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प्रेम में चाह नहीं

भिखारी कभी सुखी नहीं रहता। उसे केवल भीख ही मिलती है। वह भी दया और तिरस्कार से युक्त। लेकिन हम सब भिखारी हैं। जो कुछ हम करते हैं, उसके बदले में हम कुछ चाह रखते हैं। हम लोग व्यापारी हैं। हम जीवन के व्यापारी हैं। गुणों के व्यापारी हैं। धर्म के व्यापारी हैं। अफसोस. हम प्यार के भी व्यापारी हैं।
यदि तुम व्यापार करने चलो, तो वह लेन-देन का सवाल है। इसलिए तुम्हें क्त्रय और विक्त्रय के नियमों का पालन करना होगा। भाव में चढ़ाव-उतार होता ही रहता है और कब व्यापार में चोट आ लगे, यही तुम सोचते रहते हो। देखा जाए तो व्यापार आईने में मुंह देखने के समान है। उसमें तुम्हारा प्रतिबिंब पड़ता है। तुम अपना मुंह बनाते हो तो आईने का मुंह भी बन जाता है। तुम हंसते हो, तो आईना भी हंसने लगता है। यही है खरीद-बिक्त्री और लेन-देन।
लेकिन अक्सर हम फंस जाते हैं। क्यों? इसलिए नहीं कि हम कुछ देते हैं, वरन इसलिए कि हम कुछ पाने की अपेक्षा करते हैं। हमारे प्यार के बदले हमें दुख मिलता है। इसलिए नहीं कि हम प्यार करते हैं, वरन इसलिए कि हम इसके बदले में भी प्यार चाहते हैं। जहां चाह नहीं है, वहां दुख भी नहीं है। वासना, चाह- यही दुखों की जननी है। चाह और वासनाओं का परिणाम अंतत: दुख ही होता है।
अतएव, सच्चे दुख और यथार्थ सफलता का सबसे बड़ा रहस्य यह है कि वही मनुष्य सबसे यशस्वी है, जो बदले में कुछ नहीं चाहता। जो बिल्कुल नि:स्वार्थ है। यह तो एक विरोधाभास-सा लगता होगा, क्योंकि तुम्हारी नजर में जो नि:स्वार्थ हैं, वे इस जीवन में ठगे जाते हैं, उन्हें चोट पहुंचाई जाती है? ऊपरी तौर पर देखो, तो यह बात सच मालूम होती है। ईसा मसीह नि:स्वार्थ थे, पर उन्हें भी सूली पर चढ़ाया गया। यह सच है, किंतु यह भी सच है कि उनकी नि:स्वार्थता एक महान विजय का कारण भी है। उस विजय से करोड़ों जीवों पर यथार्थ सफलता के वरदान की वर्षा हुई।
कुछ भी न मांगो। बदले में कोई चाह न रखो। तुम्हें जो कुछ देना हो, उसे दे दो। वह तुम्हारे पास वापस आ जाएगा। जब भी वापस आए, लेकिन आज ही उसका विचार मत करो। वह हजार गुना होकर वापस आएगा। पर तुम अपनी दृष्टि उस पर मत रखो। देने की ताकत पैदा करो। दे दो और बस काम खत्म हो गया। यह बात जान लो कि संपूर्ण जीवन दानस्वरूप है। प्रकृति तुम्हें देने के लिए बाध्य करेगी। इसलिए स्वेच्छापूर्वक दो।
इस संसार में तुम जोड़ने के लिए आते हो, मुट्ठी बांधकर तुम चाहते हो लेना, लेकिन प्रकृति तुम्हारा गला दबाती है और तुम्हें मुट्ठी खोलने को मजबूर करती है। तुम्हारी इच्छा हो या न हो, तुम्हें देना ही पड़ेगा। जिस क्षण तुम कहते हो कि मैं नहीं दूंगा, तुम्हें प्रकृति की चोट सहनी पड़ती है। दुनिया में आए हुए प्रत्येक व्यक्ति को अंत में खुद को भी दे देना ही पड़ेगा।
प्रकृति के इस नियम के विरुद्ध बरतने का मनुष्य जितना अधिक प्रयत्‍‌न करता है, उतना ही अधिक वह दुखी होता है। हममें देने की हिम्मत नहीं है, प्रकृति की यह उदात्त मांग पूरी करने के लिए हम तैयार नहीं हैं और यही है हमारे दुख का कारण। जंगल साफ हो जाते हैं, पर बदले में हमें प्रकृति का कोप भोगना पड़ता है। हमें ऊष्णता मिलती है। सूर्य समुद्र से पानी लेता है, इसलिए कि वह वर्षा करे। तुम भी लेन-देन के यंत्र मात्र हो। तुम इसीलिए लेते हो कि तुम दे सको। बदले में कुछ भी मत मांगो।
तुम जितना भी अधिक दोगे, उतना ही अधिक तुम्हें वापस मिलेगा। जितनी जल्दी इस कमरे की हवा तुम खाली करोगे, उतनी ही जल्दी यह बाहरी हवा से भर जाएगा। पर यदि तुम सब दरवाजे-खिड़कियां बंद कर लो, तो अंदर की हवा अंदर ही रहेगी, पर बाहरी हवा कभी अंदर नहीं आएगी। अंदर की हवा दूषित, गंदी और विषैली बन जाएगी। नदी खुद को समुद्र में लगातार खाली किए जा रही है और वह फिर से भरती आ रही है। नदी से सीखो, समुद्र की ओर गमन बंद मत करो।
भिखारी मत बनो। अनासक्त रहो। जीवन का यह एक कठिन कार्य है। पर आपत्तियों के संबंध में बेकार ही सोचते मत रहो। कल्पना शक्ति द्वारा आपत्तियों का चित्र खड़ा करने से भी तुम्हें उनका सच्चा ज्ञान नहीं होता, जब तक कि तुम उनका प्रत्यक्ष अनुभव न करो। चाहे हमें अपने कार्य में असफलता मिले, फिर भी हमें अपना हृदय थामकर रखना होगा।
अनासक्त होने का अपना निश्चय हम प्रतिदिन दोहराते हैं। हम अपनी दृष्टि पीछे डालते हैं और अपनी आसक्ति और प्रेम के पुराने विषयों की ओर देखते हैं और अनुभव करते हैं कि उनमें से प्रत्येक ने हमें कैसे दुखी बनाया। अपने प्यार के कारण हम किस प्रकार निराशा के गर्त में पड़ गए, सदा दूसरों के हाथों गुलाम ही रहते आए और नीचे ही नीचे खिंचते गए। हम फिर से नया निश्चय करते हैं- आज से मैं खुद पर अपनी हुकूमत चलाऊंगा, मैं अपना स्वामी बनूंगा। पर समय आता है और हम फिर बंधन में पड़ जाते हैं। पक्षी जाल में फंस जाता है, छटपटाता है, फड़फड़ाता है। यही है हमारा जीवन।
नब्बे प्रतिशत लोग प्राय: निराशावादी बन जाते हैं और प्रेम तथा सच्चाई में विश्वास करना छोड़ देते हैं। जो कुछ दिव्य एवं भव्य है, उस पर से भी उनका विश्वास उठ जाता है। लेकिन जब तक शरीर रोग के अनुकूल न हो, रोग नहीं होता। हमें वही मिलता है, जिसके हम पात्र हैं। आओ, हम अपना अभिमान छोड़ दें और समझ लें कि हम पर आई हुई कोई भी आपत्ति ऐसी नहीं है, जिसके हम पात्र न थे। फिजूल चोट कभी नहीं पड़ती। इसका हमें ज्ञान होना चाहिए।
तुम आत्मनिरीक्षण कर देखो, तो पाओगे कि ऐसी एक भी चोट तुम्हें नहीं लगी, जो स्वयं तुम्हारी ही की गई न हो। आधा काम तुमने किया और आधा बाहरी दुनिया ने और इस तरह तुम्हें चोट लगी। यह विचार हमें शांत बना देगा और साथ ही, इस निरीक्षण से आशा की आवाज आएगी- बाह्य जगत पर मेरा नियंत्रण भले न हो, पर मेरा अंतर्जगत मेरे अधिकार में है। मेरे अधिकार में जो दुनिया है, उसे मैं नहीं छोड़ूंगा, फिर देखूंगा कि मुझे चोट कैसे लगती है? यदि मैं स्वयं पर सच्चा प्रभुत्व पा जाऊं तो मुझे चोट कभी न लग सकेगी।

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