उस दिन भी रोज की तरह बगीचे में टहल रहा था। मन में अजब बेचैनी थी।
तरह-तरह के ख्याल आ रहे थे। तभी मेरी नजर एक पकेआम पर पड़ी। आम को देखते
ही जाने क्यों आम आदमी का ख्याल आ गया। भाषण, लेख, हिदायतों और नसीहतों के
बीच बचपन से ही आम आदमी के बारे में सुनता आ रहा हूं।
लगा
कि भले बदलाव की तेज आंधी ही क्यूं न चले, पर आम आदमी के हाथ न कभी कुछ
लगा है, न लग पाएगा। जब आम आदमी का जिक्र आता है तो मन में एक अजीब
सहानुभूति आ जाती है। मैं सोच में डूबा सड़क पर आ गया। सोचा चलो आज सबसे
पूछते हैं कि ये आम आदमी है कौन?
सामने मोटरसाइकिल
दनदनाते दरोगाजी दिख गए। दुआ-सलाम के बाद उनसे पूछ ही लिया आम आदमी के
बाबत। आम आदमीका नाम आते ही साहब लार टपकाते बोले - आम आदमी यानी पका फल,
जिसे चूसने के बाद गुठली की तरह फेंक दिया जाता है। भाई साहब हमें तो यही
ट्रेनिंग दी जाती है कि जब चाहो आम आदमी का मैंगो शेक बना लो या अचार डालकर
मर्तबान में सजा लो। वैसे हमें आम आदमी का मुरब्बा बहुत पसंद है।
अभी
आगे बढ़ा ही था कि एक रिक्शेवाला मिला। सोचा इनके भी विचार जान लेते हैं।
पूछने पर पता चला कि वह पोस्ट ग्रेजुएट है और नौकरी नहीं मिलने की वजह से
जीवन-यापन के लिए यह काम कर रहा है। बातचीत के दौरान ही मैंने सवाल दाग
दिया, तुमआम आदमी के बारे में क्या सोचते हो? रिक्शेवाले ने मुझे टेढ़ी
नजरों से देखा और बोला- आम आदमी? वह तो मेरे रिक्शे की तरह होता है। सारी
जिंदगी चूं-चूं करते बोझ ढोता है। जब किसी के काम नहीं आता तो अंधेरी कोठी
में कबाड़ की तरह डाल दिया जाता है।
रास्ते में मेरा
स्कूल दिख गया। बचपन के इस स्कूल को देखते ही मैंने रिक्शा रुकवाया, दस का
नोट पकड़ाया। स्कूल पहुंचा तो देखा पहले की तरह ही लकड़ी की कुर्सी पर
बैठे गुरुजी ऊंघ रहे थे। स्कूल के फंड और मिड-डे मील पर चर्चा हुई। यहां भी
वही सवाल। गुरुजी बोले, आम आदमी को मैं कोल्हू का बैल मानता हूं, जो
नून-तेल-लकड़ी के लिए एक चक्कर में घूमता रहता है, लेकिन कहीं पहुंचता
नहीं।
बातचीत में बहुत देर हो गई। घर आते ही मां बरस
पड़ीं - इतनी देर कहां लगा दी? पैर में दर्द हो रहा है, सुबह से दवा के
लिए बोल रही हूं। मां सचमुच दर्द से कराह रही थीं। मैं तुरंत डॉक्टर के पास
चल पड़ा।
दवा लेने के बाद डॉक्टर साहब से भी सवाल
दाग दिया। कान से आला निकालते हुए साहब दार्शनिक हो गए। बोले - आम
आदमीहमारे लिए टीबी, मलेरिया, बुखार है। हमारे लिए वही सबसे भला है, जिसका
इलाज हमारे क्लिनिक में लंबा चला है।
शाम सुहानी
थी। मोहल्ले के कुछ दोस्तों ने दावत का प्रोग्राम बना दिया। जगह तो हरदम की
तरह मोहल्ले के नेताजी का बरामदा थी। खाने का आनंद लेते समय नेताजी से भी
पूछ बैठा आम आदमी के बारे में। नेताजी के चेहरे पर चमक आ गई। बोले, आमआदमी
हमारे बड़े काम का है। हम जो चुनावी महाभारत रचते हैं, उसमें आम आदमी
विपक्ष को पछाड़ने के लिए नोट है, बस इतना जान लें कि आम आदमी हमारे लिए
अदना-सा वोट है।
मैं हैरत में था। सोचने लगा क्या आम
आदमी की यही परिभाषा है? मैंने तो सोचा था कि आम आदमी वह है, जो पैसों की
गर्मी से फैलता और कमी से सिकुड़ता है। जो महंगाई की आहट से कांप जाता है।
आम आदमी तो दुखों का ढेर है। अभावों का दलदल है। मुकम्मल बयान है, चेहरे पर
दर्द का गहरा निशान है। तभी एक बात सोचकर मुस्करा दिया। किसी ने कहा था: फलों का राजा आमहोता है। धत्, भला राजा भी कहीं ‘आम’ हो सकता है!
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Aap sabhi bhaiyo & bahno se anurodh hai ki aap sabhi uchit comment de............
jisse main apne blog ko aap sabo ke samne aur acchi tarah se prastut kar saku......