कभी जीवन में कुछ उपलब्धियां चलकर आ जाती हैं लेकिन उन्हें स्वीकार करने में हम चूक जाते हैं। सत्यनारायण व्रत कथा में एक प्रसंग आता है - ग्वाले प्रसाद देने आए और राजा तुंगध्वज ने अहंकारवश प्रसाद नहीं लिया। यह प्रसाद सत्य का प्रसाद था।
हमें कोई आकर भी जीवन में सत्य देता है, परमात्मा देता है, लेकिन हम अपने स्वभाव, आचरण, मनोवृत्ति, जीवनशैली, तौर-तरीके, हठ, अहंकार के कारण आती हुई कृपा को ठुकरा देते हैं, फिर दु:ख पाते हैं।अहंकार न करें यदि भक्त बनने की तैयारी में हैं। यदि भगवान को पाने की चाह है तो एक चीज से मुक्ति पाई जाए और वह है अहंकार। यह अहंकार हमें कहीं का नहीं रखेगा। याद रखिए आदमी के पास जो कुछ भी होता है वह अहंकार के कारण उल्टा चला ही जाता है।
परमात्मा तब ही उपलब्ध होगा जब हम अपने च्च्मैंज्ज् को गिरा देंगे। राजा तुंगध्वज भेदभाव, छुआछूत के पुराने जमाने में जी रहा था। ग्वालों को उसने छोटा समझा था। परमात्मा के विधान में छोटे बड़े का न तो महत्व है और न ही इसकी आज्ञा। यह नए का युग है।जीवन वहाँ उदास हो जाएगा जहाँ नए जीवन की धाराएं बंद हो जाएगी। यदि हमारा दिमाग, हमारा चित्त, हमारे भीतर का आदमी पुराना ही रहा, तो हम अपने आसपास भेदभाव की गंदगी इक_ा कर लेंगे। उस प्रसंग में सारे ग्वाले युवा थे, उत्साही थे।
नई पीढ़ी राजा की ओर हाथ बढ़ा रही थी और राजा पीछे की ओर हट रहे थे। प्रगति की ओर पीठ करके यात्रा करने वाली कोई भी सत्ता कैसे टिक सकती है?उस प्रसंग में इस कारण राजा को नुकसान उठाना पड़ा था, लेकिन बाद में युवा पीढ़ी से जुड़कर राजा को लाभ हुआ। नए युग से जुडऩा विकास की ओर बढऩा ही है।
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Aap sabhi bhaiyo & bahno se anurodh hai ki aap sabhi uchit comment de............
jisse main apne blog ko aap sabo ke samne aur acchi tarah se prastut kar saku......