कृष्ण की इच्छा थी कि उनके देह-विसर्जन के पश्चात् द्वारकावासी अर्जुन की सुरक्षा में हस्तिनापुर चले जाएँ। सो अर्जुन अन्त:पुर की स्त्रियों और प्रजा को लेकर जा रहे थे। रास्ते में डाकुओं ने लूटमार शुरू कर दी। अर्जुन ने तत्काल गाण्डीव के लिए हाथ बढ़ाया। पर यह क्या ! गाण्डीव तो इतना भारी हो गया था कि प्रत्यंचा खींचना तो दूर धनुष को उठाना ही संभव नहीं हो पा रहा था। महाभारत के विजेता, सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी विवश होकर अपनी आँखों के सामने अपना काफ़िला लुटता देख रहे थे। विश्वास नहीं हो रहा था कि वह वही है जिसने अजेय योद्धाओं को मार गिराया था। बिजली की कौंध से शब्द उनके मन में गूँज गए ‘‘तुम तो निमित्त मात्र हो पार्थ।’’ ‘श्रीमद्भावगत’ का यह प्रसंग जितना मार्मिक है उतना ही एक अखंड सत्य का उद्घोषक भी। जीवन में जब-जब कृष्ण तत्व अनुपस्थित होता है, तब-तब मनुष्य इसी तरह ऊर्जा रहित हो जाता है। कृष्ण के न रहने का मतलब है, जीवन में शाश्वत मूल्यों का ह्रास। उनका जीवन प्रतीक है अन्याय के प्रतिकार का, प्रेम के निर्वाह का, कर्म के उत्सव का, भावनाओं की उन्मुक्त अभिव्यक्ति का, शरणागत की रक्षा का। उनकी जीवन शैली हमे...
जिन्दगी नाम हैं,हर पल जीने का। रोने का, हँसने का, युही कुछ गाने का। जिन्दगी नाम हैं, लड़ने का,जितने का,हारने का और फ़िर मुस्कुराने का। जिन्दगी नाम हैं उड़ने का,गिरने का और आसमानों पार जाने का । जिन्दगी नाम हैं बहने का ,न थमने का, नदियाँ की तरह बस बहते जाने का।