रक्षा का। उनकी जीवन शैली हमें गौरव से जीना और गरिमा से मरना सिखाती है। जड़-सिद्धांत के या किन्हीं सम्प्रदायों के लिए हठ का उनके विचारों में कोई स्थान न था।
वे प्रतिबद्ध थे कर्म के प्रति। कहीं कोई निजी हित या प्रयोजन प्रेरित कर्म न था, इसलिए कर्मफल से लगाव भी नहीं था। कंस के रूप में, अत्याचार का अन्त करके मथुरा का आधिपत्य अधिकारी को सौंप कर निर्द्वन्द्व भाव से द्वारका बसाने चल दिए। गोकुल में उनकी लीलाएँ अनाचारी व्यवस्था का विरोध थी; ग्रामवासियों को अपने अधिकारों के प्रति सचेत करके, स्वावलम्बी बनाना ही उनका प्रयोजन था। मथुरागमन के बाद का जीवन भी असत्य और निरंकुशता का दमन करते हुए निष्कलंक निकल आने का आदर्श प्रस्तुत करता है। जरासन्ध-शिशुपाल जैसी समाज विरोधी शक्तियों का विनाश किया पर उससे पहले सुधार का भरपूर अवसर दिया। विनाशकारी महाभारत के युद्ध से पूर्व शान्ति दूत बनकर हर सम्भव प्रयास किया युद्ध टालने का।
जीवन में अनेक बार हित करते हुए भी चरित्र पर कलंक लग जाता है। कृष्ण ने सत्राजित से अनुरोध किया था कि स्वर्ण की अक्षय स्रोत्र स्यमंतक मणि राष्ट्रकोष को दे दें। श्रम से प्राप्त सम्पदा व्यक्तिगत होती है परन्तु कृपा से प्राप्त वस्तु सामूहिक कल्याण में जानी चाहिए। सत्राजित ने वह मणि अपने भाई प्रसेन की सुरक्षा में रखवा दी। वह जंगल में शिकार के लिए गया तो मणि गले में पहने था। एक सिंह ने उस पर आक्रमण कर दिया। वह मारा गया। मणि छिटक कर कहीं दूर जा गिरी। उसी वन में रह रहे जाम्बवान को पड़ी मिली तो उसने बच्चे को खेलने के लिए दे दी। उधर राजदरबार में सबको मणि के लिए हत्या करने का संदेह कृष्ण पर हो गया। कृष्ण ने जब तक जाम्बवान से मणि पुन: प्राप्त नहीं की, चैन नहीं लिया। किसी भी परस्थिति में हार कर बैठ जाना उचित नहीं- यह संदेश दिया।
शत्रु के अधिक शक्तिशाली होने पर व्यर्थ का जनसंहार बचाने के लिए रणभूमि छोड़कर चले आने में भी कोई संकोच नहीं किया।
अपने कर्मों का दायित्व लेना सीखना हो तो फिर इस जगद्गुरु कृष्ण की ही शरण में जाना होगा। गांधारी के शाप से सम्पूर्ण यदुकुल का नाश हुआ। प्रभास क्षेत्र में अश्वत्थ की छाया में विश्राम करते हुए ‘जरा’ नाम व्याध के बाण का शिकार बने। पाँव से रक्तधारा बहती रही। व्याध को भी उपचार नहीं करने दिया। शाप फलीभूत होना तो था ही। ‘जरा’ का अर्थ है वृद्धावस्था और विनाश। किस पर नहीं आता। मुस्कुराते हुए यादव वंश की अन्तिम किरण को समेट लिया।
यह कृष्ण के पार्थिव शरीर का विलय था। उनकी अजस्र का प्रवाह आस्था के रूप में हमारे भीतर बहता रहता है। अपने जिए जीवन का सिद्धान्त कृष्ण ने गीता में गाया। निरन्तर कर्म की प्रेरणा से युक्त रहना ही कृष्ण तत्व को साकार करना है। अच्छे बुरे फल को कृष्णार्पित कर ही जीने का मूल है। कृष्ण स्पंज है सब सोख लेंगे। बस कृष्ण तत्त्व को जीवन में बनाए रखना होगा।
जीवन में जब-जब कृष्ण तत्व अनुपस्थित होता है, तब-तब मनुष्य इसी तरह ऊर्जा रहित हो जाता है।अति मर्मस्पर्शी उदवोधन । धन्यवाद- श्रीशंकर मिश्रा जी ।
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